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Saturday 30 May 2009

‘‘जिन्दगी और मौत’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

पिछले सप्ताह मैंने दो घटनाएँ अपनी खुली आँखों से देखी।

पहली घटना -

मैंने 10 साल पहले एक पिल्ला पाला था उसका नाम रखा था पिल्लू। दोपहर का समय था। कोई सज्जन मुझसे मिलने के लिए आये। कार उन्होंने आँगन में खड़ी कर दी। कार के नीचे पिल्लू बैठ गया। जब वो जाने लगे तो उन्होंने कार के नीचे नही देखा और कार बैक कर दी।

पिल्लू के ऊपर कार का पिछला पहिया पूरा उतर गया। परन्तु पिल्लू चिल्लाता हुआ भाग गया। उसे कुछ भी नही हुआ था और वो सही सलामत था। आज भी है।

‘‘जाको राखे साइँया मार सो ना कोय।’’

दूसरी घटना-

मेरे यहाँ छुट-पुट मरम्मत का निर्माण कार्य चल रहा था। मजदूर पुरानी ईंटें हटाने लगा तो उसे 18 इंच लम्बे काले रंग के साँप का जोड़ा दिखाई पड़ा। वह साँप-साँप कह कर चिल्लाया तो दूसरे मजदूर ने लपक कर एक साँप को फावड़े से मार दिया। परन्तु दूसरा उछल कर भाग गया। वह मेरे घर के सामने हाई-वे पर आ गया।

लेकिन यह क्या, सही सलामत बचे मन दूसरे साँप के ऊपर से रोडवेज की एक बस उतर गयी और वह भी कुचल कर मर गया।

अर्थात् जब मृत्यु आ जाती है तो कोई नही बचा सकता।

Friday 29 May 2009

हिन्दी पत्रकारिता दिवस


हिन्दी पत्रकारिता दिवस

पर सभी हिन्दी प्रेमियों को

हार्दिक शुभ-कामनायें।


Thursday 28 May 2009

‘‘तीन प्रश्न’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

अकबर का नाम तो आप सबने सुना ही होगा।
भारत में अंग्रेजों से पहले मुगलों का राज्य था और अकबर एक मुगल शासक था। उसके नवरत्नों में उसका मन्त्री बीरबल भी था। वह बहुत बुद्धिमान था।

एक बार अकबर दरबार में यह सोच कर आये कि आज बीरबल को भरे दरबार में शरमिन्दा करना है। इसके लिए वो बहुत तैयारी करके आये थे।

आते ही अकबर ने बीरबल के सामने अचानक 3 प्रश्न उछाल दिये।

प्रश्न थे- ‘ईश्वर कहाँ रहता है? वह कैसे मिलता है? और वह करता क्या है?’’

बीरबल इन प्रश्नों को सुनकर सकपका गये और बोले- ‘‘जहाँपनाह! इन प्रश्नों के उत्तर मैं कल आपको दूँगा।"

जब बीरबल घर पहुँचे तो वह बहुत उदास थे।

उनके पुत्र ने जब उनसे पूछा तो उन्होंने बताया- ‘‘बेटा! आज अकबर बादशाह ने मुझसे एक साथ तीन प्रश्न ‘ईश्वर कहाँ रहता है? वह कैसे मिलता है? और वह करता क्या है?’ पूछे हैं। मुझे उनके उत्तर सूझ नही रहे हैं और कल दरबार में इनका उत्तर देना है।’’

बीरबल के पुत्र ने कहा- ‘‘पिता जी! कल आप मुझे दरबार में अपने साथ ले चलना मैं बादशाह के प्रश्नों के उत्तर दूँगा।’’

पुत्र की हठ के कारण बीरबल अगले दिन अपने पुत्र को साथ लेकर दरबार में पहुँचे। बीरबल को देख कर बादशाह अकबर ने कहा- ‘‘बीरबल मेरे प्रश्नों के उत्तर दो।

बीरबल ने कहा- ‘‘जहाँपनाह आपके प्रश्नों के उत्तर तो मेरा पुत्र भी दे सकता है।’’

अकबर ने बीरबल के पुत्र से पहला प्रश्न पूछा- ‘‘बताओ! ‘ईश्वर कहाँ रहता है?’’

बीरबल के पुत्र ने एक गिलास शक्कर मिला हुआ दूध बादशाह से मँगवाया और कहा- जहाँपनाह दूध कैसा है?

अकबर ने दूध चखा और कहा कि ये मीठा है। परन्तु बादशाह सलामत या आपको इसमें शक्कर दिखाई दे रही है। बादशाह बोले नही। वह तो घुल गयी।

जी हाँ, जहाँपनाह! ईश्वर भी इसी प्रकार संसार की हर वस्तु में रहता है। जैसे शक्कर दूध में घुल गयी है परन्तु वह दिखाई नही दे रही है।

बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब दूसरे प्रश्न का उत्तर पूछा- ‘‘बताओ! ईश्वर मिलता केसे है?’’

बालक ने कहा- ‘‘जहाँपनाह थोड़ा दही मँगवाइए।’’

बादशाह ने दही मँगवाया तो बीरबल के पुत्र ने कहा- ‘‘जहाँपनाह! क्या आपको इसमं मक्खन दिखाई दे रहा है।

बादशाह ने कहा- ‘‘मक्खन तो दही में है पर इसको मथने पर ही दिखाई देगा।’’

बालक ने कहा- ‘‘जहाँपनाह! मन्थन करने पर ही ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं।’’

बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब अन्तिम प्रश्न का उत्तर पूछा- ‘‘बताओ! ईश्वर करता क्या है?’’

बीरबल के पुत्र ने कहा- ‘‘महाराज! इसके लिए आपको मुझे अपना गुरू स्वीकार करना पड़ेगा।’’

अकबर बोले- ‘‘ठीक है, तुम गुरू और मैं तुम्हारा शिष्य।’’

अब बालक ने कहा- ‘‘जहाँपनाह गुरू तो ऊँचे आसन पर बैठता है और शिष्य नीचे।’’

अकबर ने बालक के लिए सिंहासन खाली कर दिया और स्वयं नीचे बैठ गये।

अब बालक ने सिंहासन पर बैठ कर कहा- ‘‘महाराज! आपके अन्तिम प्रश्न का उत्तर तो यही है।’’

अकबर बोले- ‘‘क्या मतलब? मैं कुछ समझा नहीं।’’

बालक ने कहा- ‘‘जहाँपनाह! ईश्वर यही तो करता है।

पल भर में राजा को रंक बना देता है और भिखारी को सम्राट बना देता है।’’
(चित्र गूगल सर्च से साभार)

Wednesday 27 May 2009

"साफ-सुथरी छवि वाले धराशायी"


मेजर जनरल भुवनचन्द्र खण्डूरी जी!

जनता ने बड़े अरमान से आपको उत्तराखण्ड की कमान सौंपी थी।

काश्! आपने कुछ काम किया होता तो यह दुर्दशा नही होती।

सच पूछा जाये तो शिक्षित बेरोजगारों की हाय लग गयी

उत्तराखण्ड में भा.ज.पा. को।

आप आत्म-मन्थन करें।

स्वच्छ छवि वाले फौजी प्रशासक भ्रष्टाचार पर अंकुश नही लगा पाए।

आप जनता की आशाओं पर खरा नही उतर सके।

बस इतना ही-
(चित्र गूगल सर्च से साभार)

Tuesday 26 May 2009

‘‘रोटी की आत्म-कथा’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

एक राजकुमारी थी। वह रोटी खाने बैठी। रोटी गरम थी। राजकुमारी का हाथ जल गया आर वह रोने लगी।

तब रोटी ने कहा- ‘‘बहिन! तुम तो बहुत कमजोर दिल की हो। जरा सी भाप लगने पर ही रोने लगी।’’

‘‘सुनो! अब मैं तमको अपनी कहानी सुनाती हूँ।’’

मैं धरती की बेटी हूँ। किसान ने मेरा लालन-पालन किया है। सबसे पहले किसान हल जोत कर मिट्टी को भुर-भुरा करता है।

फिर मुझे मिट्टी में दफ्न कर देता है, परन्तु मैं धेर्यपूर्वक सब सहन कर लेती हूँ। अब मुझमें नये फल आ जाते हैं ।

पक जाने मेरे पौधे को मशीन में डाल कर कुचला जाता है और गेहूँ के रूप में बोरों मे भर कर बाजार में बेच दिया जाता है।

फिर आप लोग उस गेंहूँ को अपने घर लाकर चक्की में पिसवाते हैं। मैं अब भी नही रोती हूँ और धैर्य बनाये रखती हूँ।

इस आटे को तुम्हारी माता जी पानी डाल कर गूँथती हैं। उनके मुक्कों के प्रहार को भी मैं धैर्य के साथ सहन कर लेती हूँ।

हद तो जब हो जाती है कि मुझे बेलन चला कर गोल रूप दे दिया जाता है और गर्म तवे पर डाल दिया जाता है।

इसके बाद मुझे आग पर सेंका जाता हैं। परन्तु मैं कभी उफ तक नही करती हूँ।

इसीलिए मैं कहती हूँ कि बहिन! धैर्य में ही सुख है।

यदि मैं धैर्य न रखूँ तो संसार भूखो मर जायेगा।

बस यही है मेरी आत्म-कथा।

‘‘महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

हिन्दी के प्रेममार्गी कवियों की परम्परा की जब चर्चा चलती है तो ‘‘महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी’’ का नाम आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। ये जायस के कंचाने मुहल्ले के निवासी थे।

इनकी सही जन्मतिथि आज तक सुनिश्चित नही है। कुछ विद्वान इनकी जन्मतिथि 1427 ईस्वी, कुछ 1464 ई0 और कुछ 1492 मानते हैं। परन्तु यदि तर्क की कसौटी से सिद्ध किया जाये तो जायसी शेरशाह सूरी के समकालीन थे और शेरशाह सूरी का शासन 1440 ई0 से प्रारम्भ हुआ था। अतः उपरोक्त तिथियों में 1464 ई0 ही समीचीन प्रतीत होती है।

