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Saturday 18 December 2010

"खटीमा में कविगोष्ठी सम्पन्न" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

खटीमा में डॉ. विद्यासागर कापड़ी (पशुचिक्त्साधिकारी) के निवास पर 
एक कवि गोष्ठी का आयोजन किया गया!
सबसे पहले साहित्य शारदा मंच के अध्यक्ष
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" ने
माँ सरस्वती के चित्र के सामने
दीप प्रज्वलन कर गोष्ठी का शुभारम्भ किया!
इस अवसर पर डॉ. विद्यासागर कापड़ी ने
माँ सरस्वती की वन्दना कर अपना काव्यपाठ किया!
इन्होंने नेताओं पर शानदार सवैय्या सुना कर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया!
रूमानीशायर गुरू सहाय भटनागर ने इस अवसर पर
देशभक्ति से ओत-प्रोत एक गजल के साथ
शृंगार की भी कुछ रचनाओं का पाठ किया!
राज किशोर सक्सेना "राज" ने
वर्तमान स्थिति पर काव्यपाठ करते हुए
समाज में पनप रहे नंगेपन पर कटाक्ष किये!
डॉ.चन्द्रशेखर जोशी ने अपनी अलग शैली में
सीक से हटकर कुछ धारदार व्यंग्य सुनाए!
गोष्ठी का संचालन कर रहे हिन्दी प्राध्यापक डॉ.गंगाधर राय ने
बढ़ती मँहगाई को लेकर अपनी रचना का वाचन किया!

अन्त में गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" ने अपनी चिर-परिचित तुकान्त शैली में 
अपने ताजा बालगीत और कुछ रचनाओं का पाठ किया!
इस अवसर पर डॉ.विद्यासागर कापड़ी ने सभी रचनाधर्मियों का आभारदर्शन किया!

Friday 10 December 2010

"आखिरकार मैंने भी डोमेन खरीद लिया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

भाई रतन सिंह शेखावत की कृपा से

और ताऊ रामपुरिया (पी,सी.मुदगल) के सौजन्य से
"मैंने भी डोमेन खरीद लिया!"
अब मेरे सभी ब्लॉग्स के पते इस प्रकार रहेंगे!

(शब्दों का दंगल) http://uchcharandangal.uchcharan.com
(उच्चारण) http://uchcharan.uchcharan.com
(मयंक) http://powerofhydro.uchcharan.com
(नन्हे सुमन) http://nicenice-nice.uchcharan.com
(बाल चर्चा मंच) http://mayankkhatima.uchcharan.com
(चर्चा मंच) http://charchamanch.uchcharan.com
(अमर भारती) http://bhartimayank.uchcharan.com
मेरा नया ई-मेल भी निम्नवत् होगा!
E-MAIL rcshashtri@uchcharan.com

Tuesday 30 November 2010

"आप सबसे सुख की साझेदारी" (:डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

मित्रों!
     सुख की साझीदारी करते हुए हर्ष हो रहा है कि 
माँ सरस्वती की कृपा से 
तेजी से भागते हुए वर्ष के अन्त में
 मेरी दो किताबें 20 दिसम्बर तक छप कर आ जाएँगी!

नन्हें सुमन की भूमिका हिन्दी ब्लॉगिंग के पुरोधा 
आदरणीय समीर लाल "समीर" ने 
लिखकर मुझे कृतार्थ किया  है।
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     सोच रहा हूँ कि कहाँ से अपनी बात शुरू करूँ?
1984 में देवभूमि उत्तराखण्ड की ध्रती पर खटीमा शहर में राष्ट्रीय वैदिक विद्यालय के नाम से छोटे बच्चों का विद्यालय प्रारम्भ किया था! पाठ्यक्रम में बाल कविताओं में कई कमियाँ नजर आतीं थी तो मैंने सोचा कि क्यों न कुछ बाल कविताएँ लिखी जायें! विद्यालय का वार्षिकोत्सव नज़दीक था और उसके लिए कोई ढंग का स्वागत गीत मिल नहीं रहा था तो मुझे खुद ही तुकबन्दी करनी पड़ी-
‘‘स्वागतम कर रहा आपका हर सुमन।
आप आये यहाँ आपको शत् नमन।।....’’
उस समय मेरा यह स्वागत गीत बहुत ही लोकप्रिय हुआ। मेरे विद्यालय से उत्तीर्ण छात्र जब दूसरे विद्यालयों में गये तो उत्सवों में वहाँ भी यह गाया जाने लगा और मैं ध्न्य हो गया। खटीमा और समीपवर्ती क्षेत्र में आज भी पिछले 26 वर्षों से यह गीत गाया जा रहा है।
इसके बाद तो बाल कविताओं का सिलसिला शुरू हो गया। लेकिन मेरे पास बाल गीत बहुत सीमित संख्या में थे। 1999 में बड़े पुत्र के यहाँ प्रांजल के रूप में एक नन्हा सुमन अवतरित हुआ और उसके 5 साल बाद एक प्यारी सी पौत्री प्राची ने जन्म लिया। अब तो इनके बहलाने के लिए बालगीतों की धारा सुरसरिता सी बहने लगी थी।
इसके बाद ब्लॉगिंग शुरू की तो ‘नन्हे-सुमन’ के नाम से ब्लॉग बना लिया। जिस पर मेरी अधिकांश बालकविताएँ लगीं हुई हैं।
अब मेरे पास पर्याप्त सामग्री हो गई थी। लेकिन आलस के कारण लिखने के अलावा कभी इनको छपवाने का विचार आया ही नहीं था। आज भी यह पुस्तक नहीं छप पाती। लेकिन बहन श्रीमती आशा शैली, डॉ. सिद्धेश्वर सिंह, रावेन्द्रकुमार रवि के पिछले कई वर्षों से आग्रह करने के कारण मैंने एक कविताओं की पुस्तक ‘सुख का सूरज’ छपवाने का मन बना लिया। 
मुद्रक से बात की तो उसने एक पुस्तक का रंगीन आवरण पृष्ठ बनाने के लिए पाँच हजार रुपये का खर्चा बताया और दो पुस्तकों का आवरण बनाने का भी इतना ही मूल्य बताया तो मन में आया कि क्यों न एक साथ दो पुस्तकें ही छपवा ही ली जायें। जिसके परिणामस्वरूप बाल कविताओं की यह पुस्तक ‘नन्हें सुमन’ आप तक पहुँचाते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
अन्त में यही कहूँगा कि-

