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Tuesday 30 June 2009
‘‘ब्लागिंग एक नशा नही बल्कि आदत है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
Sunday 28 June 2009
"बचपन की आदते जाती नही हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
लगभग 200 वर्ष से अधिक पुरानी बात है। उन दिनों स्कूल की जगह काजी जी के मकतब हुआ करते थे। एक दिन काजी जी एक छात्र को डाँट-डाँट कर कह रहे थे कि अबे! मैंने तुझे गधे से आदमी बनाया है। संयोग से एक कुम्हार मकतब के पास से गुजर रहा था। उसके कानों में काजी जी की यह आवाज पड़ी तो बहुत खुश हुआ। क्योंकि कुम्हार के कोई सन्तान नही थी। उसने कई सारे गधे पाले हुए थे। घर आकर उसने अपनी पत्नी को मकतब वाली बात बताई तो वह भी बहुत प्रसन्न हुई। उसने अपने पति से कहा- ‘‘एजी्! हमारे पास जो छोटा गधे का बच्चा है उसका आदमी बनवा लाओ तो हमारा नाम-निशान चल जायेगा।’’ कुम्हार को भी उसकी बात समझ में आ गयी। अगले दिन प्रातःकाल कुम्हार गधे के बच्चे को लेकर काजी जी के पास गया और बोला- ‘‘काजी जी! मैं एक गधे का बच्चा आपके हवाले करता हूँ। मेहरबानी करके इसका आदमी बना दीजिए।’’ काजी जी ने कुम्हार को लाख समझाया कि भाई गधे का आदमी नही बनाया जा सकता। परन्तु कुम्हार कहाँ मानने वाला था। उसने काजी जी से कहा कि काजी जी बहाना नही चलेगा। मैं कल मकतब के पास से गुजर रहा था तो आप एक बालक को डाँट-डाँट कर कह रहे थे कि अबे! मैंने तुझे गधे से आदमी बनाया है। जब काजी जी ने देखा कि यह कुम्हार तो अहमक है इसलिए उन्होंने उसे टालने के ख्याल से कह दिया कि भाई इस गधे मेरे पास को छोड़ जाओ और इसके आदमी बनाने का खर्चा 100 अशर्फी मुझे दे जाओ। कुम्हार ने खुशी-खुशी काजी जी को 100 अशर्फी दे दीं और पूछा कि काजी जी कितने दिन बाद में आप इसे आदमी बना देंगे। काजी जी ने एक वर्ष का समय माँग लिया। कुम्हार ने गिन-गिन कर यह एक वर्ष का समय काट लिया और वह काजी जी के पास गया। उसने कहा- ‘‘काजी जी! जल्दी से मेरे लाल को मेरे हवाले करो।’’ परन्तु काजी जी तो कब के उस गधे के बच्चे को बेच चुके थे और 100 अशर्फिया भी डकार चुके थे। जब काजी जी को कोई बनाना नही सूझा तो उन्होंने कुम्हार से कहा- ‘‘भैया! वह गधे का बच्चा तो बड़ा चालाक निकला। पड़-लिख कर वह तो ताऊ के जिले का डी0एम0 बन गया है। जाकर उसे पहचान लो।’’ इस तरह से काजी ने कुम्हार से अपनी जान छुड़ा ली। अब आगे कुम्हार का हाल सुनो- जैसे ही कुम्हार ने यह खबर सुनी वह खुशी से पागल जैसा हो गया। उसने पूरे मुहल्ले में मिठाई बाँटी और अगले दिन ताऊ के जिले के लिए जाने को तैयार हो गया। जाते वक्त उसकी पत्नी ने कहा कि वह गधे का बच्चा बड़ा शैतान था। अगर उसने तुम्हें नही पहचाना तो उसे कैसे याद दिलाओगे कि उसे हमने बचपन में बड़े लाड़-प्यार से पाला था। इसलिए उसे ओढ़ाने का यह टाट साथ लेकर जाओ। अगर पहचानने से इन्कार कर दे तो उसे यह टाट का टुकड़ा दिखा देना। कुम्हार ने पत्नी की बात मान कर टाट का टुकड़ा भी साथ ले लिया। तीन दिनों के बाद वह ताऊ के जिले में