अपने अमर ग्रन्थ पद्मावत में जायसी ने एक स्थान पर लिखा है-

‘‘‘जायस नगर धरम असथानू , तहाँ कवि कीन्ह बखानू।’’

जायसी निजामुद्दीन औलिया की शिष्य परम्परा में आते हैं। इस परम्परा की दो शाखाएँ हैं- एक मानपुर कालपी और दूसरी जायसी।

मलिक शेख ममरेज जायसी के पिता थे। लोग उन्हें मलिक अशरफ राजे भी कहते हैं और इनके नाना का नाम शेख अल-हदाद खाँ था।

मलिक मुहम्मद जायसी कुरूप और एक आँख से काने थे। कुद लोग उन्हे बचपन से ही काने मानते हैं जबकि अधिकांश लोगों का मत है कि चेचक के प्रकोप के कारण ये कुरूप हो गये थे और उसी में इनकी एक आँख चली गयी थी।

जायसी एक सन्त प्रकृति के गृहस्थी थे। इनके सात पुत्र थे लेकिन दीवार गिर जाने के कारण सभी उसमें दब कर मर गये थे। तभी से इनमें वैराग्य जाग गया और ये फकीर बन गये।

इनकी शिक्षा भी विधिवत् नही हुई थी। जो कुछ भी इन्होने शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की वह मुसलमान फकीरों, गोरखपन्थी और वेदान्ती साधु-सन्तों से ही प्राप्त की थी।

खोजकर्ता यह मानते हैं कि मलिक मुहम्मद जायसी ने 25 ग्रन्थो की रचना की थी प्रकाशित रूप में मात्र छः ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं- 1- पद्मावत 2-अखरावट 3- आखिरी कलाम 4- चित्र रेखा 5- कहारानामा और 6- मसलानामा।

लगभग 80 वर्ष की आयु में जायसी की मृत्यु 1542 ईस्वी में हुई । किंवदन्ती है कि ये एक बहेलिया की गोली से लंगल में मारे गये थे। इनकी मृत्यु पर अमेठी राज्य में बहुत शोक मनाया गया था।

सूफी प्रेमाख्यानक लिखनेवालों में जायसी का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने इनके बारे में लिखा है-

‘‘इन्होने मुसलमान होकर हिन्दुओं की कहानियाँ, हिन्दुओं की शैली में पूरी सहृदयता से कहकर, उनके जीवन की मर्मस्पर्शित दशाओं के साथ तादाम्य स्थापित कर अपने उदार हृदय का परिचय दिया है।’’

(चित्र गूगल सर्च से साभार)

Monday 25 May 2009

‘‘काठी का दर्द’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


उन दिनों मेरे दोनों पुत्र बहुत छोटे थे। तब अक्सर पिकनिक का कार्यक्रम बन जाता था। कभी हम लोग पहाड़ पर श्यामलाताल चले जाते थे, कभी माता पूर्णागिरि देवी के मन्दिर में माथा टेकने चले जाते थे और कभी नेपाल के शहर महेन्द्रनगर में घूम आते थे।

बीच में यह क्रम कम हो गया था।

अब एक पौत्र और एक पौत्री हो गये हैं तो अक्सर पिकनिक के कार्यक्रम बन ही जाते हैं।

पिछले वर्ष की बात है। एक दिन मन में यह विचार आया कि इस बार कार से नेपाल की सैर करने नही जायेंगे। कार सिर्फ बनबसा तक ही ले जायेंगे। उसके बाद घोड़े ताँगे से नेपाल जायेंगे।

इतवार का दिन था। हम लोग कार से बनबसा तक गये और वहाँ से 400रुपये में आने जाने के लिए घोड़ा ताँगा कर लिया और चारों ओर का नजारा देखते हुए नेपाल के महेन्द्रनगर जा पहुँचे।

वहाँ पर घने पेड़ों के बीच सिद्धबाबा का एक प्राचीन मन्दिर है।

हमने वहाँ पर प्रसाद चढ़ा कर भोजन किया। फिर थोड़ा आराम करके घोड़े-ताँगें मे सवार हो गये।

इस अलौकिक सवारी में बैठ कर खास तौर से बच्चे बहुत खुश थे।

घोड़ा-ताँगा अपनी मस्त चाल से चलता जा रहा था परन्तु उसका मालिक घोड़े को चाबुक मार ही देता था।

मैंने उसे एक-दो बार टोका ता वह बोला-

‘‘बाबू जी! घोड़े को बीच-बीच में चाबुक लगानी ही पड़ती है।’’

यह घोड़ा-वान इस घोड़े को अक्सर बारातों में भी घुड़-चढ़ी के लिए भी इस्तेमाल करता था और उसकी पीठ पर काठी बड़ी जोर से कस कर बाँधता था।

संयोगवश् एक बार मैंने इसे घोड़े को इतनी जोर से काठी बाँधते हुए देख लिया था।

मैंने इससे कहा भी कि भाई इतनी जोर से घोड़े को कस कर काठी मात बाँधा करो।

इस पर उसने अपना तर्क दिया-

‘‘बाबू जी! घोड़े का तंग और आदमी का अंग कस का ही बाँधा जाता है।’’

बात आई गयी हो गयी।

एक दिन मैं बनबसा गया तो पता लगा कि सुलेमान तांगेवाले की कमर की हड्डी क्रेक हो गयी हैं। पुरानी जान-पहचान होने के कारण मैं उसे देखने के लिए उसके घर चला गया।

वहाँ जाकर मैंने देखा कि सुलेमान भाई की पीठ में काठीनुमा एक बेल्ट कस कर बँधी हुई है।

मुझे देख कर उसकी आँखों में आँसू आ गये वह बोला-

‘‘ करनी भरनी यहीं पर हैं। बाबू जी! आपने ठीक ही कहा था। अब मुझे अहसास होता है कि काठी का दर्द क्या होता है?’’

कभी मैं घोड़े को काटी कस कर बाँधता था।

आज मुझे कस का काठी बाँध दी गयी है।

‘‘रिश्वत सफलता की कुंजी है?..........’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)

मेरे एक अभिन्न मित्र थे। बाल्यकाल में वह मेरे साथ बचपन में गुरूकुल में विद्याध्ययन करते थे। संयोग ऐसा हुआ कि मैं तो गुरूकुल से भाग आया था और उनका स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण उनके पिता जी उन्हे गुरूकुल से वापिस घर ले आये थे।

इसके बाद उन्होंने भी पास के नगर में प्राईवेट स्कूल खोला और मैंने भी खटीमा नगर में एक विद्यालय खोल लिया। उनका स्कूल आज इण्टर कालेज का रूप ले चुका है और मेरा विद्यालय मात्र कक्षा-8 तक ही सिमट कर रह गया।

यह घटना 1984 की है। उन दिनों संस्थाओं का पंजीकरण कार्यालय बरेली में था। वह अपने विद्यालय के पंजीकरण के लिए नवीनीकरण के लिए और मैं नवीन पंजीकरण के लिए उस कार्यालय में गया था।

वहीं पर हम दोनों ने सौगन्ध खाई थी कि हम लोग कभी भी रिश्वत नही देंगे।

अक्सर देखा गया है कि भारत में चाहे किसी भी तरह के पंजीकरण कार्यालय हो वहाँ बिना रिश्वत के कोई काम नही होते हैं।

उस कार्यालय में भी हमसे रिश्वत की माँग की गयी। मुझे अच्छी तरह से याद है कि वहाँ रिश्वत माँगने पर मैंने सब-रजिस्ट्रार का कालर पकड़ लिया था। इसका खमियाजा मुझे भुगतना पड़ा और 6-7 माह तक मेरे विद्यालय का पंजीकरण नही किया गया। अन्ततः लखनऊ में महा-निबन्धक से शिकायत करने पर पंजीकरण प्रमाणपत्र दिया गया।

दूसरी ओर मेरे बाल-सखा तीसरे दिन चढ़ावा चढ़ा कर अपनी संस्था के पंजीकरण का नवीनीकरण ले आये थे।

मैं आज भी अपने किसी काम को कराने के लिए रिश्वत का सहारा नही लेता हूँ। लेकिन मेरे मित्र ने रिश्वत को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया है।

रिश्वत न देने से जहाँ एक ओर मेरा कुछ नुकसान हुआ है तो उसके बदले में मुझे बहुत कुछ मिला भी है।

किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी कार्यक्रम में मुझे ऊँचे आसन पर बैठाया जाता है तो मेरे इस मित्र को दर्शक दीर्घा में बैठ कर ही सन्तोष करना पड़ता है।

इसे यदि श्लाघा न कहें तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि व्यक्ति में चरित्र (मौरल) हो तो उसे ऊँचा स्थान निश्चित रूप से मिल जाता है।

Saturday 23 May 2009

शाबाश पुलिस! शाबाश परिवहन विभाग! (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