‘‘हमको सुर ताल लय का नहीं ज्ञान है,
गलतियाँ हों क्षमा हम तो अज्ञान हैं,
आपका आगमन धन्य शुभआगमन।

अपने आशीष से धन्य कर दो हमें,
देश को दें दिशा ऐसा वर दो हमें,
आपको हैं समर्पित हमारे सुमन।
स्वागतम कर रहा ......................।।’’
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दूसरी पुस्तक "सुख का सूरज" है। 
जिसकी भूमिका हिन्दी के मनीषी 
डॉ. सिद्धेश्वर सिंह 
(हिन्दी विभागाध्यक्ष-राजकीय स्नातकत्तर महाविद्यालय, खटीमा) 
ने लिख कर मुझे अनुग्रहीत किया है।


नहीं जानता कैसे बन जाते हैं, मुझसे गीत-गजल।
ना जाने मन के नभ पर, कब छा जाते गहरे बादल।।

ना कोई कापी ना कागज, ना ही कलम चलाता हूँ।
खोल पेजमेकर को, हिन्दी-टंकण करता जाता हूँ।।

देख छटा बारिश की, अंगुलियाँ चलने लगती हैं।
कम्प्यूटर देखा तो उस पर, शब्द उगलने लगती हैं।।

नज़र पड़ी टीवी पर तो, अपनी हरकत कर जाती हैं।
चिड़िया का स्वर सुनकर, अपने करतब को दिखलाती हैं।।

बस्ता और पेंसिल पर, उल्लू बन क्या-क्या रचती हैं।
सेल-फोन, तितली-रानी, इनके नयनों में सजती है।।

कौआ, भँवरा और पतंग भी, इनको बहुत सुहाती हैं।
नेता जी की टोपी, श्यामल गैया बहुत लुभाती है।।

सावन का झूला हो, चाहे होली की हों मस्त पुफहारें।
जाने कैसे दिखलातीं ये, बाल-गीत के मस्त नजारे।।

मैं तो केवल जाल-जगत पर, इन्हें लगाता जाता हूँ।
क्या कुछ लिख मारा है, मुड़कर नहीं देख ये पाता हूँ।।

जिन देवी की कृपा हुई है, उनका करता हूँ वन्दन।
सरस्वती माता का करता, कोटि-कोटि हूँ अभिनन्दन।।

