जून माह छुट्टियों का होता है। इन दिनों मेरे घर छोटी बहिन विजयलक्ष्मी आयी हुई है। वो प्रत्येक माह की पूर्णमासी के दिन सत्यनारायण स्वामी का व्रत रखती है। प्रसाद बनाती है और कथा भी पढ़ती है।
आज पूर्णमासी है। मेरी बहिन ने जबसे प्रसाद बनाना शुरू किया है । मेरी पाँच वर्षीया पौत्री प्राची उसके पास से हिली तक नही है।
बार-बार कहती है- ‘‘दादी जी! प्रसाद दे दो ना।’’
बहिन ने उससे कहा- ‘‘पहले कथा पढ़ लेने दो। फिर प्रसाद मिलेगा।’’
अब कथा पढ़ी जा रही है। जैसे ही कथा का एक अध्याय समाप्त होता है।
प्राची कहती है- ‘‘दादी जी! प्रसाद दे दो ना।’’
हर अध्याय पूरा होने पर प्राची की एक ही रट है- ‘‘दादी जी! प्रसाद दे दो ना।’’
अंततः पाँचों अध्याय पूरे हो जाते हैं, अब पौत्री प्राची और पौत्र प्रांजल को प्रसाद मिलता है। दोनों बड़े खुश हैं और प्रसाद खा रहे हैं।
घर के सब लोग कह रहे हैं कि इतने मनोयोग से किसी ने भी कथा नही सुनी है ,जितने ध्यान से प्राची ने पूरी कथा सुनी है।
पता नही, यह ललक प्रसाद के लिए थी या सत्यनारायण स्चामी की जय बोलने के लिए।
लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि घर में धार्मिक अनुष्ठान होने से बच्चों पर तो संस्कार पड़ते ही हैं।
घर में धार्मिक अनुष्ठान होने से बच्चों पर तो संस्कार पड़ते ही हैं।
ReplyDeleteबिल्कुल सही बात है।
aise hi dheere dheere sanskar pakte hain phir chahe prasad ka lalch ho ya katha ka prabhav.
ReplyDeleteएकदम सही कह रहे हैं.
ReplyDeleteबिल्कुल सही बात.घर में होने वाले क्रिया-कलापों का असर ही बच्चों पर पडता है.संस्कार तो बचपन से ही पडते हैं और इसमें अहम भूमिका निभाते हैं घर के बुजुर्ग.
ReplyDeleteaapne bilkul shi kaha .chahe prsad ke liye hi kyo nho utni der vo ktha me baithi to rhi .aur jab vo bdi hogi tab apni buadadi ko yad krke hi
ReplyDeletesatynarayn ki ktha har purnima ko pdhegi .
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