कभी खटीमा बस-स्टैण्ड का शहर से दूर हुआ करता था। लेकिन आबादी बढ़ने के साथ आजकल यह बिल्कुल शहर के बीचों-बीच में आ गया है।
यहाँ अक्सर पहाड़ के लोग सन्तरा, माल्टा, गल-गल नीम्बू, खुमानी और नाशपाती के टोकरे लिए हुए सड़क के किनारे ही बैठे रहते हैं।
बस स्टैण्ड जीर्ण-शीर्ण अवस्था में होने के कारण सारी बसे सड़क के किनारे ही खड़ी होती हैं और उनमें यात्री चढ़ते-उतरते हैं।
इसी रोडवेज बस-अड्डे पर सुबह को लगभग 9 बजे टनकपुर से आने वाली बस आकर रुकी। ड्राईवर बस को स्टार्ट छोड़ कर ही चाय की दूकान पर बैठ कर नाश्ता करने लगा।
तभी पीछे से आने वाले वाहनों की कतार लग गयी। यह जाम की स्थिति प्रतिदिन सैकड़ों बार यहाँ होती है।
बस में बैठा एक यात्री यह सब देख रहा था। वह आराम से ड्राईवर की सीट पर बैठा और उसने बस का गियर डाल दिया। वह यात्री बस चलाना तो जानता ही नही था। उसने बस का ब्रेक लगाया होगा लेकिन उसका पैर ब्रेक पैडिल पर पड़ने की बजाय एक्सीलेटर पर पड़ गया।
अब तो बस कूद कर आगे बढ़ गयी।
उस साइड में जितने भी पहाड़ी फल बेचने वाले थे उनमें से 4 तो मौके पर ही कुचल कर मर गये। कई गम्भीररूप से घायल हो गये। तीन रिक्शा-ठेले वाले चोटिल हुए और एक बिजली का पोल मुड़ गया। इत्तफाक से उस समय बिजली भागी हुई थी अन्यथा यात्रियों को भी जान की हानि उठानी पड़ सकती थी।
जिस यात्री ने इस घटना को अंजाम दिया था। वह फरार था और उसका आज तक कोई पता नही है।
हाँ, बस के ड्राईवर को जरूर पुलिस ने पकड़ा था। उसकी भी दो दिन बाद जमानत हो गयी। वह आज भी बस चला रहा है।
इस संस्मरण को लिखने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि इसमें दोषी कौन है?
बस ड्राईवर या अज्ञात यात्री।
यदि बस का ड्राईवर बस को स्टार्ट न छोड़ता तो यह हादसा टाला जा सकता था।
क्या हमारे देश की न्याय व्यवस्था ऐसी है जो ऐसे अपराधियों को दण्ड दे सके?
मजे की बात तो यह है कि न तो पुलिस विभाग तथा न ही राज्य परिवहन विभाग ने इस लापरवाह चालक का ड्राइविंग लाइसेन्स निरस्त नही करवाया। अपितु उसको पुनः बस चलाने का ईनाम दे दिया।
शाबाश पुलिस! शाबाश परिवहन विभाग!!

Friday 22 May 2009

‘‘सबसे बड़ा सत्य’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

उत्तराखण्ड प्रदेश में खटीमा नेपाल की सीमा से सटा हुआ एक छोटा सा शहर है। यहाँ की मुख्य उपज धान की खेती है।
खटीमा में दो दर्जन से अधिक चावल की मिलें हैं। एक मिल तो मेरे घर के बिल्कुल सामने ही है। धान के सीजन में इस मिल में हजारों कुन्टल धान खरीदा जाता है। गीले धान को इसके विशाल पक्के प्रांगण में सुखाया जाता है। जिस पर सैकड़ों की संख्या में तोते धान खाने के लिए आ जाते हैं।
कई वर्ष पुरानी बात है। इस मिल के प्रांगण में तोते धान खा रहे थे। अचानक एक बिल्ली ने झपट्टा मार कर एक तोते को पकड़ लिया।
मैं जल्दी से भागा और मैंने उस तोते को बिल्ली की गिरफ्त से आजाद करा लिया। तोता लहू लुहान हो गया था। मैंने उसे दवा लगाई। पानी पिलाया और एक पिंजड़े में बन्द कर लिया।
मैं इन्तजार में था कि तोता ठीक हो जाये तो उसे आजाद कर दूँ। थोड़े दिन में तोता अच्छा हो गया।
मैंने अब उसके पिंजड़े का द्वार खोल दिया।
तोता पिंजड़े से बाहर निकला और फुर्र से उड़ कर पेड़ की डाल पर बैठ गया।
मैंने चैन की सांस ली और मन में बड़ा प्रसन्न हुआ।
कुछ ही देर हुई थी कि तोता पुनः पिंजड़े पर आकर बैठ गया था। कभी वह पिंजड़े के अन्दर आ जाता था और कभी दरवाजे से बाहर निकल जाता था।
मैं जैसे ही पिंजड़े के पास गया तो तोते ने आवाज लगाई- ‘‘पापा जी!’’मैं यह देख कर दंग रह गया। मुझको इस मिट्ठू मियाँ से प्यार हो गया था।
यह भी मुझे देख कर ‘‘पापा जी’’ कह कर आवाज लगा देता था। पिंजड़े का दरवाजा खुला होने पर भी भागता नही था। बस पेड़ की डाल की सैर कर आता था और फिर अपने पिंजड़े में आ जाता था।
तोते का यह पिंजड़ा काफी पुराना था। मैंने सोचा कि इसको पेन्ट कर दिया जाये। बड़े चाव से पिंजड़े की पट्टियों को हरे, पीले और लाल पेंट से रंगा गया।
अब पिंजड़ा बड़ा आकर्षक लग रहा था और उसमें बैठा तोता सुन्दर लग रहा था।
तराई होने के कारण नवम्बर के मास में यहाँ रातें ठण्डी हो जाती है। मैं पिंजड़े को एक बोरी से ढक देता था।
उस दिन भी ऐसा ही किया था। सुबह होने पर देखा कि तोता पिंजड़े में निर्जीव पड़ा था। मन खिन्न हो उठा।
तोते के चले जाने से घर के सभी लोग दुखी थे।
इस घटना ने मुझे यह सोचने के लिए विवश कर दिया कि देह रूपी पिंजड़ा चाहे कितना ही सुन्दर क्यों न हो। एक दिन अचानक इसको छोड़ कर जाना ही पड़ता है।
यही संसार का सबसे बड़ा सत्य है।
‘‘पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
देखत ही छिप जायेंगे, जस तारा परभात।।’’

Thursday 21 May 2009

‘‘शठे शाठ्यम् समाचरेत्’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

‘‘पानी से पानी मिले, मिले कीच से कीच।
सज्जन से सज्जन मिले, मिले नीच से नीच।।’’

एक जंगल में एक लोमड़ी और एक सारस का जोड़ा रहता था।

लोमड़ी बड़ी चालाक थी और सारस बहुत सीधा था, लेकिन फिर भी उनमें मित्रता थी।
एक दिन लोमड़ी ने दाव के लिए सारस को अपने घर पर बुलाया।
सारस भी बड़ी प्रसन्नता से लोमड़ी के यहाँ दावत खाने के लिए गया।
लोमड़ी ने खीर बना रखी थी और अपने स्वभाव के कारण उसके मन में लालच था कि सारस खीर कम ही खाये। अतः लोमड़ी एक छिछले बर्तन में खीर परोस लाई।
अब दोनो खीर खाने लगे।
छिछला बर्तन होने के कारण लोमड़ी तो लपा-लप खीर खाने लगी परन्तु सारस की चोंच में खीर आती ही नही थी।
देखते-देखते लोमड़ी सारी खीर खा गयी और सारस भूखा रह गया।
घर आकर उसने यह बात अपनी पत्नी को बताई तो उसने कहा कि अब तुम लोमड़ी को दावत करना।
पत्नी की बात मान कर सारस ने लोमड़ी को अपने घर दावत के लिए निमन्त्रित कर दिया। लोमड़ी खुशी-खुशी सारस के यहाँ दावत खाने पँहुची।
सारस की पत्नी ने दावत में टमाटर का सूप बनाया था अतः वह एक सुराही में सूप ले कर आ गयी।
सुराही का मुँह बहुत छोटा था और ऊँचा भी था। उसमें लोमड़ी का मुँह पँहुच ही नही रहा था। किन्तु सारस अपनी लम्बी चोंच से सारा सूप पी गया।
लोमड़ी भूखी रह गयी ओर सारस से कहने लगी-
‘‘भाई सारस! दावत में मजा नही आया
’’सारस बोला- ‘‘ मित्र! जैसे को तैसा। शठे शाठ्यम् समाचरेत्।’’
इतना सुन कर लोमड़ी खींसे निपोरती हुई अपने घर आ गयी।
(चित्र गूगल से साभार)

Wednesday 20 May 2009

‘‘उस पार आनन्द है?’’ (डा0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

लगभग 20 वर्ष पहले की बात है। रात के 1 और 2 बजे के मध्य का समय रहा होगा। मैं लघुशंका के लिए उठा और वापिस आकर फिर अपने बिस्तर में लेट गया।

थोड़ी देर में मुझे आभास हुआ कि मेरा पाजामा और कमीज कई जगह से भीगा हुआ है।

मैं अपनी बुद्धि दौड़ाने लगा कि यह सब कैसे हुआ होगा?

सोचते-सोचते दिमाग ने काम करना शुरू कर दिया । सब बातें याद आने लगी।

मैं जिस समय लघुशंका के लिए गया था तो काफी नींद में था। बाथरूम में जाकर मैं मूर्छित हो कर गिर पड़ा था। यह तो याद नही कि कितने समय तक यह मूर्छा रही ? परन्तु जैसे ही होश में आया था। मैं अपने बिस्तर में आकर लेट गया था।

उस अचेत अवस्था में मैने कैसा अनुभव किया?