बचपन में हिन्दी की किताब में कविताएँ पढ़ता था तभी से यह धारणा बन गई थी कि जो रचनाएँ छन्दबद्ध तथा गेय होती हैं, वही कविता की श्रेणी में आती हैं। आज तक मैं इसी धारणा को लेकर जी रहा हूँ। बचपन में मन में इच्छा होती थी कि मैं भी ऐसी ही कविताएँ लिखूँ।
ऐसा नही है कि अतुकान्त रचनाएँ मुझे अच्छी नहीं लगती हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि मैं आज भी इनको गद्य ही मानता हूँ। कक्षा-9 तक आते-आते मैंने तुकबन्दी भी करनी शुरू कर दी थी और यदा-कदा रचना भी करने लगा था। लेकिन सन् 2008 के अन्त तक भी मेरे पास मात्रा 80-90 रचनाएँ ही थीं। 
जनवरी 2009 में एक दिन मेरे मित्र रावेन्द्रकुमार रवि मेरे पास आये और कहने लगे कि मैंने ‘सरस पायस’ के नाम से एक ब्लॉग बनाया है। उस समय मुझे यह पता भी नही था कि ब्लॉग क्या होता है? कभी-कभार अखबार में पढ़ लिया करता था कि अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग मे यह लिखा...!
अब ब्लॉगिंग की बात चली तो रवि जी बताने लगे कि इसके लिए कम्प्यूटर के साथ नेट का कनेक्शन होना भी जरूरी है। मैंने उन्हें बताया कि मेरे पुत्रों ने ब्रॉड-बैण्ड का अनलिमिटेड कनेक्शन लिया हुआ है किन्तु वे इसको 2-3 घण्टे ही प्रयोग में लाते हैं। मेरी रुचि को देखते हुए इन्होंने जी-मेल पर मेरी आई.डी. बनाई और ‘उच्चारण’ के नाम से मेरा ब्लॉग भी बना दिया। इसके बाद जब उन्होंने मेरी एक छोटी सी रचना पोस्ट की तो टिप्पणी के रूप में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, खटीमा के हिन्दी विभागाध्यक्ष-डॉ. सि(ेश्वर सिंह ने मुझे जाल-जगत पर आने की बधई भी दे डाली।
मैं 1998 से कम्प्यूटर पर पेजमेकर में काम करता रहा हूँ मगर ब्लॉग पर रचनाएँ पोस्ट करना मुझे नहीं आता था। इस काम में डॉ. सिद्धेश्वर सिंह ने मेरी बहुत मदद की और मेरी ब्लॉगिंग शुरू हो गई। जाल-जगत के ब्लॉगरों ने भी मेरी पोस्टों पर अपनी सकारात्मक टिप्पणियाँ देकर मेरा उत्साह बढ़ाया। लगभग डेढ़ साल में मेरी रचनाओं की तो नहीं, हाँ, तुकबन्दियों की संख्या 900 का आँकड़ा जरूर पार कर गयी। 
ब्लॉगिंग में मुझे अपनी पत्नी श्रीमती अमर भारती और दोनों पुत्रों नितिन और विनीत का भी सहयोग मिला जिसके कारण मेरी ब्लॉगिंग की धारा अनवरतरूप से जारी है! विगत कई वर्षों से बहन आशा शैली जी बार-बार पुस्तक प्रकाशन के लिए हठ कर रही थीं, परन्तु मेंने अधिक ध्यान नहीं दिया। पिछले एक साल से डॉ. सिद्धेश्वर सिंह भी मुझे किताब छपवाने के लिए लगातार प्रेरित करते रहे। अन्ततः ‘सुख का सूरज’ के रूप में मेरा यह काव्य संकलन आपके हाथों में है।
यह सब इतनी जल्दी में हो गया कि इसमें कविताओं का चयन भी ठीक से नहीं हो पाया। मेरी शुरूआती और ब्लॉगिंग के समय की रचनाएँ इसमें संकलित हैं। अतः इनमें कमियाँ तो निश्चितरूप से होंगी ही,  पिफर भी मुझे विश्वास है कि पाठक इन त्रुटियों पर ध्यान न देते हुए मेरी कविताओं का पूरा आनन्द लेंगे।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
खटीमा ;उत्तराखण्ड
फोन/फैक्सः 05943-250207
चलभाष 09368499921, 09997996437

Friday 26 November 2010

"श्रीमती आशा शैली सम्मानित" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


शैल सूत्र की प्रधान सम्‍पादिका
श्रीमती आशा शैली द्वारा लिखित पुस्‍तक
को तुलसी साहित्‍य अकादमी ने
भोपाल में आयोजित एक भव्य सामरोह में
20 नवम्‍बर 2010 को
इनकी पुस्तक "गर्द के नीचे" के लिए
दादा श्‍याम बिहारी चौबे पुरस्‍कार दिया गया है।
जिसमें शॉल-श्रीफल, सम्मानपत्र
एवं 2100 रुपये की धनराशि भेंट की गई।
"गर्द के नीचे" पुस्‍तक में
हिमाचल प्रदेश के स्‍वतन्‍त्रता सैनानियों की जीवनियाँ संजोई गई है।
एतदर्थ मैं श्रीमती आशा शैली को हार्दिक बधाई प्रेषित करता हूँ।

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Tuesday 9 November 2010

“नानकमत्ता का मेला”


