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Tuesday 26 January 2010

“तब और अब” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

(श्रीमती रजनी माहर)


तब

रुपये किलो था आटा,
अब है कितना घाटा,
नानी संग जाती बाजार,
नौ रुपये किलो था अनार,
एक रुपये में
दो किलो ज्वार,
गेहूँ चावल की
भरमार,
कम मिलती थी बहुत पगार,
कभी न होते थे
बीमार,
तन चुस्त थे
मन दुरुस्त थे,
थोड़े में
सब लोग मस्त थे,
दूध-दही सब
कुछ था शुद्ध
वातावरण

प्रदूषण-मुक्त
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अब

टमाटर गुस्से से लाल हैं
जेबें खस्ता हाल हैं,
गरीब का थाली में-
दाल है ना भात है,
नकली सामान की-
भरमार है,
मिठाई से
मिठास गायब है,
लाली से
पुते हुए लब हैं,
मँहगाई की
चौतरफा मार है,
पीजिए हुजूर!
यूरिया के दूध वाली-
चाय तैयार है!!
(श्रीमती रजनी माहर)

Saturday 23 January 2010

“संस्मरण” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

दादी चम्मच का प्रयोग किया करो!

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(चित्र गूगल सर्च से साभार)



आज से 45-50 साल पुरानी बात है। उन दिनों एक कबीले की संयुक्त हबेली हुआ करती थी। किसी घर में अच्छी साग-सब्जी बनती थी तो माँग कर खाने में बहुत आनन्द आता था।

उन दिनों मैं नजीबाबाद के मुहल्ला-रम्पुरा में रहता था। इसी हबेली में मेरी एक रिश्ते की दादी भी रहती थी। इवको सब गुलबिया दादी के नाम से जानते थे। जो स्वभाव की चिड़चिड़ी जरूर थीं लेकिन मन की बहुत अच्छी थीं। यदि आलस की बात करें तो यह दादी के स्वभाव में रचा-बसा था।

मुझे शुरू से ही कढ़ी बहुत पसन्द है। एक दिन गुलबिया दादी ने कढ़ी बनाई थी। बर्तन माँजने से बचने के लिए दादी रोटी के ऊपर ही कढ़ी रखकर खा रही थी। तभी मैं भी उनसे कढ़ी मागने के लिए जा धमका और दादी से कहा- “दादी मुझे कढ़ी दे दो!”

दादी के हाथ में कढ़ी लगी थी। उसने जीभ से चाट कर अपना हाथ साफ किया और जा पहुँची कड़ाही के पास। जल्दी में चमचा नही मिला तो जूठे हाथ से ही कढ़ी मेरी कटोरी में ड़ाल दी।

मैंने कहा- “दादी हाथ तो धोकर साफ कर लिया होता।”

इस पर दादी ने उत्तर दिया- “भैया! हाथ चाटकर तो साफ कर लिया था। देख मेरे हाथ में कुछ लगा है क्या?”

मैंने कहा- “दादी! हाथ तो साफ है लेकिन जूठन तो लगा ही है।”
साथ ही दादी को नसीहत भी दी कि दादी खाने और परोसने में चम्मच का इस्तेमाल किया करो!

घर आकर जब मैंने अपनी माता जी को दादी की बात सुनाई तो उन्होंने मेरे हाथ से कटोरी लेकर भैंस की सानी में यह झूठी कढ़ी डाल दी और मेरे लिए तुरन्त कढ़ी बना कर दी!

इस संस्मरण को लगाने का मेरा उद्देश्य यह है कि -


“किसी का भी झूठा न तो हमें खुद खाना चाहिए और न किसी दूसरे को खिलाना चाहिए!”

Friday 15 January 2010

“ओह…आज तो भयंकर कुहरा है!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

ये हैं जी!
खटीमा में आज सुबह 8 बजे के दृश्य
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आठ बजे है बहुत अंधेरा,
देखो हुआ सवेरा!

सूरज छुट्टी मना रहा है,
कुहरा कुल्फी जमा रहा है,
गरमी ने मुँह फेरा!
देखो हुआ सवेरा!

भूरा-भूरा नील गगन है,
गीला धरती का आँगन है,
कम्बल बना बसेरा!
देखो हुआ सवेरा!

मूँगफली के भाव बढ़े हैं,
आलू के भी दाम चढ़े हैं,
सर्दी का है घेरा!
देखो हुआ सवेरा!

Tuesday 12 January 2010

"कितना कुहरा है?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

कुहरा है कि छँटता ही नही!

आज मेरे शहर का सबसे ठण्डा दिन है।
खटीमा की सड़कों में दिल्ली जैसी भीड़-भाड़ रहती है।
मोटर साइकिलों ने साधारण साइकिलों को तो मात दे दी है
लेकिन आज तो मोटर साइकिलों के चक्के जाम हो गये हैं।
आज दोपहर को 1 बजे भी मेरे घर के सामने
पिथौरागढ़ राष्ट्रीय-राजमार्ग पर
केवल इक्का-दुक्का साइकिल ही
नजर आ रहीं हैं।
क्या हम फिर से पिछली सदी में लौट आये हैं?ओह कितना कुहरा है?
आज दोपहर तक तो सूरज की आस में
ठिठुरते हुए समय गुजार दिया।
चलो अब तसले में आग जला कर हाथ-पैर सेंक लेते हैं।

Wednesday 6 January 2010

“कहीं धूप, कहीं छाया” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

पहले हमारे यहाँ कहावत थी-
"ठण्डो पाणी पीणे पहाड़ मा जाओ,
घाम सेकणें मैदान मा जाओ।"
लेकिन आज ये कहावत विल्कुल
उलटी हो गयी है।
अब तो-
" घाम सेकणें पहाड़ मा जाओ,
ठण्डो पाणी पीणे मैदान मा जाओ।"

इस बार की सरदी से जन-जीवन ठप्प

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नैनीताल में खिली हुई गुनगुनी धूप
मगर मैदानी-क्षेत्रों में कुहरे की चादर गहराई।
हे प्रभो! अजब है माया,
कहीं धूप, कहीं छाया।।

ठण्ड की मार के कारण उत्तराखण्ड के
कक्षा-एक से कक्षा नौ तक के छात्र-छात्राओं के विद्यालय
15 जनवरी तक ले लिए बन्द करने का
उत्तराखण्ड सरकार का आदेश जारी।
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(दैनिक अमर उजाला, 06-01-2010)
अनुमान है कि इस बार बसन्त-पञ्चमी
के बाद तक भी जाड़े की मार जारी रहेगी।