यही बताने के लिए इस घटना को पोस्ट के रूप में प्रकाशित कर रहा हूँ।

जब मैं अचेत अवस्था में था तो मुझे इतना आनन्द आ रहा था कि कि उसे शब्दों में वर्णन कर पाना सम्भव नही है। सुना है कि स्वर्ग में सुख ही सुख होता है इसके अलावा और कुछ नही।

मैं भी सुख ही सुख अनुभव कर रहा था। न घर परिवार की चिन्ता थी तथा न ही दुनियादारी के बन्धन। अर्थात्..........................अपार आनन्द। जो शायद उस पार ही है।

दूसरी घटना आज से 2 वर्ष पूर्व की है। मेरी पीछे वाली निचली दाड़ में बहुत तकलीफ थी। शहर के कई नामी डेण्टिस्टों को दिखाया परन्तु कोई लाभ नही हुआ।

संयोग से उन दिनों प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और मैं सरकार में आयोग का सदस्य भी था। उस समय सरकारी अस्पताल में नई उम्र के एक होशियार दाँतो के डाक्टर मेहरा थे। जब उन्हें दिखाया तो उन्होंने मेरी दाड़ का एक्स-रे किया और बताया कि इसे निकालना पड़ेगा।

मैने उनसे कहा कि इसे निकाल दीजिए। वह संकोचवश् मना नही कर सके और कम्पाउण्डर से कहा कि दाड़ निकालो। मैं तुम्हारी मदद करूँगा। क्योंकि डाक्टर साहब के हाथ में बैण्डेज बँधी हुई थी।

कम्पाउण्डर तो कम्पाउण्डर ही ठहरा। उससे दाड़ पूरी तरह सुन्न करनी नही आयी और जम्बूड़ लेकर उसने जैसे ही दाड़ खींची मैं अत्यधिक दर्द के कारण मूर्छित हो गया।

जब मुझे होश आया तो मैंने अपने सामने अस्पताल के पुरे डाक्टरों की फौज खड़ी हुई देखी।

आप विश्वास करें या न करें। परन्तु मुझे उस समय भी मूर्छित अवस्था में स्वर्ग जैसा आनन्द आ रहा था। जहाँ दुख, कष्ट और क्लेश का नामो निशान तक नही था।

मैं सारे सांसारिक बन्धनों से अपने को मुक्त पा रहा था।

Tuesday 19 May 2009

‘‘काश् हर बालक ऐसा ही होता!’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

(इशान्त कुमार, कक्षा-शिशु "क", आयु 4 दिन कम तीन साल)

आजकल विद्यालयों में नवीन प्रवेश धड़ल्ले से चल रहे हैं। हर रोज की तरह मैं भी अपने विद्यालय के कार्यालय में बैठा था। तभी एक अभिभावक अपनी पुत्र को लेकर शिशु कक्षा में प्रवेश कराने के लिए आये।

उस बालक की आयु 4 दिन कम तीन साल थी। पहले तो मैंने इस बालक के प्रवेश में आनाकानी की परन्तु उनके आग्रह के कारण मुझे इसको प्रवेश देना ही पड़ा।

अब इस बालक का प्रवेश विद्यालय में हो गया था। वह बड़े ही चाव से अपनी कक्षा में बैठ गया। अक्सर यह देखने में आता है कि नवीन प्रवेश होने पर या तो 1-2 दिन कक्षा में रोते हैं या घर जाने की रट लगाये रहते हैं। लेकिन यह बालक दूसरे बालकों से मिन्न प्रवृत्ति का था। यह अपनी कक्षा में शान्त भाव से बैठा रहा था। छुट्टी होने पर उसकी माता उसे विद्यालय में लेने के लिए आयी। परन्तु वह बालक घर जाने के लिए तैयार ही नही था। वह जिद करने लगा कि वह विद्यालय में ही रहेगा।

काश् हर बालक ऐसा ही होता, जिसमें विद्यालय के प्रति इतनी लगाव होता।

Monday 18 May 2009

"पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र का एकांकीकारों में विशेष स्थान है।" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


सन् 1985-86 की बात है। उन दिनों पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के अध्यक्ष थे। 1986 में गाजियाबाद में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हो रहा था।
पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र जी मुझे और डॉ. सभापति मिश्र (जो इलाहाबाद के पास हंडिया महाविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे।) को बहुत पसन्द करते थे।
पारस होटल गाजियाबाद में पं0 जी के ठहरने की व्यवस्था की गयी थी। उनके साथ सहयोगी के रूप में डॉ. सभापति मिश्र और मैं स्वयं मौजूद था। दोपहर के समय पं0 जी से मिलने के लिए 2-3 व्यक्ति और आ गये।
पं0 जी का गद्य और पद्य पर समान अधिकार था।
मैंने पं0 जी से कुछ सुनाने के लिए कहा-
तो पं0 जी बोले- ‘‘आप बताइए क्या सुनना चाहते हो?’’
मैंने कहा- ‘‘पं0 जी आज तो रसराज ही सुना दीजिए।’’
मेरे आग्रह को पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र जी ने ठुकराया नही और शुरू कर दिया- रसराज। मैं यह निसंकोच लिखना चाहता हूँ कि मैने अपने जीवन में कभी इतना अच्छा प्रकृति का श्रंगार नही सुना।
आज पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र जी इस दुनिया में नही हैं। परन्तु उनके साथ बिताये वो क्षण मुझे जीवनभर नही भूलेंगे।
प्रस्तुत है उनके कृतित्व की एक झलक-
‘‘कला के मूल में जब तक जीवन की व्यापक भावना नही रहती, पर वह पूरी नही हो पाती। कला की सफलता जीवन को पकड़ने में है, उससे विद्रोह करने में नही।’’पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र जी का यह कथन स्पष्ट करता है कि वे सोद्देश्य रचनाधर्मी थे।उन पर पाश्चातय नाटककार इन्सन, शा, मैटरलिंक आदि का खासा प्रभाव था। लेकिन फिर भी उनके एकांकियों में भारत की आत्मा बसती थी।
डा0 रामचन्द्र महेन्द्र के शब्दों में-
‘‘मिश्र जी का मूल स्रोत यही अतीत भारतीय नाट्यशास्त्र है। उनका यथातथ्यवाद, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि और और यथार्थवाद संस्कृत नादकों से ही मिले हैं। वे अन्तरंग में सदैव भारतीय है। उन्होंने भारतीय जीवन दर्शन के अनुरूप परिस्थितियों तथा कर्म व्यापारों का गठन किया है। प्राचीनता से भारतीय संस्कार लेकर नवीनता की चेतना उनमें प्रकट हुई है। फिर, यदि वे पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक या विचारकों के समकक्ष आ जाते हैं, तो हमें उनकी यह मौलिकता माननी चाहिए, अनुकरण नही।’’
पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र जी ने प्रचुर मात्रा में गद्य तथा पद्य दोनो मे ही साहित्य स्रजन किया है। मौलिक स्रजन से लेकर अनुवाद तक उन्होंने सोद्देश्य लेखन किया है। उन्होने लगभग 25 नाटकों ओर 100 एकांकियो का सृजन किया है। अशोक वन, प्रलय के मंच पर, कावेरी में कमल, बलहीन, नारी का रंग, स्वर्ग से विप्लव, भगवान मनु आदि उनके प्रख्यात एकांकी संग्रह हैं।
मिश्र जी के एकांकी विषय वस्तु की दृष्टि से पौराणिक, ऐतिहासिक, तथा मनोवैज्ञानिक पृष्ठ भूमि लिए हुए हैं।
उनके एकांकियों में पात्र कम संख्या में रहते हैं। वे उनका चरित्रांकन इस प्रकार करते हैं कि वे लेखक के मानसपुत्र न लग कर जीते-जागते और अपने निजी जीवन को जीते हुए लगते हैं।
मिश्र जी की सम्वादयोजना सार्थक, आकर्षक, सरल, संक्षिप्त, मर्मस्पर्शी तथा नाटकीय गुणों से परिपूर्ण होती है। जिसमें तार्किकता और वाग्विदग्धता तो देखते ही बनती है, उदाहरण के लिए ‘‘बलहीन’’ का सम्वाद देखें-
देवकुमार- तब तुमने स्त्री से विवाह किया है?
रजनी- संसार में धोखा बहुत होता है।
देवकुमार किसने रख दिया तुम्हारा नाम?
देवकुमारी रखा होता तो भ्रम में न पड़ती।
पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र जी के एकांकी सहज हैं और रंग-मंचीय परम्पराओं की कसौटी पर खरे उतरते हैं। उनकी सफलता इस बात में है कि वे अपने उद्देश्य की पूर्ति उपदेशक बन कर नही अपितु कलाकार के रूप में करते हैं।
डॉ. रामकुमार वर्मा, लक्ष्मीनारायण लाल, पं0 उदयशंकर भट्ट, तथा उपेन्द्र नाथ अश्क आधुनिक युग के प्रमुख एकांकीकारों में गिने जाते हैं परन्तु पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र का स्वर इन सबसे अलग रहा हे। हिन्दी के एकांकीकारों में उनका अपना एक विशेष स्थान है।
अपने गुरू-तुल्य पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र जी को मैं शत्-शत् नमन करते हुए उनको अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ।

Sunday 17 May 2009

‘‘जय शंकर प्रसाद’’ - डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

जयशंकर प्रसाद (चित्र गूगल से साभार)

यशस्वी साहित्यकार ‘‘जय शंकर प्रसाद’’ को नमन करते हुए छायावाद के उन्नायक कवि को अपने श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ।

जय शंकर प्रसाद जी का जन्म वाराणसी के वैश्य परिवार में सन् 1890 में हुआ था। इनके बाबा का नाम बाबू शिवरत्न गुप्त तथा पिता का नाम देवीप्रसाद गुप्त था। जो सुंघनी साहु के रूप में काशी भर में विख्यात थे। दानवीरता और कलानुरागी के रूप में यह परिवार जाना जाता था। प्रसाद जी को भी ये गुण विरासत में मिले थे।

बचपन में ही इनके माता-पिता का देहान्त हो गया था। इससे इनका परिवार विपन्नता की स्थिति में पहुँच गया था। दुःख और विषाद के बीच झूलते हुए इनकी पढ़ाई भी सातवीं कक्षा से ही छूट गयी थी। लेकिन धुन के धुनी जयशंकर प्रसाद ने अध्यवसाय नही छोड़ा। देखते ही देखते वे अपनी लगनशीलता के कारण संस्कृत, हिन्दी, उर्दु, फारसी, अंग्रेजी तथा बंगला भाषा में पारंगत हो गये।

अत्यधिक परिश्रम के कारण उन्होंने फिर से अपनी आर्थिक शाख भी प्राप्त कर ली थी। जिसके परिणामस्वरूप उन्हें क्षय ने अपनी गिरफ्त में जकड़ लिया और मात्र 47 वर्ष की आयु में ही उनका देहान्त हो गया।