नानकमत्ता का दीपावलीमेला

महाकवि कालिदास ने कहा है-"उत्सवप्रियाः मानवाः" इसलिए हमें भी हर साल दिवाली का इन्तजार रहता है लेकिन हमारे पोते-पोती को नानकमत्ता में दीपावली पर 10 दिनों तक लगने वाले मेले का।
इस साल भी दीवाली क्या आई हमारी तो नाक में दम कर दिया इन छोटे-छोटे घर के दीपकों ने।
nanakmatta melaसच बात तो यह है कि हमें भी इस दीवाली मेले का इन्तजार रहता है। मेरी धर्मपत्नी अमरभारती जी तो कहती हैं कि अपने शहर में तो फुटपाथ से सामान खरीदते हुए शर्म लगती है। इसलिए मेले में यह इच्छा पूरी हो जाती ह।
आराम से मोल-भाव करने और सामान खरीदने का मज़ा ही कुछ और है।
कल भी हम तो मेले में फोटो ही खींचते रह गये और इन्होंने जमकर करीदारी कर ली। पचास रुपये में बोन चायना के 6 कप, 5-5 रुपयो वाली चाय छानने की छलनी, सस्ते रबड़ बैण्ड, चमचे ट्रे, 70 रुपये की दो कमीजें दोनों बेटों के लिए और न जाने क्या-क्या खरीदा।
लेकिन इतनी बात तो है कि सामान सब बढ़िया और उपयोगी खरीदा। जिससे हमारी भी जेब पर अधिक भार नही पड़ा।
IMG_2432मेले में एक पुलिस के दरोगा जी हमारे परिचित ही मिल गये और वो हमें मेला पुलिस कोतवाली में ले गये। चाय-नाश्ता भी कराया और चलते समय बच्चों को 10 फ्री पास भी दे दिये। लगभग सभी खेल-तमाशे और झूलों का आनन्द बच्चों ने ही नही पूरे परिवार ने मुप्त में उठाया।
आप भी देखिए नानकमत्ता के दीपावली मेले के कुछ चित्र!
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IMG_2440IMG_2443IMG_2445IMG_2444IMG_2446
IMG_2433अब शाम घिर आई थी घर चलने की जल्दी थी। मगर मेरी छोटी बहन जो भइया दूज पर हमारे घर आई हुई थी। वह मेले में गुम हो गई। अब सभी लोग लगे उसको ढूँढने में। चिन्ता तो यह नही थी कि वो खो जायेगी लेकिन सवाल यह था कि उनको साथ लेकर आये थे तो साथ ही ले भी जाना था। हमारे साथ उनका बड़ा पुत्र जो कालेज में प्रवक्ता है वो भी आया हुआ था। मम्मी के गुम होने के कारण वह खासा परेशान था। 3-4 किमी. मे फैले मेले में उनको काफी ढूँढा गया मगर वो नही मिली।
गनीमत यह रही कि हमारे भानजे ने अपनी मम्मी को अपना मोबाइल दे दिया था।
लगभग एक दर्जन मिसकाल इस मोबाइल पर की गयीं। मगर मोबाइल नही उठा।
हम लोग परेशान होकर कार में बैठ गये कि घर जाकर पता करेंगे कि बहन जी कहीं घर ही तो नहीं चलीं गई होंगी।
तभी एक कॉल आई कि भइया मैं मेले के बाहर आकर नानक मत्ता के बिजलीघर वाले चौराहे पर आ गई हूँ। क्योंकि मैं रास्ता भूल गई थी।
अब हमारी जान में जान आई। बहन जी को 3 किंमी दूर नानक मत्ता के बिजलीघर वाले चौराहे से लिया और शाम को 7 बजे तक खटीमा आ गये।

Friday 5 November 2010

“परिचर्चा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय",
शमशेर बहादुर सिंह, बाबा नागार्जुन,
केदार नाथ अग्रवाल और फैज़ अहमद “फैज़”
IMG_2361 - Copyfaizसच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय", शमशेर बहादुर सिंह, बाबा नागार्जुन, केदार नाथ अग्रवाल और फैज़ अहमद “फैज़” की जन्म शताब्दी पर खटीमा में डॉ.चन्द्र शेखर जोशी के निवास पर एक चर्चा गौषठी का आयोजन किया गया। जिसमें सर्वप्रथम इन महान साहित्यकारों के चित्रों पर पुष्पाञ्जलि अर्पित की गई।

IMG_2374 - Copyइसके बाद परिचर्चा काशुभारम्भ करते हुए राजकिशोर सक्सेना “राज” ने सच्चिदानन्द हीरानन्द “अज्ञेय”, के विषय में विस्तृत प्रकाश डालते हुए उत्तराखण्ड मे स्थित नन्दा देवी पर रचित 15 कविताओं का उल्लेख किया।
जिनमें से कुछ कविताएँ निम्न हैं-

तुम
वहाँ हो
मन्दिर तुम्हारा
यहाँ है।
और हम--
हमारे हाथ, हमारी सुमिरनी--
यहाँ है--
और हमारा मन
वह कहाँ है?
---------------------------------------------------
कितनी जल्दी
तुम उझकीं
झिझकीं ओट हो गईं,
नन्दा !
उतने ही में बीन ले गईं
धूप-कुन्दन की अन्तिम कनिका
देवदारु के तनों के बीच
फिर तन गई धुन्ध की झीनी यवनिका।
---------------------------------------------------
निचले
हर शिखर पर
देवल :
ऊपर
निराकार
तुम
केवल...
-----------------------------------------------------------------------

23042009321_1इसके बाद डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ने
बाबा नानार्जुन का संक्षिप्त परिचय देते हुए
उनके कुछ संस्मरण सुनाए।
जिसमें से एक सचित्र संस्मरण
यहाँ दिया जा रहा है-

