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Friday 30 April 2010

आज “शब्दों का दंगल” एक वर्ष का हो गया है!

एक वर्ष : 135 पोस्ट
गत वर्ष आज ही के दिन
“शब्दों का दंगल” शुरू किया था:
इस रचना के साथ-

Thursday, 30 April 2009

"दंगल अब तैयार हो गया।"

(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
यह कविता मेरे पुराने ब्लॉग
‘‘उच्चारण" पर भी उपलब्ध है।
शब्दों के हथियार संभालो,
सपना अब साकार हो गया।
ब्लॉगर मित्रों के लड़ने को,
दंगल अब तैयार हो गया।।

करो वन्दना सरस्वती की,
रवि ने उजियारा फैलाया,
नई-पुरानी रचना लाओ,
रात गयी अब दिन है आया,
गद्य-पद्य लेखनकारी में,
शामिल यह परिवार हो गया।
ब्लॉगर मित्रों के लड़ने को,
दंगल अब तैयार हो गया।।

देश-प्रान्त का भेद नही है,
भाषा का तकरार नही है,
ज्ञानी-ज्ञान, विचार मंच है,
दुराचार-व्यभिचार नही है,
स्वस्थ विचारों को रखने का,
माध्यम ये दरबार हो गया।
ब्लॉगर मित्रों के लड़ने को,
दंगल अब तैयार हो गया।।

सावधान हो कर के अपने,
तरकश में से तर्क निकालो,
मस्तक की मिक्सी में मथकर,
सुधा-सरीखा अर्क निकालो,
हार न मानो रार न ठानो,
दंगल अब परिवार हो गया।
ब्लॉगर मित्रों के लड़ने को,
दंगल अब तैयार हो गया।।
आज देखिए खटीमा में मजार पर लगे
सालाना उर्स की झाँकियाँ-
IMG_1138 IMG_1139 IMG_1140 IMG_1143 IMG_1144 IMG_1146 IMG_1147IMG_1150IMG_1151IMG_1153IMG_1154IMG_1155IMG_1142चाँद से शुरू हुआ,
और चाँद पर है अन्त!
चाँद से ही देखता है,
आज भी यह सन्त!!  

Tuesday 27 April 2010

“धर्म बदला जा सकता है, जाति नही!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

मित्रों!
आज मैं जातिवादी युग में एक अटपटा सा छोटा सा लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ-
आज जातिवाद की ज्वाला में हमारा देश झुलसा हुआ है! धर्म का मुद्दा तो आज काफी पीछे छूट गया है!
लेकिन इतनी बात तो तय है कि जाति जन्म से होती है!
वैदिक काल में पुरुष जाति और स्त्री जाति दो ही होती थी! यहाँ मैं नपुंसक जाति का जिक्र जानबूझकर नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि उनमें भी महिला और पुरुष का भेद तो स्पष्ट झलकता ही है! यदि पशुओं की बात करें तो खिच्चर और खिच्चरा की संरचना तो आपने देखी ही होगी!
वैदिक काल में वर्ण चार होते थे-
ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र!
लेकिन आज तो जातीयता के जाल में पूरा समाज जकड़ा हुआ है। जिसको प्रचारित और प्रसारित करने का महान कार्य इस आजाद भारत की सरकारों ने किया है! यदि साफ-साफ कहें तो हमारे उस संविधान ने यह जहर फैलाया है, जिसका निर्माण संसद में बैठकर हमारे राजनेताओं द्वारा किया जाता है!
यदि पिछड़ी जाति की बात करें तो इसकी अनुसूची में उत्तराखण्ड में 84 जातियाँ पंजीकृत हैं! इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन-जाति और सामान्य वर्ग    में भी अनेक जातियों का उल्लेख है!
आप यदि चाहें तो अपना धर्म परिवर्तन कर सकते हैं। जैसी की खबरें यदा-कदा सुनने को मिल जाती हैं! परन्तु जाति कभी नहीं बदलती।
कारण यह है कि जिस जाति में व्यक्ति ने जन्म ले लिया वह जीवन पर्यन्त उसके साथ जुड़ जाती है और मत्यु तक रहती है! 
लेकिन विडम्बना देखिए-
परिवर्तनशील निवास का प्रमाणपत्र तो जीवनभर के लिए बन जाता है लेकिन पिछड़ी-जाति का प्रमाणपत्र केवल छः माह के लिए ही वैध कहलाता है!
बेकारी के इस युग में बेरोजगारों के लिए यह एक परेशानी भरा कार्य है! एक बार के प्रमाणपत्र बनवाने में 300 से 500 रुपये की भेंट तहसील में चढ़ानी ही पड़ती है! यानि बेरोजगारों पर दोहरी आर्थिक मार!
मैं 2005 से 2008 तक उत्तराखण्ड-सरकार में अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग का सदस्य रहा! मैंने कितनी ही बार आयोग में यह प्रस्ताव पारित करवाकर सरकार को भिजवाया कि जाति प्रमाणपत्र के लिए कम से कम 3 से 5 वर्ष की वैधता होनी चाहिए। लेकिन सरकार की ओर से कोई उत्तर नही आया। थक-हार कर एक बार तो सचिव समाज कल्याण की पेशी ही लगा दी कि वो आयोग के सामने आकर स्थिति स्पष्ट करें!
समाज कल्याण मन्त्रालय का अपर सचिव आयोग के समक्ष पेशी पर आया तो उसने लिखित रूप में बताया कि- क्रीमीलेयर के कारण इसकी वैधता सिर्फ 6 महीने की रखी गई है!
जब उससे प्रश्न किये गये कि मात्र 6 महीने में किसी की क्रीमीलेयर कैसे बदल सकती है तो उससे जवाब देते हुए नहीं बना!
अन्त में उसने यह कहकर अपना पीछा छुड़ा लिया कि उत्तर-प्रदेश से यह नियमावली हमें विरासत में मिली है! किन्तु दुर्भाग्य यह है कि-आज तक इस अधिनियम में संशोधन नही हो सका है!
गरीबों और बेरोजगारों की मसीहा कहलाने का दावा करने वाली चाहे कोई भी सरकार आये उसकी कार्यशैली वही ढाक के तीन पात जैसी ही है!
यदि यह लिख दूँ कि मन्त्रियों के पास सरकार चलाने की कोई योग्यता नहीं है तो इसमें कोई सन्देह की गुंजाइश नही होनी चाहिए!
आज भी सरकार तो सचिव ही चलाते हैं और वे यह कभी नहीं चाहेंगे कि उनके विभाग के कर्मचारी/अधिकारी रिश्वत के लिए तरसते रहें!   