साहित्यिक योगदान-

जयशंकर प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे केवल छायावाद के ही प्रमुख स्तम्भ नही थे अपितु उन्होंने नाटक, कहानी, उपन्यास आदि के क्षेत्र में अपनी लेखनी का लोहा मनवा लिया था।

कविरूप-

प्रसाद जी खड़ी बोली के प्रमुख कवि थे। लेकिन शुरूआती दौर में उन्होंने ब्रजभाषा में भी अपनी कवितायें लिखीं थी। जो बाद में चित्राधार में संकलित हुईं। उनकी काव्य कृतियों की संख्या नौ है।

1- चित्राधार (1908)। 2- करुणालय (1913)। 3- प्रेम पथिक (1914)। 4- महाराणा का महत्व (1914)। 5- कानन कुसुम (1918)। 6- झरना (1927)। 7- आँसू (1935)। 8- लहर (1935) और 9- कामायनी (1936)।

उपन्यासकार-

प्रसाद जी ने अपने जीवनकाल में तीन उपन्यास हिन्दी साहित्य को दिये। 1-कंकाल और 2-तितली उनके सामाजिक उपन्यास हैं। इनका तीसरा उपन्यास ‘इरावती’ है। लेकिन यह अपूर्ण है। यदि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा यह उपन्यास पूर्ण हो जाता तो प्रसाद जी उपन्यास के क्षेत्र में भी अपना लोहा मनवा लेते।

कहानीकार-

प्रसाद जी ने लगभग 35 कहानियाँ लिखी है। जो छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप , आँधी और इन्द्रजाल के नाम से पाँच संग्रहों में संकलित हैं।

उन्होंने अपनी पहली कहानी स्वयं ही इन्दु नामक पत्रिका में सन् 1911 में ‘ग्राम’ शीर्षक से छापी थी। उनकी अन्तिम कहानी है सालवती।

प्रसाद जी की अधिकांश कहानियाँ ऐतिहासिक या काल्पनिक रही हैं, किन्तु सभी में प्रेम भाव की सलिला प्रवाहित होती रही है।

निबन्धकार-

प्रसाद जी के निबन्धकार का दिग्दर्शन हमें उनकी विभिन्न कृतियों की भूमिकाओं में दृष्टिगोचर होता है। काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध उनकी प्रख्यात निबन्ध रचना है। उनके चिंतन, मनन और गम्भीर अध्ययन की छवि उनके निबन्धों में परिलक्षित होती है।

नाटककार-

जयशंकर प्रसाद जी एक महान कवि होने के साथ-साथ एक सफल नाटककार भी थे। उनके कुल नाटकों की संख्या तेरह है।

1- सज्जन (1910)। 2- कल्याणी परिणय (1912)। 3- करुणालय (1913)। 4- प्रायश्चित (1914)। 5- राज्यश्री (1915)। 6- विशाख (1921)। 7- जनमेजय का नागयज्ञ (1923)। 8- अजात शत्रु (1924)। 9- कामना (1926)। 10- एक घूँट (1929-30)। 11- स्कन्द गुप्त (1931)। 12- चन्द्रगुप्त (1932)। और 13- ध्रुव स्वामिनी (1933)।

प्रसाद जी ने अपने नाटकों में तत्सम शब्दावलि प्रधान भाषा, काव्यात्मकता, गीतों का आधिक्य, लम्बे सम्वाद, पात्रों का बाहुल्य तथा देश-प्रेम को प्रमुखता दी है।

अन्त में इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि जयशंकर प्रसाद जी का व्यक्तित्व और कृतित्व साहित्य-जगत में अपनी अलग और अद्भुद् पहचान लिए हुए है।

छायावाद के इस महान उन्नायक ने हिन्दी साहित्य को उपन्यास, कहानियों, नाटकों और निबन्धों धन्य कर दिया। कामायिनी जैसा महाकाव्य रच कर एक प्रख्यात कवि के रूप में अपना विशेष स्थान बनानेवाले प्रसाद जी को मैं अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ। स्वदेशानुरागी इस महान साहित्यकार को भला कौन हिन्दी प्रेमी भूल सकता है।

Friday 15 May 2009

"बाल साहित्यकार वो होते हैं, जिनके सिर पर बाल कम होते हैं।"

यह संस्मरण एक बाल-साहित्यकार सम्मेलन का है। उसमें बहुत से बाल साहित्यकार पधारे थे।
यह संयोग ही कहा जायेगा कि एक या दो साहित्यकारों को छोड़कर लगभग दो दर्जन साहित्यकार बड़ी आयु के थे अर्थात् बूढ़े थे।
मैं भी वहाँ एक दर्शक दीर्घा में बैठा था। मेरे पास ही कुछ बालक-बालिकायें भी बैठीं थी। कुछ ही देर पहले उन्होंने स्वागत-गान और एक दो कार्यक्रम प्रस्तुत किये थे। इनकी बातों से मुझे यह आभास हो रहा था कि इन बालकों ने शायद पहली बार ही कोई बाल साहित्यकार सम्मेलन देखा था।
सम्मेलन में धुँआधार भाषण चल रहे थे। बच्चे इन भाषणों से ऊब गये लगते थे।
परन्तु बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। चुप कैसे बैठते?
तभी उनमें से एक बालिका अपनी सहपाठी से बोली- ‘‘बाल साहित्यकार कौन होते हैं?’’
दूसरी बालिका ने उत्तर दिया- ‘‘बाल साहित्यकार वो होते हैं, जिनके सिर पर बाल कम होते हैं।’’
बालिका की बात निश्छल थी और उसमें दम भी था। क्योकि अधिकांश बाल साहित्यकारों के सिर पर बाल कम थे।
जिसने भी इस बालिका की बात सुनी वो हँसे बिना न रह सका।
मैं जब भी किसी बाल-साहित्य के कार्यक्रम में जाता हूँ। मुझे उस बालिका की बात याद आ जाती है। क्योंकि मेरे भी सिर पर बाल कम ही हैं।

"पकड़ ऐसी थी कि ढीली होने का नाम ही नही ले रही थी।" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)






(मेरे परम पूज्य पिता श्री घासीराम आर्य एवं परम पूज्या माता श्रीमती श्यामवती देवी)



यह घटना सन् 1979 की है।

उस समय मेरा निवास जिला-नैनीताल की नेपाल सीमा पर बसे कस्बे बनबसा में था।
पिता जी और माता जी उन दिनों नजीबाबाद में रहते थे।

लेकिन मुझसे मिलने के लिए बनबसा आये हुए थे।

पिता जी की आयु उस समय 55-60 के बीच की रही होगी।

शाम को वो अक्सर बाहर चारपाई बिछा कर बैठे रहते थे।

उस दिन भी वो बाहर ही चारपाई पर बैठे थे। तभी एक व्यक्ति मुझसे मिलने के लिए आया।

वो जैसे ही मेरे पास आया, पिता जी एक दम तपाक से उठे और उसका हाथ

इतना कस कर पकड़ा कि उसके हाथ से चाकू छूट कर नीचे गिर पड़ा।

तब मुझे पता लगा कि यह व्यक्ति तो मुझे चाकू मारने के लिए आया था।

पिता जी ने अब उस गुण्डे को अपनी गिरफ्त में ले लिया था और वो उनसे छूटने के लिए

फड़फड़ा रहा था परन्तु पकड़ ऐसी थी कि ढीली होने का नाम ही नही ले रही थी।

अब तो यह नजारा देखने के लिए भीड़ जमा हो गई थी।

इस गुण्डे टाइप आदमी की भीड़ ने भी अच्छी-खासी पिटाई लगा दी थी।

छूटने का कोई चारा न देख इसने यह स्वीकार कर ही लिया कि

डाक्टर साहब के पड़ोसी ने मुझे चाकू मारने के लिए 1000 रुपये तय किये थे

और इस काम के लिए 100 रुपये पेशगी भी दिये थे।

आज वह गुण्डा और मेरा उस समय का सुपारी देने वाला पड़ोसी इस दुनिया में नही है।

परन्तु मेरे पिता जी 87-88 वर्ष की आयु में आज भी स्वस्थ हैं। मेरे साथ ही रहते हैं।

आज मुझे समझ में आता है कि पिता यदि रक्षक हो तो

पुत्र पर कोई आँच नही आ सकती है।

58 वर्ष की आयु में भी मैं अपने आपको बच्चा ही समझता हूँ।

क्योंकि मेरे माँ-बाप अभी जीवित हैं।

मैं खुशनसीब हूँ कि माता-पिता जी का साया आज भी मेरे सिर पर है।

(मैं और मेरी जीवनसंगिनी श्रीमती अमर भारती)


Thursday 14 May 2009

‘‘बुद्धि से सब कुछ सम्भव है।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


किसी गाँव में एक कंजूस बुढ़िया रहती थी। उसके पास अपार धन सम्पदा थी।

किन्तु वह अतिथि हो या पड़ोसी किसी की भी कोई मदद नही करती थी।

एक बार एक नवयुवक परदेश से अपने घर लौट रहा था,

किन्तु शाम हो जाने के कारण उसने बुढ़िया के गाँव में रुकने को मजबूर होना पड़ा।

गाँव में उसने देखा कि एक आलीशान भवन बना हुआ है।

बस उसने इसी में रात गुजारने के लिए दस्तक दे दी।

दस्तक सुन कर बुढ़िया बाहर निकली और कड़क-कर पूछा- ‘‘कौन है तू? क्या चाहता है?’’

नवयुवक ने कहा-

‘‘माता! मुझे सफर करते हुए रात हो गयी है। इस लिए मैं रात्रि विश्राम करने के लिए आश्रय चाहता हूँ।’’

बुढ़िया को इस नवयुवक पर कुछ दया आ गयी और वह उससे बोली-

‘‘मैं तुझे रात में विश्राम की इजाजत तो दे रही हूँ, लेकिन खाना नही दूँगी।’’

नवयुवक ने कहा- ‘‘ठीक है माता!’’