जन्म : १९११ ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ग्राम तरौनी, जिला दरभंगा में।परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा।सुविख्यात प्रगतिशील कवि एवं कथाकार।हिन्दी, मैथिली, संस्कृत और बंगला में काव्य रचना।मातृभाषा मैथिली में "यात्री" नाम से लेखन।मैथिली काव्य संग्रह "पत्रहीन नग्न गाछ" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।
छे से अधिक उपन्यास, एक दर्जन कविता संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली (हिन्दी में भी अनूदित) कविता संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य "धर्मलोक शतकम" तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता।
बाबा नागार्जुन जुलाई 1989 के प्रथम सप्ताह में 5 जुलाई से 8 जुलाई तक मेरे घर में रहे। मेरे दोनो पुत्रों नितिन और विनीत के तो मजे ही आ गये। बाबा उनसे खूब बातें किया करते थे। कुछ प्रेरणा देने वाली कहानियाँ भी उन्हें सुना ही देते थे।
दिन में सोना तो बाबा का रोज का नियम था। दो-पहर को वे डेढ़-दो बजे सो जाते थे और शाम को साढ़े चार बजे तक उठ जाते थे। इसके बाद वो मेरे पिता जी से काफी बातें करते थे। दोनों की बातें घण्टों चलतीं थी।
खटीमा में जुलाई का मौसम उमस भर गर्मी का होता है और अचानक बारिस भी हो जाती है। बाबा को बारिस को देखना बड़ा अच्छा लगता था। वह घण्टों मेरे घर के बरांडे में बिछी हुई खाट बैठे रहते थे और बारिस को देखते रहते थे। हम लोग कहते थे बाबा बहुत देर से बैठे हो थोड़ा आराम कर लो। तो बाबा कहते थे कि मुझे बारिस देखना अच्छा लगता है।

बाबा को 8 जुलाई को शाम को 5 बजे मेरे दोनों पुत्र और मेरे पिता जी वाचस्पति जी के घर तक पहुँचाने के लिए गये। उसी समय का एक चित्र प्रकाशित कर रहा हूँ। जिसमें मेरे पिता श्री घासीराम जी, बड़ा पुत्र नितिन और बाबा नागार्जुन ने छोटे पुत्र विनीत के कन्धे पर हाथ रखा हुआ है।
बाबा की प्रवृत्ति तो शुरू से ही एक घुमक्कड़ की रही है। दिल्ली जाने के बाद बाबा ने मुझे एक पत्र लिखा था। जिसमें पिथौरागढ़ और शाहजहाँपुर जाने का जिक्र किया है। वो पोस्ट-कार्ड भी मैं प्रकाशित कर रहा हूँ।
बाबा नागार्जुन की स्मृति में उनकी एक रचना भी प्रस्तुत कर रहा हूँ। जो चुनावी परिवेश पर
बिल्कुल खरी उतरती है।

आए दिन बहार के!‘

श्वेत-श्याम-रतनार’ अँखिया निहार के,
सिंडकेटी प्रभुओं की पग-धूर-झार के,
खिलें हैं दाँत ज्यों दाने अनार के,
आए दिन बहार के!

बन गया निजी काम-
दिखायेंगे और अन्न दान के, उधार के,
टल गये संकट यू. पी.-बिहार के,
लौटे टिकट मार के!
आए दिन बहार के!
सपने दिखे कार के,
गगन-विहार के,
सीखेंगे नखरे, समुन्दर-पार के,
लौटे टिकट मार के!
आए दिन बहार के!
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IMG_2379 - Copyराजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. सिद्धेश्वर सिंह ने शमशेर बहादुर सिंह के विय़च में विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि शमशेर बहादुर सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्परनगर में हुआ था और इनकी शिक्षा देहरादून, उत्तर प्रदेश, मे हुई। इनकी
कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं-
कुछ कविताएँ (1959), कुछ और कविताएँ(1961), चुका भी हूँ मैं नहीं (1975), इतने पास अपने (1980), उदिता: अभिव्यक्ति का संघर्ष (1980), बात बोलेगी (1981), काल तुझसे होड़ है मेरी (1988)
1977 में "चुका भी हूँ मैं नहीं " के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के "तुलसी" पुरस्कार से सम्मानित। सन् 1987 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा "मैथिलीशरण गुप्त" पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
एक आदमी दो पहाड़ों को कोहनियों से ठेलता
पूरब से पच्छिम को एक कदम से नापता
बढ़ रहा है
कितनी ऊंची घासें चांद-तारों को छूने-छूने को हैं
जिनसे घुटनों को निकालता वह बढ़ रहा है
अपनी शाम को सुबह से मिलाता हुआ
फिर क्यों
दो बादलों के तार
उसे महज उलझा रहे हैं?
(1956 में रचित,'कुछ कवितायें' कविता-संग्रह से )
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लौट आ, ओ धार!
टूट मत ओ साँझ के पत्थर
हृदय पर।
(मैं समय की एक लंबी आह!
मौन लंबी आह!)
लौट आ, ओ फूल की पंखडी!
फिर
फूल में लग जा।
चूमता है धूल का फूल
कोई, हाय!!
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IMG_2364 - Copyइस अवसर पर कैलाश पाण्डे्य ने केदार नाथ अग्रवाल जी का परिचय देते हुए बताया कि १ अप्रैल १९११ को जन्मे केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिशील काव्य-धारा के एक प्रमुख कवि हैं। उनका पहला काव्य-संग्रह युग की गंगा आज़ादी के पहले मार्च, १९४७ में प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए यह संग्रह एक बहुमूल्य दस्तावेज़ है। केदारनाथ अग्रवाल ने मार्क्सवादी दर्शन को जीवन का आधार मानकर जनसाधारण के जीवन की गहरी व व्यापक संवेदना को अपने कवियों में मुखरित किया है। कवि केदार की जनवादी लेखनी पूर्णरूपेण भारत की सोंधी मिट्टी की देन है। इसीलिए इनकी कविताओं में भारत की धरती की सुगंध और आस्था का स्वर मिलता है।
केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं का अनुवाद रूसी, जर्मन, चेक और अंग्रेज़ी में हुआ है। उनके कविता-संग्रह 'फूल नहीं, रंग बोलते हैं', सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित हो चुका है :
केदारनाथ अग्रवाल के प्रमुख कविता संग्रह है :
युग की गंगा, फूल नहीं, रंग बोलते हैं, गुलमेंहदी, हे मेरी तुम!, बोलेबोल अबोल, जमुन जल तुम, कहें केदार खरी खरी, मार प्यार की थापें आदि।