Friday 23 April 2010

“लोग क्यों?:डॉ.राजकिशोर सक्सेना राज”

लोग क्यों?
बिन कोई ठोकर लगे ही,
लड़खड़ाते लोग क्यों?
परकटी चिड़िया से खुद ही,
फड़फड़ाते लोग क्यों?

जानकर लेते मुसीबत,
खेलते फिर शौक से,
जब लिपट जाती गले से,
चिड़चिड़ाते लोग क्यों?

असलियत सबको पता है,
जानते हैं लोग सब,
बेवजह महफिल में बेपर की,
उड़ाते लोग क्यों?

हर कदम पर है मुसीबत,
हर शहर में हर जगह,
घुस चले फिर क्यों शहर में,
धड़धड़ाते लोग क्यों?

हर कदम रक्खे संभलकर,
जानिबे मंजिल मगर,
पास मंजिल के पहुँचकर,
लड़खड़ाते लोग क्यों?

जानते हैं कुछ असर,
पत्थर पे हो सकता नही,
”राज” सबकुछ जानकर भी, 

गिड़गिड़ाते लोग क्यों?

 
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डॉ.राजकिशोर सक्सेना "राज”

Sunday 18 April 2010

“उद्यमेन् हि सिद्धयन्ति” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

एक गाँव में एक धनवान व्यक्ति रहता था! लेकिन वह बहुत कंजूस था। रात-दिन वह इन्ही ख्यालों में लगा रहता था कि किस प्रकार उसके धन में बढ़ोत्तरी हो! परन्तु वह इसके लिए कोई उद्यम भी नही करना चाहता था।
एक दिन वह सन्त रैदास जी के पास गया और बोला- “महाराज आप तो महाज्ञानी है। कृपया मुझे धन-सम्पत्ति बढ़ाने का उपाय बताइए।”
सन्त रैदास ने उसे ध्यान से देख और एक बीज देकर कहा- “देखो यह बीज बहुत ही चमत्कारी है। तुम इसे अपने घर के आँगन में बो देना। तुम्हारे धन में वृद्धि होने लगेगी।”
धनवान व्यक्ति सन्त की बात मान कर ने ऐसा ही किया।
दो-तीन माह में उस वीज ने एक बेल का रूप ले लिया और उस पर बहुत सारी सेम दिखाई देने लगीं। लेकिन उसकी सम्पत्ति मे बढ़ोत्तरि नही हुई।
वह इससे परेशान हो गया और पुनः सन्त रैदास के पास गया।
उसने सन्त जी से कहा- “महाराज आपने जो बीज दिया था वह मैंने वो दिया था। अब तो उस पर बहुत सारी फलियाँ भी लगीं हैं परन्तु मेरी सम्पत्ति में तो एक पैसे की भी वृद्धि नही हुई है।”
रैदाल बोले- “भाई! तुम नासमझी कर रहे हो। अगर मैं कहता कि इसे भूनकर खा लो, तुम्हारा पेट भर जायेगा, तो यह तो असम्भव ही होता ना। तुमने उस बाज का सही उपयोग किया। अब वही बीज इतने फल दे रहा है कि तुम ही नहीं अन्य लोग भी उसकी सब्जी खा सकते हो। ठीक इसी प्रकार ही तुम्हारे पास जो सम्पत्ति है उसे किसी उद्यम में लगाओ। उसमें वृद्धि होने लगेगी और तुम्हारे साथ बहुत से अन्य लोगों को भी रोजगार मिल जायेगा।”
