मित्रों!
सुख की साझीदारी करते हुए हर्ष हो रहा है कि
माँ सरस्वती की कृपा से
तेजी से भागते हुए वर्ष के अन्त में
मेरी दो किताबें 20 दिसम्बर तक छप कर आ जाएँगी!
नन्हें सुमन की भूमिका हिन्दी ब्लॉगिंग के पुरोधा
आदरणीय समीर लाल "समीर" ने
लिखकर मुझे कृतार्थ किया है।
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सोच रहा हूँ कि कहाँ से अपनी बात शुरू करूँ?
1984 में देवभूमि उत्तराखण्ड की ध्रती पर खटीमा शहर में राष्ट्रीय वैदिक विद्यालय के नाम से छोटे बच्चों का विद्यालय प्रारम्भ किया था! पाठ्यक्रम में बाल कविताओं में कई कमियाँ नजर आतीं थी तो मैंने सोचा कि क्यों न कुछ बाल कविताएँ लिखी जायें! विद्यालय का वार्षिकोत्सव नज़दीक था और उसके लिए कोई ढंग का स्वागत गीत मिल नहीं रहा था तो मुझे खुद ही तुकबन्दी करनी पड़ी-
‘‘स्वागतम कर रहा आपका हर सुमन।
आप आये यहाँ आपको शत् नमन।।....’’
उस समय मेरा यह स्वागत गीत बहुत ही लोकप्रिय हुआ। मेरे विद्यालय से उत्तीर्ण छात्र जब दूसरे विद्यालयों में गये तो उत्सवों में वहाँ भी यह गाया जाने लगा और मैं ध्न्य हो गया। खटीमा और समीपवर्ती क्षेत्र में आज भी पिछले 26 वर्षों से यह गीत गाया जा रहा है।
इसके बाद तो बाल कविताओं का सिलसिला शुरू हो गया। लेकिन मेरे पास बाल गीत बहुत सीमित संख्या में थे। 1999 में बड़े पुत्र के यहाँ प्रांजल के रूप में एक नन्हा सुमन अवतरित हुआ और उसके 5 साल बाद एक प्यारी सी पौत्री प्राची ने जन्म लिया। अब तो इनके बहलाने के लिए बालगीतों की धारा सुरसरिता सी बहने लगी थी।
इसके बाद ब्लॉगिंग शुरू की तो ‘नन्हे-सुमन’ के नाम से ब्लॉग बना लिया। जिस पर मेरी अधिकांश बालकविताएँ लगीं हुई हैं।
अब मेरे पास पर्याप्त सामग्री हो गई थी। लेकिन आलस के कारण लिखने के अलावा कभी इनको छपवाने का विचार आया ही नहीं था। आज भी यह पुस्तक नहीं छप पाती। लेकिन बहन श्रीमती आशा शैली, डॉ. सिद्धेश्वर सिंह, रावेन्द्रकुमार रवि के पिछले कई वर्षों से आग्रह करने के कारण मैंने एक कविताओं की पुस्तक ‘सुख का सूरज’ छपवाने का मन बना लिया।
मुद्रक से बात की तो उसने एक पुस्तक का रंगीन आवरण पृष्ठ बनाने के लिए पाँच हजार रुपये का खर्चा बताया और दो पुस्तकों का आवरण बनाने का भी इतना ही मूल्य बताया तो मन में आया कि क्यों न एक साथ दो पुस्तकें ही छपवा ही ली जायें। जिसके परिणामस्वरूप बाल कविताओं की यह पुस्तक ‘नन्हें सुमन’ आप तक पहुँचाते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
अन्त में यही कहूँगा कि-
‘‘हमको सुर ताल लय का नहीं ज्ञान है,
गलतियाँ हों क्षमा हम तो अज्ञान हैं,
आपका आगमन धन्य शुभआगमन।
अपने आशीष से धन्य कर दो हमें,
देश को दें दिशा ऐसा वर दो हमें,
आपको हैं समर्पित हमारे सुमन।
स्वागतम कर रहा ......................।।’’
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दूसरी पुस्तक "सुख का सूरज" है।
जिसकी भूमिका हिन्दी के मनीषी
डॉ. सिद्धेश्वर सिंह
(हिन्दी विभागाध्यक्ष-राजकीय स्नातकत्तर महाविद्यालय, खटीमा)
ने लिख कर मुझे अनुग्रहीत किया है।
नहीं जानता कैसे बन जाते हैं, मुझसे गीत-गजल।
ना जाने मन के नभ पर, कब छा जाते गहरे बादल।।
ना कोई कापी ना कागज, ना ही कलम चलाता हूँ।
खोल पेजमेकर को, हिन्दी-टंकण करता जाता हूँ।।
देख छटा बारिश की, अंगुलियाँ चलने लगती हैं।
कम्प्यूटर देखा तो उस पर, शब्द उगलने लगती हैं।।
नज़र पड़ी टीवी पर तो, अपनी हरकत कर जाती हैं।
चिड़िया का स्वर सुनकर, अपने करतब को दिखलाती हैं।।
बस्ता और पेंसिल पर, उल्लू बन क्या-क्या रचती हैं।
सेल-फोन, तितली-रानी, इनके नयनों में सजती है।।