उनकी
नई रचनाओं में-
गई बिजली
पाँव हैं पाँव
बुलंद है हौसला
बूढ़ा पेड़
इस रचना का वाचन भी किया गया।
एक
अन्य रचना जो इनके द्वारा पढी
गई वो यह थी-
आओ बैठो
आग लगे इस राम-राज में
आदमी की तरह
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ!
घर के बाहर
दुख ने मुझको
पहला पानी
बैठा हूँ इस केन किनारे
वह उदास दिन
हे मेरी तुम
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IMG_2363 - Copyगोष्ठी के अन्त में आजोजक डॉ. चन्द्र शेखर जोशी ने फैज़ अहमद “फैज़” के विषय में प्रकाश डालते हुइस आलेख का वाचन किया!


भारतीय उपमहाद्वीप में इस साल फैज़ अहमद फैज़ की जन्‍मशती का जश्‍न चल रहा है। पाकिस्‍तान की सरजमीं के इस शानदार शायर को संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप का शायर माना जाता है। फैज़ अहमद फैज़ की शायरी मंत्रमुग्‍ध करने वाली शायरी मानी जाती है। इसका अहम् कारण रहा कि फै़ज़ ने साहित्‍य और समाज की खातिर जीवनपर्यन्‍त कठोर तपस्‍या अंजाम दी। जिंदगी भर समाज के गरीब मजलूमों के लिए समर्पित रहने वाले फै़ज़ ने बेवजह शेर कहने की कोशिश कदाचित नहीं की। उनके कविता संग्रह नक्‍श ए फरयादी पढते हुए गालिब की एक उक्ति बरबस याद आ जाती है कि जब से मेरे सीने का नासूर बंद हो गया, तब से मैने शेर ओ शायरी करना छोड़ दिया। सीने का नासूर फिर चाहे मुहब्‍बत अथवा प्रेम भाव के रूप में विद्यमान रहे और चाहे वतन एवं मानवता के प्रेम के तौर पर कायम रहे। यह महान् भाव कविता के लिए ही नहीं वरन सभी ललित कलाओं के लिए एक अनिवार्य तत्‍व रहा है। Faiz-Ahmed-Faiz अध्‍ययन और अभ्‍यास के बलबूते पर बात कहने का सलीका तो आ सकता है, किंतु उसे दमदार और महत्‍वपूर्ण बनाने के लिए कलाकार को अपने ही अंतस्‍थल में बहुत गहरे उतरना पड़ता है।
मौहम्‍मद इक़बाल ने फरमाया
अपने अंदर डूब कर पा जा सुराग ए जिंदगी तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन
फै़ज़ अहमद फै़ज़ आधुनिक काल के उन बडे़ शायरों में शुमार रहे हैं, जिन्‍होने काव्‍य कला के नए अनोखे प्रयोग अंजाम दिए, किंतु उनकी बुनियाद सदैव ही पुरातन क्‍लासिक मान्‍याताओं पर रखी। इस मूल तथ्‍य को कदापि नहीं विस्‍मृत नहीं किया कि प्रत्‍येक नई चीज का जन्‍म पुरानी कोख से ही होता आया है।
उनकी बहुत मशहूर ग़ज़ल को ही देखें
मुझसे पहली सी मुहब्‍बत मेरी महबूब ना मांग़
और भी दुख हैं जमाने में मुहब्‍बत के सिवा
राहते और भी हैं वस्‍ल की राहत के सिवा अनगिनत सदियों तारीक़ बहीमाना तिलिस्‍म रेशम ओ अतलस ओ कमखाब में बुनवाए हुए
जा बजा बजा बिकते हुए कूच आ बाजार में जिस्‍म खाक़ में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए जिस्‍म निकले हुए अमराज के तन्‍नूरों से पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उध्‍ार को भी नज़र क्‍या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्‍न मगर क्‍या कीजे
फै़ज़ अहमद फै़ज़ सन् 1911 में अविभाजित हिदुस्‍तान के शहर सियालकोट (पंजाब) के एक मध्‍यवर्गीय परिवार में जन्‍मे थे। प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा स्‍कॉच मिशन हायरसैंकडरी स्‍कूल से हुई। इसके पश्‍चात गवर्नमेंट कालेज लाहौर से 1933 में इंग्लिश से एम ए किया और वहीं से बाद में अरबी भाषा में भी एम ए किया। सन् 1936 में वह भारत में प्रेमचंद, मौलवी अब्‍दुल हक़, सज्‍जाद जहीर और मुल्‍कराज आनंद द्वारा स्‍थापित प्रगतिशील लेखक संघ में बाकायदा शामिल हुए। युवा फ़ैज़ अहमद फै़ज़ ने प्रगतिशील लेखक संघ की तहारीक़ को साहिर लुधायानवी, किशन चंद्र, शैलेंद्र, राजेंद्रसिंह बेदी, जां निसार अख्‍तर, कैफी आज़मी, अली सरदार ज़ाफ़री, भीष्‍म साहनी, के ए अब्‍बास, डा रामविलास शर्मा, नीरज आदि अनेक मूर्धन्‍य कवियों शायरों और लेखकों के साथ मिलकर नई ऊचाइयों तक पंहुचाया।
