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"नये नेता का चुनाव"
“नये नेता का चुनाब” यह वाक्य सुनने में कितना अच्छा लगता है। भारत के किसी राज्य में जब भी कोई बहुमत वाला राजनीतिक दल अपने नए नेता का चुनाव करवाता है तो बड़े बेमन से विधायकों को नेता के चुनाव पर अपनी मुहर लगाना होता है। क्योंकि नेता का चयन तो हाईकमान पहले से ही कर देता है। लेकिन हमने रीति ही ऐसी बना ली है कि मजबूरी में यह सब करना पड़ता है और हाईकमान के फैसले को झेलना पड़ता है।
इस पर बहुत से प्रश्न दिमाग में कौंधने लगते हैं।
क्या एक लोकतान्त्रिक देश में यह प्रक्रिया शोभनीय है?
क्या राजनीतिक दल द्वारा थोपा गया फैसला विधायकों का अपना फैसला होता है?
क्या विधायकों को अपनी पसंद का नेता चुनने का भी हक नहीं है?
क्या इससे दलगत राजनीति में असन्तोष समाप्त होगा?
इन प्रश्नों का उत्तर तो एक ही है कि नेता कभी भी उन विधायकों की पसंद का नहीं होता है जिनके साथ नेता को अपनी सरकार चलानी होती है।
सच तो यह है कि यह ऊपर से थोपा गया नेता पार्टी के हाथों की कठपुतली बना रहता है और अपने मन्त्रिमण्डल के मन्त्रियों के चुनाव करने में भी वह स्वतन्त्र नहीं होता है। छोटी-छोटी बातों के लिए उसे हमेशा केन्द्रीय संगठन तक दौड़ लगानी पड़ती है।
राज्य के हित में लिए जाने वालो फैसलों के लिए भी उसे हाईकमान का मुँह देखना पड़ता है। यही कारण है कि वह कभी भी अपने को स्वतन्त्र महसूस नहीं करता है और अपने दल के विधायकों का चहेता नहीं बन पाता है। क्योंकि उसका चुनाव उसके विधायकों ने नही किया होता है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश में यह लोकतन्त्र की हत्या नहीं तो और क्या है?
क्या आजादी के 65 वर्ष के बाद भी हम सामन्तवादी युग में नहीं जी रहे हैं?
यदि हमें अपनी प्रजातान्त्रिक छवि अक्षुण्ण रखनी है तो इस प्रथा को बदलना ही होगा। तभी हम दलगत असन्तोष से मुक्त हो सकते हैं।