नवयुवक ने आश्रय तो पा लिया लेकिन उसे बहुत भूख लगी थी। ऐसे में उसे एक युक्ति सूझी।

उसने एक सूखी लकड़ी अपनी जेब से निकाली और बुढ़िया से कहा-

‘‘माता मेरे पास यह जादू की लकड़ी है। मैं इससे खीर बना लूँ क्या?’’

अब बुढ़िया के मन में उत्सुकता और लालच दोनों ही जाग गये और उसने खीर बनाने की

इजाजत दे दी।

नवयुवक ने कहा- ‘‘माता! मुझे एक पतीला दे दो।’’

बुढ़िया ने सोचा कि बहुत दिनों से मैंने खीर खाई भी नही है।

आज खीर खाने को तो मिल ही जायेगी। अतः उसने पतीला लाकर दे दिया और बोली-

‘‘बेटा! खीर स्वादिष्ट बननी चाहिए।’’

नवयुवक ने चूल्हे पर पतीला चढ़ा दिया। जब पानी खौलने लगा तो

पतीले में उसने सूखी लकड़ी पानी में घुमा कर कहा-

‘‘आ हा... क्या बढ़िया खुश्बू आ रही हे खीर की।’’

अब नवयुवक बुढ़िया से बोला-

‘‘माता! खीर तो एक आदमी के खाने लायक ही बनेगी।

यदि एक कटोरी चावल और मिल जाते तो तुम्हारे लिए भी हो जाती।’’

लालाची बुढ़िया ने झट से एक कटोरी चावल उसे लाकर दे दिये।

नवयुवक ने पतीले में फिर लकड़ी घुमाई और कहा-

‘‘माता! खीर में चावल जयादा हो गये हैं। यदि थोड़ा दूघ भी मिल जाता तो खीर बढ़िया बन जाती।’’

बुढ़िया ने दूध भी लाकर दे दिया। अब खीर बन कर तैयार हो गयी। परन्तु वह तो फीकी थी।

उसने बुढ़िया से फिर कहा-

‘‘माता! दूध और चावल अधक होने के कारण खीर फीकी हो गयी है। यदि थोड़ी शक्कर

भी मिल जाती तो........।’’

बुढ़िया के मुँह में तो पानी आ रहा था। अतः उसने शक्कर भी दे दी।

अब बड़े मजे से नवयुवक और बुढ़िया ने खीर खाई।

सुबह को जब नवयुवक जाने लगा तो बुढ़िया ने उससे कहा-

‘‘बेटा! ये जादू की लकड़ी मुझे ही देता जा। देख मैंने तुझे अपने घर में पनाह दी है।’’

नवयुवक बोला- ‘‘माता! मैं यह जादू की लकड़ी तुम्हें एक शर्त पर दे सकता हूँ।’’

बुढ़िया बोली- ‘‘क्या शर्त हैं?’’

नवयुवक बोला- ‘‘माता! आप मुझे आप गोद ले लो और अपना पुत्र बना लो।’’

बुढ़िया राजी हो गयी।

अब नवयुवक ने बुढ़िया का पुत्र बन कर,

प्रतिदिन बुढ़िया को सुन्दर-सुन्दर दृष्टान्त सुना-सुना कर

उसका हृदय परिवर्तन कर दिया था।

Wednesday 13 May 2009

‘‘माँ की पसन्द के गहने’’


काफी समय पहले की बात है। एक पुत्र अपनी माता के पैर दबा रहा था।
उसने माता से बड़े प्यार से कहा- ‘‘माँ! तुमने सारी उम्र गरीबी में गुजर-बसर करके भी मुझे पढ़ा-लिखा कर काबिल बना दिया। अब मैं सबसे पहले तुम्हारे लिए अच्छे-अच्छे सोने-चाँदी के गहने बनवाऊँगा।’’
माँ यह सब चुपचाप सुनती रही।
जब बेटे ने अपनी बात पूरी कर ली तो माँ ने पुत्र से कहा- ‘‘बेटा! मुझे भी गहनों का बहुत शौक है। परन्तु गहने मेरी पसन्द के बनवाना।’’
बेटे ने कहा- ‘‘माँ! तुम अपनी पसन्द बताओ तो सही। मैं गहने तुम्हारी पसन्द के ही बनावाऊँगा।’’
माँ ने कहा- ‘‘बेटा! मुझे तीन प्रकार के गहने पसन्द हैं-
हमारे देश में अशिक्षा चारों ओर व्याप्त है। मेरा सबसे प्रिय गहना यही होगा कि तुम देश में जगह-जगह पर पाठशाला खुलवाओ।
मेरा दूसरा गहना यह है कि देश में चिकित्सालयों के अभाव में बीमारी से लोग काल के ग्रास में समा जाते हैं। तुम जगह-जगह पर अस्पताल बनवाओ।
मेरी पसन्द का तीसरा सबसे बड़ा गहना है कि अनाथ बच्चों के लालन-पालन के लिए तुम देश में अनाथालय बनवाओ।
बेटा! क्या तुम मेरे लिए ये गहने बनवा सकोगे?’’
बेटे ने माँ को वचन दिया और कहा- ‘‘माँ! मैं तुम्हारी ये इच्छाएँ अवश्य पुर्ण करूँगा।’’
जानते हो यह युवक कौन था?
जी हाँ, यह युवक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर था।
जिसने अपना सारा जीवन माँ की इच्छाओं को पूर्ण करने में लगा दिया।

Tuesday 12 May 2009

‘‘घास और भूसा’’


बहुत समय पुरानी बात है। दो ब्राह्मणपुत्र काशी से विद्याध्ययन करके लौट रहे थे। दोनों ही बड़े घमण्डी स्वभाव के थे। प्रशंसा करना तो वह जानते ही नही थे। सदैव दूसरों की बुराई करना और उनके अवगुणों को गिनाना ही उनका कार्य था। यहाँ तक कि वे दोनों परस्पर मित्र होते हुए भी पीठ पीछे एक दूसरे की बुराई करने से बाज नही आते थे।
काशी से लौटते हुए रास्तें में उन्हें शाम हो गयी। उन्होंने सोचा कि रात में किसी बाह्मण के घर रात्रि विश्राम कर लिया जाये। अतः वे एक गाँव में किसी ब्राह्मण के यहाँ रुक गये। रात्रि को विश्राम किया।
अगले दिन प्रातःकाल जब उनमें से एक व्यक्ति स्नान को गया तो मेजबान पण्डित जी ने उसकी विद्या के बारे में पूछा। काशी से लौटे ब्राह्मणपुत्र ने अपने गुणों का बखान करना प्रारम्भ कर दिया।
जब मेजबान ने उससे उसके दूसरे साथी के बारे में पूछा तो उसने कहा-
‘‘वह तो निरा गधा है।’’
अब दूसरा ब्राह्मणपुत्र स्नान के लिए गया तो मेजबान पण्डित जी ने उससे भी वही प्रश्न किये। इसनें भी अपनी खूब प्रशंसा की और जब उससे दूसरे साथी के बारे में पूछा गया तो
इसने कहा कि- ‘‘वह तो निरा बैल है।’’
जब इन दोनों ब्राह्मणपुत्रों ने पूजा-पाठ कर लिया तो नाश्ते में मेजबान ने दो थालियाँ सजा कर उनके सामने लगा दी और कहा कि प्रातःरास कर लीजिए।
दोनों ब्राह्मणपुत्र नाश्ते में थालियों में परोसा गया व्यंजन देख कर दंग रह गये। क्योंकि एक थाली में घास थी और दूसरी में भूसा था।
उन्होंने मेजबान पण्डित जी से जब इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया कि भाई तुम लोगों ने ही तो एक दूसरे को गधा और बैल बताया था। इसलिए गधे के लिए हरी घास और बैल के लिए भूसा परोसा गया है।
इस पर दोनों ब्राह्मण पुत्र काफी लज्जित हुए। उन्होंने मेजबान पण्डित जी क्षमा माँगी।
उनको नसीहत मिल चुकी थी।
इसके बाद उन्होंने ने किसी की भी बुराई न करने का प्रण कर लिया।

Sunday 10 May 2009

‘‘मातृ-दिवस पर विशेष’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)

माँ ने वाणी को उच्चारण का ढंग बतलाया है,
माता ने मुझको धरती पर चलना सिखलाया है,
खुद गीले बिस्तर में सोई, मुझे सुलाया सूखे में,
माँ के उर में ममता का व्याकरण समाया है,

माता शब्द की व्यापकता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि
दुख-दर्द के समय अन्तर्मन से एक ही स्वर वाणी पर अपने आप आ जाता है कि
‘हाय-मैया’। कभी विचार किया है कि यदि माँ नही होती तो हम दुनिया में कैसे आ जाते?
माता के प्रति हमारी कितनी अगाध श्रद्धा और भक्ति है इसका पता
इसी बात से लग जाता है कि
देवी स्वरूपा माता के दर्शनों के लिए पूरे वर्ष माँ के मन्दिरों में भीड़ लगी रहती है।
माता को ही जगत्-जननी का अमर पद प्राप्त है।
आदि-शक्ति के रूप में वह हमारे मन में सरस्वती, पार्वती के रूप में विराजमान है।
माता को विश्व में प्रथम गुरू का सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।
‘‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’’
मातृ-दिवस पर, हे माँ! मैं तुमको कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ।

Saturday 9 May 2009

‘‘बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर विशेष’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)

बुद्धं शरणं गच्छामि,
बुद्ध की शरण में जाओ, अर्थात् बुद्धि की शरण में जाओ।

धम्मं शरणं गच्छामि,

धर्म की शरण में जाओ, अर्थात् कर्तव्य से विमुख मत होओ।

महाकवि तुलसी दास जी ने भी कहा है-

‘‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,
जो जस करहि सो तस फल चाखा।’’