पढाई लिखाई में बेहद मेधावी रहे फै़ज़ ने एम ए ओ कालेज अमृतसर में अध्‍यापन कार्य 1934 से 1940 तक किया। इसके पश्‍चात 1940 से 42 तक हैली कालेज लाहौर में अध्‍यापन किया। 1942 से 47 तक में फैंज़ अहमद फै़ज़ ने सेना मे बतौर कर्नल अपनी सेवाएं अंजाम दी। 1947 में फौ़ज़ से अलग होकर पाकिस्‍तान टाइम्‍स और इमरोज़ अखबारों के एडीटर रहे। सन् 1951 में उनको पाकिस्‍तान सरकार ने राव‍लपिंडी कांसपेरिसी केस के तहत गिरफ्तार किया गया। उल्‍लेखनीय है कि इसी केस के तहत ही भारतीय नाट्य संघ (इप्‍टा) के लेजेन्‍डरी संस्‍थापक जनाब सज्‍़जाद जहीर उर्फ बन्‍ने मियां को भी गिरफ्तार किया गया। इसी मुकदमे के सिलसिले में फै़ज़ को 1955 तक जेल में ही रहना पडा़। फै़ज़ की शायरी के अनेक संग्रह प्रकाशित हुए, इनमें नक्‍श-ए-फरयादी, दस्‍त-ए-सबा, जिंदानामा और दस्‍त ए तहे संग बहुत मक़बूल हुए।
एक बडी़ ही विचित्र किंतु प्रशंसनीय बात है कि प्राचीन और आधुनिक शायरों की म‍हफिल में बाकायदा खपकर भी फै़ज़ की एकदम अलग शख्सियत कायम है। फै़ज ने काव्‍य-कला के बुनियादी नियमों में कोई संशोधन नहीं किया। उर्दू के प्रसिद्ध शायर असर लखनवी ने फै़ज़ के विषय में अपनी टिप्‍पणी में कहा कि फै़ज की शायरी तरक्‍की के दर्जे तय करती हुई, शिखर बिंदु तक पंहुची। कल्‍पना (तख़य्युल) ने कला के जौहर दिखाए और मासूम जज्‍बात को हसीन पैकर(आकार) बख्‍़शा।
क्‍यों मेरा दिल नाशद नहीं क्‍यों खमोश रहा करता हूं
छोडो़ मेरी राम कहानी मैं जैसा भी हूं अच्‍छा हूं क्‍यों न जहां का ग़म अपना ले बाद में सब तदबीरें सोचें बाद में सुख के सपने देखें सपनों की ताबीरें सोचें हमने माना जंग कडी़ है सर फूटेगें खून बहेगा खून में ग़म भी बह जाएगें हम न रहेगें ग़म न रहेगा
अपनी शायरी के अंदाज ए बयां की तरह ही व्‍यक्तिगत जिंदगी में भी कभी किसी ने उनको ऊचां बोलते हुए नहीं सुना। मुशायरों में भी फै़ज़ कुछ इस तरह से शेर पढा़ करते थे कि होठों से जरा ऊंची आवाज निकल गई, तो न जाने कितने मोती चकनाचूर हो जाएगें।
वह फौ़ज में रहे। कालेज में प्रोफेसरी की। रेडियो की नौकरी की, अख़बार के एडीटर रहे। पाकिस्‍तान हुकूमत ने हिंसात्‍मक षडयंत्र के इल्‍जाम में जेल में रखा, किंतु उनके नर्म दिल लहजे और शायराना अंदाज में कतई कहीं कोई अंतर नहीं आया। उनकी शख्सियत बयान करती है कि जीवन यापन की खातिर बहुत से पेशों से गुजरते हुए वह मूलत: एक इंकलाबी शायर ही रहे। फै़ज़ की आवाज़ का नरम लहजा और उसकी गहन गंभीरता वस्‍तुत: उनके बेहद कठोर मुश्किल जीवन और अपार अध्‍ययन का स्‍वाभाविक परिणाम समझा जाता है। दुनिया के मेहनतकश किसान मजदूरों और उनकी अंतिम विजय में उनका गहरा यकी़न कायम रहा। भारत के विभाजन को उन्‍होने मन से कदाचित स्‍वीकरा नहीं। उनकी मशहूर नज्‍़म सुबह ओ आज़ादी इसकी गवाह रही है
ये दाग़ दाग़ उजाला ये श्‍ाब गुजीदा सहर
वो इंतजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं ना कहीं