कौआ, भँवरा और पतंग भी, इनको बहुत सुहाती हैं।
नेता जी की टोपी, श्यामल गैया बहुत लुभाती है।।
सावन का झूला हो, चाहे होली की हों मस्त पुफहारें।
जाने कैसे दिखलातीं ये, बाल-गीत के मस्त नजारे।।
मैं तो केवल जाल-जगत पर, इन्हें लगाता जाता हूँ।
क्या कुछ लिख मारा है, मुड़कर नहीं देख ये पाता हूँ।।
जिन देवी की कृपा हुई है, उनका करता हूँ वन्दन।
सरस्वती माता का करता, कोटि-कोटि हूँ अभिनन्दन।।
बचपन में हिन्दी की किताब में कविताएँ पढ़ता था तभी से यह धारणा बन गई थी कि जो रचनाएँ छन्दबद्ध तथा गेय होती हैं, वही कविता की श्रेणी में आती हैं। आज तक मैं इसी धारणा को लेकर जी रहा हूँ। बचपन में मन में इच्छा होती थी कि मैं भी ऐसी ही कविताएँ लिखूँ।
ऐसा नही है कि अतुकान्त रचनाएँ मुझे अच्छी नहीं लगती हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि मैं आज भी इनको गद्य ही मानता हूँ। कक्षा-9 तक आते-आते मैंने तुकबन्दी भी करनी शुरू कर दी थी और यदा-कदा रचना भी करने लगा था। लेकिन सन् 2008 के अन्त तक भी मेरे पास मात्रा 80-90 रचनाएँ ही थीं।
जनवरी 2009 में एक दिन मेरे मित्र रावेन्द्रकुमार रवि मेरे पास आये और कहने लगे कि मैंने ‘सरस पायस’ के नाम से एक ब्लॉग बनाया है। उस समय मुझे यह पता भी नही था कि ब्लॉग क्या होता है? कभी-कभार अखबार में पढ़ लिया करता था कि अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग मे यह लिखा...!
अब ब्लॉगिंग की बात चली तो रवि जी बताने लगे कि इसके लिए कम्प्यूटर के साथ नेट का कनेक्शन होना भी जरूरी है। मैंने उन्हें बताया कि मेरे पुत्रों ने ब्रॉड-बैण्ड का अनलिमिटेड कनेक्शन लिया हुआ है किन्तु वे इसको 2-3 घण्टे ही प्रयोग में लाते हैं। मेरी रुचि को देखते हुए इन्होंने जी-मेल पर मेरी आई.डी. बनाई और ‘उच्चारण’ के नाम से मेरा ब्लॉग भी बना दिया। इसके बाद जब उन्होंने मेरी एक छोटी सी रचना पोस्ट की तो टिप्पणी के रूप में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, खटीमा के हिन्दी विभागाध्यक्ष-डॉ. सि(ेश्वर सिंह ने मुझे जाल-जगत पर आने की बधई भी दे डाली।
मैं 1998 से कम्प्यूटर पर पेजमेकर में काम करता रहा हूँ मगर ब्लॉग पर रचनाएँ पोस्ट करना मुझे नहीं आता था। इस काम में डॉ. सिद्धेश्वर सिंह ने मेरी बहुत मदद की और मेरी ब्लॉगिंग शुरू हो गई। जाल-जगत के ब्लॉगरों ने भी मेरी पोस्टों पर अपनी सकारात्मक टिप्पणियाँ देकर मेरा उत्साह बढ़ाया। लगभग डेढ़ साल में मेरी रचनाओं की तो नहीं, हाँ, तुकबन्दियों की संख्या 900 का आँकड़ा जरूर पार कर गयी।
ब्लॉगिंग में मुझे अपनी पत्नी श्रीमती अमर भारती और दोनों पुत्रों नितिन और विनीत का भी सहयोग मिला जिसके कारण मेरी ब्लॉगिंग की धारा अनवरतरूप से जारी है! विगत कई वर्षों से बहन आशा शैली जी बार-बार पुस्तक प्रकाशन के लिए हठ कर रही थीं, परन्तु मेंने अधिक ध्यान नहीं दिया। पिछले एक साल से डॉ. सिद्धेश्वर सिंह भी मुझे किताब छपवाने के लिए लगातार प्रेरित करते रहे। अन्ततः ‘सुख का सूरज’ के रूप में मेरा यह काव्य संकलन आपके हाथों में है।
यह सब इतनी जल्दी में हो गया कि इसमें कविताओं का चयन भी ठीक से नहीं हो पाया। मेरी शुरूआती और ब्लॉगिंग के समय की रचनाएँ इसमें संकलित हैं। अतः इनमें कमियाँ तो निश्चितरूप से होंगी ही, पिफर भी मुझे विश्वास है कि पाठक इन त्रुटियों पर ध्यान न देते हुए मेरी कविताओं का पूरा आनन्द लेंगे।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
खटीमा ;उत्तराखण्ड
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चलभाष 09368499921, 09997996437