संघं शरणं गच्छामि,

संगठन की शरण में जाओ, संगठित होकर कार्य करो।

उपरोक्त इन तीन वाक्यों में ही पूरे विश्व का ज्ञान निहित है।

आज यदि संसार का प्रत्येक व्यक्ति,
इन तीन वाक्यों के मर्म को समझ ले तो उसका कल्याण हो सकता है।

मैं बड़े श्रद्धा और भक्ति से
आज बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर
सत्य और अहिंसा का मार्ग दिखलाने वाले गौतम बुद्ध को
अपने आदर के सुमन अर्पित करता हूँ।

Thursday 7 May 2009

‘‘एकांकी’’ ‘छुआ-छूत’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)

(एक थे पण्डित जी और एक थी पण्डिताइन। पण्डित जी के मन में जातिवाद कूट-कूट कर भरा था। परन्तु पण्डिताइन समझदार थी। समाज की विकृत रूढ़ियों को नही मानती थी।एक दिन पण्डित जी को प्यास लगी। संयोगवश् घर में पानी नही था। इसलिए पण्डिताइन पड़ोस से पानी ले आयी। पानी पीकर पण्डित जी ने पूछा।)

पण्डित जी- कहाँ से लाई हो। बहुत ठण्डा पानी है।

पण्डिताइन जी- पड़ोस के कुम्हार के घर से।

(पण्डित जी ने यह सुन कर लोटा फेंक दिया और उनके तेवर चढ़ गये। वे जोर-जोर से चीखने लगे।)

पण्डित जी- अरी तूने तो मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया। कुम्हार के घर का पानी पिला दिया।

(पण्डिताइन भय से थर-थर काँपने लगी, उसने पण्डित जी से माफी माँग ली।)

पण्डिताइन- अब ऐसी भूल नही होगी।

(शाम को पण्डित जी जब खाना खाने बैठे तो पण्डिताइन ने उन्हें सूखी रोटियाँ परस दी।)

पण्डित जी- साग नही बनाया।

पण्डिताइन जी- बनाया तो था, लेकिन फेंक दिया। क्योंकि जिस हाँडी में वो पकाया था,

वो तो कुम्हार के घर की थी।

पण्डित जी- तू तो पगली है। कहीं हाँडी में भी छूत होती है?

(यह कह कर पण्डित जी ने दो-चार कौर खाये और बोले-)

पण्डित जी- पानी तो ले आ।

पण्डिताइन जी- पानी तो नही है जी।

पण्डित जी- घड़े कहाँ गये?

पण्डिताइन जी- वो तो मैंने फेंक दिये। कुम्हार के हाथों से बने थे ना।

(पण्डित जी ने फिर दो-चार कौर खाये और बोले-)

पण्डित जी- दूध ही ले आ। उसमें ये सूखी रोटी मसल कर खा लूँगा।

पण्डिताइन जी- दूध भी फेंक दिया जी। गाय को जिस नौकर ने दुहा था, वह भी कुम्हार ही था।

पण्डित जी- हद कर दी! तूने तो, यह भी नही जानती दूध में छूत नही लगती।

पण्डिताइन जी- यह कैसी छूत है जी! जो पानी में तो लगती है, परन्तु दूध में नही लगती।

(पण्डित जी के मन में आया कि दीवार से सर फोड़ ले, गुर्रा कर बोले-)

पण्डित जी- तूने मुझे चौपट कर दिया। जा अब आँगन में खाट डाल दे। मुझे नींद आ रही है।

पण्डिताइन जी- खाट! उसे तो मैंने तोड़ कर फेंक दिया। उसे नीची जात के आदमी ने बुना था ना।

(पण्डित जी चीखे!)

पण्डित जी- सब मे आग लगा दो। घर में कुछ बचा भी है या नही।

पण्डिताइन जी- हाँ! घर बचा है। उसे भी तोड़ना बाकी है।

क्योकि उसे भी तो नीची जाति के मजदूरों ने ही बनाया है।

(पण्डित जी कुछ देर गुम-सुम खड़े रहे! फिर बोले-)

पण्डित जी- तूने मेरी आँखें खोल दीं। मेरी ना-समझी से ही सब गड़-बड़ हो रही थी।

कोई भी छोटा बड़ा नही है। सभी मानव समान हैं।



Wednesday 6 May 2009

‘‘इस लोक-तन्त्र को क्या नाम दें?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


आज सारी दुनिया भारत को सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के रूप मे जानती है। परन्तु इस लोकतन्त्र का घिनौना चेहरा अब लोगों के सामने आ चुका है।

क्या आपने किसी निर्धन और ईमानदार व्यक्ति तो चुनाव लड़ते हुए देखा है?

वह तो केवल मत देने के लिए ही पैदा हुआ है। यदि कोई ईमानदार और गरीब आदमी भूले भटके ही सही चुनाव में खड़ा हो जाता है, तो क्या वह चुनाव जीत कर संसद के गलियारों तक पहुँचा है।

इसका उत्तर बस एक ही है ‘नही’ ।

आज केवल धनाढ्य व्यक्ति ही चुनाव लड़ सकता है। बस यही सत्य है ।

नेताओं के पुत्र-पुत्रियाँ, फिल्मी अभिनेता, या बे-ईमान और काला-धन कमाने वाले ही चुनावी समर में दिखाई देते हैं। इसीलिए संसद का चेहरा नित्य प्रति बिगड़ता जा रहा है।

लोकतन्त्र, लोकतन्त्र कम और राजतन्त्र या भ्रष्टतन्त्र अधिक दिखाई देता है।

क्या यह कानून बदला नही जा सकता?

सम्भव तो हैं पर इसे बदलेगा कौन? राजतन्त्र की तरह नेताओं कुर्सी नशीन के पुत्र या भ्रष्ट नेतागण। सारी आशायें दम तोड़ती नजर आती हैं। दूध की रखवाली बिल्लों के हाथ में हो तो ये झूठी आशायें पालना ही बेकार है।

आज चारों ओर से आवाज उठ रही हैं कि 100 प्रतिशत मतदान करो। लेकिन ये मत तो राजनेताओं, उनके वंशजों तथा भ्रष्टाचारियों को ही तो जायेंगे।

कहने को तो चुनाव आयोग बड़े-बड़े अंकुश लगाने के बड़े-बड़े दावे करता है। परन्तु धनाढ्यों को मनमाना धन खर्च करने की छूट मिली हुई है।

चुनाव आयोग को चाहिए कि वह हर एक प्रत्याशी से एक निश्चित धन-राशि जमा करा कर, चुनाव प्रचार की कमान अपने हाथ में ले। व्यक्तिगत रूप से न कोई झण्डा न बैनर न पोस्टर न अपील का नियम चुनाव आयोग लागू करे।

आखिर चुनाव कराना सरकार का काम है। अतः इस गूँगे-बहरे, लुंज-पुंज लोकतन्त्र को पुनः सच्चे लोकतन्त्र के रूप में स्थापित के लिए प्रयास सरकार को ही करने चाहियें। सबका समान प्रचार कराने की जिम्मेदारी सरकार को निभानी चाहिए। प्रत्याशी का काम बस नामांकन तक ही सीमित होना चाहिए।

तभी सच्चा लोकतन्त्र इस देश में प्रतिस्थापित हो सकता है।

Monday 4 May 2009

‘‘प्रजापति समाज की बैठक सम्पन्न’’

अखिल भारतीय प्रजापति (कुम्भकार) संघ, की उत्तराखण्ड शाखा के प्रदेश अध्यक्ष के डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री के निवासस्थान खटीमा में प्रजापति समाज की एक महत्वपूर्ण बैठक सम्पन्न हुई।

प्रजापति महासभा,उत्तराखण्ड के अध्यक्ष शोभाराम प्रजापति ने इस बैठक में मुख्य-अतिथि पद से बोलते हुए कहा कि वर्तमान परिवेश में जातीय समीकरण का प्रभाव अधिक बढ़ गया है। अतः प्रजापति समाज को संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए एक लम्बी लड़ाई लड़नी होगीओर इसके लिए तन-मन-धन से तैयार रहना होगा। श्री सुमेर सिंह प्रजापति ने इस अवसर पर अपने उदबोधन में कहा कि प्रजापति समाज वर्षो से दबा-कुचला रहा है। अब इसको अपनी जारूकता का परिचय देना होगा। देहरादून से पधारे मेघराज आर्य ने अपने सम्बोधन में कहा कि प्रजापति आदि शिल्पकार है । उत्तराखण्ड में शिल्पकारों को अनुसूचित जाति में रखा गया है। लेकिन प्रजापतियों को पिछड़ी जाति का दर्जा दिया गया है। एक ही राज्य में यह सौतेला व्यवहार क्यों? सरकार को इस पर विचार करना चाहिए और प्रजापति समाज को अनुसूचित जाति का दर्जा देना चाहिए। हरिद्वार से पधारे बल्लूराम जी ने इस अवसर पर समस्त प्रजापति समाज को टुकड़ों न बँटने की बात कही। उन्होने कहा कि एकता में ही शक्ति निहित है। ज्वालापुर (हरिद्वार) से पधारे ब्रह्मसिंह आर्य ने कहा कि अनय पिछड़ा वर्ग को उत्तराखण्ड में मात्र 14 प्रतिशत का आरक्षण दिया गया है जबकि उत्तर प्रदेश में यह 27 प्रतिशत है। अतः उत्तर प्रदेश से अलग हुए राज्य उत्तराखण्ड में भी पिछडे़ वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए।
बैठक की अध्यक्षता अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग, उत्तराखण्ड सरकार के निवर्तमान सदस्य डा0 रूपचन्द्र शास्त्री ने की।
उन्होंने अपने सम्बोधन में कहा कि प्रजापति समाज के बहुत से संगठन इस समाज के लिए अपना कार्य कर रहे हैं। किन्तु वे प्रजापति समाज का कार्य कम करते हैं और आपस की बुराइयाँ अधिक करते हैं। उन्होंने आह्वान किया कि जितनी भी प्रजापति समाज की संस्थायें काम कर रही हैं। उनमे आपस में कोई विरोध नही होना चाहिए। क्योंकि ये सारी की सारी संस्थाएँ समाज के उत्थान का कार्य कर रही हैं। सबमें आपस में प्रेम और सौहार्द होना चाहिए।