अभी गिरानी ए शब में कमी नहीं आई नजाते दीदा ओ दिल की घडी़ नहीं आई चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई
1960 के दशक में फै़ज़ को एक इंटरनेशनल शायर के तौर पर तस्‍लीम किया गया। अपने जीवन के आखिरी दौर तक फै़ज ने अपना यह मका़म बनाए रखा। यही कारण है कि दुनिया में चारो ओर बहता हुआ मानवता का लहू उनकी शायरी में छलकता नजर आता है।
पुकारता रहा बेआसरा यतीम लहू
किसी के पास समाअत का वक्‍त था न दिमाग कहीं नहीं कहीं भी नहीं लहू का सुराग
न दस्‍त ओ नाखून ए कातिल न आस्‍तीं के निशां
इंसान और मानवता के बेहतरीन मु‍स्‍तक‍़बिल में उनका तर्कपूर्ण यकी़न बेमिसाल रहा। उनके एक तराने ने तो न जाने कितने राष्‍ट्रीय और अंतर्राष्‍ट्रीय संघर्षो को हौंसला दिया।
दरबार ए वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएगें
कुछ अपनी सजा को पंहुचेगें कुछ अपनी ज़जा़ ले जाएगें
ऐ ख़ाक नशीनों उठ बैठो वो वक्‍़त करीब आ पंहुचा है जब ताज गिराए जाएगें जब तख्‍़त उछाले जाएगें ऐ जुल्‍म के मारों ब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक कुछ हश्र तो इनसे उठ्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएगें अब दूर गिरेगीं जंजीरे अब जिंदानों की खैर नहीं
जब दरिया झूम के उठ्ठगें तिनको से ना टाले जाएगें
कटते भी चलो बढते भी चलो बाजू भी बहुत है सर भी बहुत चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल पे ही डाले जाएगें
इस संक्षिप्‍त लेख के माध्‍यम से फै़ज़ की शख्सि़यत और उनकी शायरी कुछ रौशनी डालने का प्रयास किया गया, अन्‍यथा ऐसे शायर पर जिसने कालजयी कविता के माध्‍यम से अपने युग के दुख दर्द को आत्‍मसात करके, उसे अपनी शख्सियत का हिस्‍सा बना लिया और फिर उन्‍हे बेहद मनमोहक अंजाद में बयां कर दिया। जिसकी शायरी की ताकत जनमानस से उसका गहरा संबंध रही। जिसने जेल की अंधेरी कोठरी में आशा, अभिलाषा और उत्‍साह के अमर तराने लिखे, उसकी दास्‍तान पर तो अनेक ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। अपनी कठोर कैद में फै़ज ने एक नज्‍म़ लिखी जो कालजयी सिद्ध हुई, उसकी चर्चा के बिना यह लेख अधूरा रहेगा क्‍योंकि फै़ज़ की ये काव्‍यात्‍मक पंक्तिया उनके व्‍यक्तित्‍व और शायरी के अंदाज की एक शानदार झलक हैं
मेरा कहीं क़याम क्‍या मेरा कहीं मक़ाम क्‍या मेरा सफ़र है दर वतन मेरा वतन है दर सफ़र मता ए लौहे कलम छिन गई तो क्‍या ग़म है कि खून ए दिल में डूबो ली है अंगुलियां मैंने जुबां पे मोहर लगी तो क्‍या ग़म है हर एक हल्‍कद ए जंजीर में रख दी है जुबां मैंने
साभार-
प्रभात कुमार रॉय
स्‍वतंत्र लेखक एवं पत्रकार
पूर्व प्रशासनिक अधिकारी

Monday 25 October 2010

"करवाचौथ" (प्रस्तोता:डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

"करवाचौथ"
(आज मेरे एक मित्र ने फोन पर
मुझे एक लतीफा सुनाया 
वही में आप लोगों से 
सहभाग कर रहा हूँ!)
       एक दिन उल्लू लक्ष्मी जी के पास जाकर बहुत ही दीन भाव में बोला कि माता लक्ष्मी जी मैं आपका वाहन हूँ! लेकिन मैं बहुत ही दुखी हूँ कि सब आपकी पूजा करते हैं परन्तु मुझे तिरस्कारभरी दृष्टि से देखते हैं! 
ऐसा क्यों है?
      लक्ष्मी जी ने उल्लू की वेदना समझकर उसे वरदान दिया कि दीपावली से पूर्व एक दिन तुम्हारी भी लोग पूजा करेंगे!
     कल करवाचौथ का दिन है! कहीं यही तो वो दिन नहीं है!
         अगर सत्यता हो तो बताइए! अन्यथा पढ़कर भूल जाइएगा!