”बिना उद्यम के सम्पत्ति में वृद्धि का कल्पना करना मूर्खता है।
धन का उपयोग सें के बीज की तरह करो! अन्यथा संचित धन धीरे-धीरे नष्ट हो जायेगा!”

Wednesday 14 April 2010

“चमचों की तो यहाँ भी भरमार है”

"ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।
जरा-जरा सी बात पर, अपने बनते गैर।।"

32 वर्ष पहले की बात है। हमारे पड़ोस में उन दिनों अपने एक स्वजातीय की किराने की दूकान थी। उस समय उनकी दूकान में प्रतिदिन 15 से 20 हजार रुपये तक की बिक्री होती थी।
समय बदला और धीरे-धीरे उनकी दुकानदारी कम होती गई। अब हालात यह थे कि लेनदारों के साथ उनकी तू-तू, मैं-मैं भी होने लगी थी।
हमने उनकी बैंक लीमिट में गारण्टर के रूप में हस्ताक्षर किये हुए थे।
यह देखकर हमारे कान खड़े होने लगे थे। एक दिन हमने उनसे पूछा- "भाई साहब क्या बात है? लोग आजकल आपसे अक्सर तू-तू, मैं-मैं क्यों करने लगे हैं?"
बस इसी बात पर वो हमसे नाराज हो गये। हमने बैंक से उनकी गारण्टी वापिस ले ली।
इसका असर यह हुआ कि उनसे बोल-चाल भी बन्द हो गई।
एक दिन किसी मीटिंग में उनके पास ही बैठना पड़ा। सिर्फ हाँ-हूँ में बातें होने लगी। 
आखिर हमने कह ही दिया कि जितने दिन हमने आपकी गारण्टी रखी उतने दिन का तो उपकार मानिए।
लकिन उपकार और इस युग में!
यह तो ऐसा था जैसे कि सरदारों के मुहल्लों में नाई की दूकान!
अब तो गुटबन्दी शुरू हो गई। उनका एक-आध चमचा देख लेने की धमकी भी दे गया।
हमें तो कोई अन्तर नही पड़ा लेकिन कालान्तर में उनकी दुकानदारी चौपट हो गई!
अगर आप भी इस चमचागिरि से ग्रस्त हैं तो समय की नजाकत को पहचानते हुए चमचों से दूर रहने की कोशिश कीजिए!
यही सुखी रहने का रहस्य है!

"कबिरा इस संसार में, चमचों की भरमार।
चमचे ही मझधार में, गुम करते पतवार।।"

Sunday 4 April 2010

“पानी में रहकर मगर से बैर” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”

सानिया की क्या मज़ाल

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जो पाकिस्तान में जाकर
शादी से इनकार कर दे!
आप क्या क़यास लगाए बैठे हैं?
बेकार ही आस लगाए बैठे हैं!!
मना करना होता तो
सानिया पाकिस्तान जाती ही क्यों?
आपने यह कहावत तो सुनी होगी कि-
“पानी में रहकर मगर से बैर”
कोई अपनी पसन्द की शादी भी नही कर सकता क्या?
यह अजीब विडम्बना है

और हम हिन्दुस्तानियों की मानसिकता का भी जवाब नही!
प्रजातन्त्र की परिभाषा

हम भूल क्यों जाते हैं?