बैठक में स0 रणजीत सिंह प्रजापति, गाम प्रधान, मैनाझुण्डी, शंकर लाल प्रजापति,मेघनाथ प्रजापति, विदेशी प्रसाद प्रजापति, मदन सिंह-रुड़की, भगवतसिंह, व चिरंजी लाल-सितारगंज, नरेन्द्र सिंह पनियाला आदि ने भाग लिया।

‘‘शाबाश टाम’’ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’


मैं सन् 1980 में शारदा नदी की उपत्यिका में नेपाल की सीमा से सटे गाँव बनबसा में रहता था। उन्हीं दिनों मेरा परिचय मूसा नाम के एक वन-गूजर से हुआ। उसके पास लगभग 150 भैसे थी।

वनगूजर अपना मुकाम जंगल में ही बना लेते थे। वन-गूजरों के 4 या 5 परिवार एक साथ रहते थे हर एक परिवार के पास कम से कम 50-60 भैंसे होती थीं।

वन-गूजर लोग दिल के बड़े साफ होते हैं। इनका मुख्य कारोबार दूध का होता हैं। ये दिन में केवल एक बार सुबह 9 बजे ये भैंसों को दुहते हैं। फिर भैंसों की रखवाली का काम भोटिया नस्ल के कुत्ते करते हैं।

मूसा से मेरा परिचय इतना बढ़ा कि वो दोस्ती में बदल गया। जंगल में रहने के कारण अपना पैसा भी वह मेरे पास ही जमा कर जाता था।

एक बार वह मुझे जंगल में बने अपने झाले पर ले गया। मैंने इनके भालू जैसे कुत्ते देखे तो मेरा मन हुआ कि एक भोटिया नस्ल का कुत्ता पाला जाये।

मैंने मूसा से कहा तो उसने कहा- ‘‘डॉ. साहब! मेरी कुतिया ने 6 बच्चे दिये हैं। आप इसमें से छाँट लीजिए।’’

मुझे उन में से एक प्यारा सा गबरू सा पिल्ला पसन्द आ गया। मैंने उसे बड़े प्यार से पाला और उसका नाम टॉम रख दिया। टाम धीरे-धीरे जवान हो गया। उसका रंग तो काला था ही अब उसका आकार भी भालू जैसा हो गया था।

टॉम दिन भर सोता था और रात भर पूरे घर की चौकीदारी करता था। किसी बाहरी व्यक्ति की क्या मजाल थी कि वो रात में घर में घुस जाये।

तभी संयोग ऐसा बना कि मुझे 1985 में खटीमा शिफ्ट होना पड़ा।

अब टॉम काफी समझदार हो गया था।

गरमी के मौसम में मेरे पिता जी बाहर आँगन में चारपाई बिछा कर सोते थे। उन दिनों मेरे घर के आँगन में ईंटों का कच्चा फर्श था।

एक दिन सुबह को 4-5 बजे जब पिता जी सोकर उठे तो उन्होंने देखा कि चारपाई के नीचे लहू-लुहान हुआ एक साँप मरा पड़ा था।

यह समझते देर न लगी कि यह करिश्मा टॉम ने ही किया होगा।

उस दिन अगर टॉम न होता तो कोई न कोई अनहोनी हो सकती थी।

परिवार में सबने कहा- ‘‘शाबाश टॉम! तुम सच्चे स्वामी-भक्त निकले।’’

आज उस घटना को लगभग 25 वर्ष बीत गये हैं।

फिर भी टॉम हम सबको बहुत याद आता है।

Sunday 3 May 2009

‘‘तोते का बलिदान’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

शारदा नदी की उपत्यिका में, साल के घने और गगनचुम्बी वृक्षों और नेपाल सीमा पर बसा बनबसा, नैनीताल जिले का एक बहुत ही सुन्दर गाँव है।

यहाँ अद्भुत सुन्दरता लिए, एक बहुत बड़ा बैराज है। जिसको शारदा हेड-वक्र्स के नाम से जाना जाता है। बस इसके पार करते ही नेपाल देश की सीमा शुरू हो जाती है।

बात सन् 1977 की है। मेरा मन तराई की इस घाटी में इतना रम गया कि मैंने साल के जंगल के किनारे अपना मकान यहीं पर बना लिया और अपने परिवार के साथ यहाँ रहने लगा।

एक दिन शाम के समय एक तोते का बच्चा जिसके पर अभी अर्द्ध विकसित ही थे, मेरे घर के आँगन में पड़ा फड़फड़ा रहा था।

मैंने उसे उठाया पानी पिलाया तो वो कुछ होश में आता दिखाई दिया।

मैं घर के सामने फुटपाथ के किनारे बैठे लोहार रमेशराम से तुरन्त एक पिंजड़ा बनवा कर लाया और तोते का नया आशियाना तैयार हो गया।

अब यह तोते का बच्चा बड़ा होने लगा।

एक दिन इसके मुँह से एक स्वर निकला- ‘‘मम्मी जी!’’

मेरा पुत्र नीटू अपनी माता को मम्मी जी! कहता था। बस तोते ने यह शब्द रट लिया।

कुछ दिनों बाद तोते ने सुबह-सुबह आवाज लगाई- ‘‘नीटू उठो! स्कूल जाओ!’’ अब तो हम सबको बड़ी हैरानी हुई कि तोता इतना साफ कैसे बोल लेता है?

क्यों कि हम लोग रोजाना सुबह अपने बेटे को सोते हुए देख कर कहते थे- ‘‘नीटू उठो! स्कूल जाओ!’’

अब तोते का प्रति दिन का काम यही हो गया था- ‘‘मम्मी जी!’’ ‘‘नीटू उठो! स्कूल जाओ!’

तोता अब जवान हो चला था। यह पहाड़ी नस्ल का था। इसका बहुत बड़ा सिर था, लाल खोपड़ी थी। हरे पंखो के बीच में भी लाल पर भी थे।

एक दिन रात में चोरों ने मेरे घर के पीछे की दीवार काट ली और कमरे में आने लगे होंगे।

कमरे के दरवाजे में तोते का पिंजड़ा टँगा हुआ था। किसी चोर के सिर में तोते का यह पिंजड़ा टकराया होगा।

अब तो हमारे मिटठू भैया ने जोर से आवाज लगाई- ‘‘मम्मी जी!’’

उसकी आवाज सुन कर हम लोग जाग गये। हमने सोचा कि बिल्ली होगी तभी तोते ने आवाज लगाई है।

इधर चोरों को हमारी आहट का आभास हुआ और वो ‘‘नौ दो ग्यारह’’ हो गये।

जब हमने बाहर निकल कर देखा तो घर की दीवार कटी हुई थी और तोते का पिंजड़ा भी नदारत था।

सुबह होने पर जब तोते को तलाशा गया तो उसका पिंजड़ा साल के जंगल में पड़ा मिला। पास ही उसके कुछ पर भी पड़े थे।

यह तोता हमारे परिवार का आवश्यक अंग बन चुका था या यूँ कहे कि यह हमारा एक परिवारी सदस्य ही था तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।

तोतें के गम में उस दिन घर में खाना भी नही बना। किसी को भूख ही नही थी।

स्वामी-भक्त तोते ने अपना बलिदान देकर हमारे घर में होने वाली एक चोरी को नाकाम कर दिया था।

इस घटना को 32 वर्ष हो गये हैं परन्तु,

मिट्ठू भैया! आज भी हमें बहुत याद आते हैं।

Friday 1 May 2009

"विनम्रता, प्रेम और पवित्रता" डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

रुक्मणि के दो जुड़वा बच्चे थे, एक लड़का और एक लड़की।

लड़के का नाम ललित था और लड़की का नाम लता था।

शाम को ये दोनों भाई बहिन अपने घर के बगीचे में घूमने के लिए निकल जाते थे।

एक दिन जब ये बगीचे में घूम रहे थे।

अकस्मात् ललित लाल गुलाब के फूल के पास जाकर ठहर गया

और लता से कहने लगा- ‘‘बहन! मुझे ये लाल गुलाब का फूल सबसे सुन्दर लग रहा है।’’

पास ही लिली का पौधा भी था।

लता लिली के फूल को देख कर बोली - ‘‘भइया! मुझे तो लिली का फूल ही

सबसे सुन्दर लग रहा है। इसके सामने तो दूसरे फूल ठहरते ही नही।’’

अब ललित बोला- ‘‘बहन! पास में ही ये बनफ्सा का फूल है।

इसकी महक तो अच्छी है परन्तु रंग कुछ खास नही है।’’

तभी उनकी माता रुक्मणि भी बगीचे में आ गयी।

उसने देखा कि दोनों बहन-भाई में बहस छिड़ी हुई थी।

माँ ने दोनों की बात सुनी और कहने लगी- ‘‘सुनो- ये जो तीनों फूल तुम लोग

देख रहे हो- इनमें बनफ्सा का फूल और इसका रंग विनम्रता का प्रतीक है।’’

अब ललित माँ से बोला- ‘‘और माँ ये गुलाब का फूल लाल फूल है यह किसका प्रतीक है?’’

रुक्मणि बोली- ‘‘बेटा! ये गुलाब का फूल प्रेम का प्रतीक है।’’

अब लता बोली- ‘‘और माँ मेरा ये लिली का फूल किसका प्रतीक है?’’

रुक्मणि बोली- ‘‘बेटी! ये लिली का फूल पवित्रता का प्रतीक है।’’

रुक्मणि ने दोनो बच्चों को प्यार से पास बुला कर कहा-

‘‘ईश्वर प्रदत्त प्रकृति के ये तीन उपहार हैं।

विनम्रता, प्रेम और पवित्रता को कभी अपने से दूर मत करना।’’