एक समय वो था, जब गुरू-शिष्य के मध्य एक रिश्ता हुआ करता था। जिसमें बँधकर जहाँ शिष्य गुरू के लिए अपार श्रद्धा रखता था, वहीं गुरू भी शिष्य को ज्ञान बाँटने के लिए उद्यत रहता था। उस समय ट्यूशन प्रथा नही थी।
मुझे 1960-70 के दशक की भली-भाँति याद है।
उन दिनों जिला-बिजनौर के नजीबाबाद शहर में पानी की बहुत किल्लत हुआ करती थी। सुबह 4 बजे से ही पनघट पर कुओं से पानी भरने की होड़ सी लगी रहती थी। कई बार तो कुएँ का पानी कम हो जाने पर गँदला पानी ही भरना पड़ता था और उसे निथार-निथार कर प्रयोग में लाया जाता था।
हिन्दी, संस्कृत व संगीत के प्रकाण्ड पण्डित यमुना प्रसाद कात्यायन जी का 2-4 मेधावी विद्यार्थियों पर बड़ा स्नेह था। जब तक हम उस विद्यालय मे पढ़े हमने सदैव 4 बजे कुओं से गुरू जी के लिए नियम से पानी भरा है। यद्यपि गुरू जी हमें पानी लाने के लिए नही कहते थे, परन्तु यह मारी गुरू के प्रति श्रद्धा ही थी।
गुरू जी ने भी हमें अष्टाध्यायी व लघु सिद्धान्त कौमुदी पढ़ाने में कोई कमी नही की थी। उस समय के याद करे हुए महेश्वर के सूत्र आज भी हमें कण्टस्थ याद है।
रिश्ता तो आज भी गुरू-शिष्य में प्रगाढ़ ही लगता है। मेरे शहर खटीमा में राजकीय इण्टर कालेज में कुछ गुरूजन ऐसे सौभाग्यशाली हैं जिनके घर पर 60-70 विद्याथियों की ट्यूशन की 2-3 शिफ्ट प्रातः तथा 2-3 शिफ्ट शाम को चलती हैं।
इसके अलावा कुछ छात्र उनके दोस्त भी बने हुए हैं, जो उनके लिए बोतल लेकर आते हैं और शाम ढलते ही गुरू और चेले साथ में बैठ कर जाम छलकाते हैं।
हुआ न प्रगाढ़ रिश्ता।
yahi fark hai tab mein aur ab mein........guru shishy ke paavan rishtey ki maryada ko jab aaj ke guru nahin samajhte hain to shishyon se kaise ummeed karein.
ReplyDeletebahut hi sarahniya lekh likha hai.shayad ise padhkar kuch logon mein is rishtey ki maryada samajh aa jaye.
हा हा हा बहुत रोचक आलेख है आपका...जो सेवा पहले पानी से हुआ करती थी अब सुरा से होती है...इसीलिए अब पानी* न गुरुओं में रहा ना शिष्यों में...
ReplyDelete*पानी से अभिप्राय आँख के पानी से है...
नीरज
उस समय तो ट्युशन पढने वाले बच्चे को निरा भोंदु समझा जाता था।
ReplyDeleteकल, आज, और कल में बड़ा परिवर्तन निहित है
ReplyDeleteजी हां शास्त्री जी, तब और अब में बहुत फ़र्क है.
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