पहुँचा तो पता पूछते-पूछते सीधे ही डी0एम0 की अदालत में पहुँच गया। डी0एम0 साहब कोर्ट में बैठे थे। उसने वहाँ खड़े सन्तरी से पूछा तो उसने इशारे से बताया कि वो डी0एम0 साहब बैठे हैं। कुम्हार आगे बढ़कर डी0एम0 साहब को झाँकने लगा। डी0एम0 साहब ने मन मे सोचा कि यह कोई मूर्ख आदमी होगा और उन्होंने इसकी हरकतों को नजर अन्दाज कर दिया। अब तो कुम्हार से न रहा गया। उसने अपनी पोटली खोली और टाट निकाल कर जोर जोर से हिलाने लगा। डी0एम0 साहब से यह बर्दाश्त न हुआ। वे अपनी कुर्सी उठे और कुम्हार के पास आकर उसे दो लात रसीद कर दी। इस पर कुम्हार को बड़ा गुस्सा आया और वह बोला। अरे गधे के बच्चे- तुझे इतने लाड़-प्यार से मैंने पाला। काजी जी को 100 अशर्फिया देकर तुझे आदमी बनवाया। लेकिन तेरी लात मारने की आदत अब तक नही गयी। तू पहले भी बहुत लात चलाता था। आज तूने अपनी जात दिखा ही दी। कहने का तात्पर्य यह है कि "बचपन की आदते जाती नही हैं।" |
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Saturday 27 June 2009
‘‘इण्टर-नेट तुरन्त जोड़ दिया गया’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
Wednesday 24 June 2009
‘‘एक साहित्यकार बना उत्तराखण्ड का मुख्यमन्त्री’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
Tuesday 23 June 2009
‘‘मेहमान’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आज ताऊ के देश की एक कथा सुनाने का मन है। इनके गाँव में एक किसान दम्पत्ति रहता था। परिवार में पति पत्नी और एक बिटिया थी। इनके घर में एक व्यक्ति मेहमान बन कर आया। एक दो दिन तो इन्होंने उसकी खूब खातिरदारी की परन्तु मेहमान था कि जाने का नाम ही नही ले रहा था। इन्होंने मेहमान को भगाने की एक युक्ति निकाली। जैसे ही अतिथि जंगल दिशा के लिए गया। ये तीनों लोग खेत की ओर निकल गये। इधर जब मेहमान जंगल दिशासे वापिस आया तो उसे घर में कोई दिखाई नही दिया। इसने थोड़ी देर तो इसने इन्तजार किया कि कोई वापिस आ जायेगा, परन्तु जब दोपहर तक भी कोई घर नही आया तो इसने कण्डों के हारे में कढ़ रहे दूध से खीर बनाई और उसे खा कर पेड़ के नीचे खाट बिछा कर उस पर सो गया। शाम को जब सब लोग घर वापिस आये तो मेहमान दिखाई नही दिया। ये लोग मन में प्रसन्न होकर गाने लगे- सबसे पहले किसान ने गाना गाया- ‘‘मैं बड़ा अजब हुशियार, तजुर्बेकार, बड़ा कड़के का। मैं खुर्पा-रस्सी ठाय गया तड़के का।।’’ फिर किसान की पत्नी झूम-झूम कर गाने लगी- ‘‘मैं बड़ी अजब हुशियार, तजुर्बेकार, बड़ा कड़के की। मैं लड़की लेकर साथ गयी तड़के की।।’’ तभी पेड़ के नीचे पड़ी खाट से आवाज आयी- मैं बड़ा अजब हुशियार, तजुर्बेकार, बड़ा कड़के का। थारी गुड़ से रगड़ी खीर पड़ा तड़के का।।’’ अब मैं ताऊ से पूछता हूँ कि ताऊ कोई ऐसी तरकीब तो बता दे कि ये मेहमान हमारा पीछा छोड़ कर चला जाये। |
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Sunday 21 June 2009
‘‘शाबाश पिल्लू" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
Friday 19 June 2009
‘‘विज्ञान का चमत्कार, घर बैठे ही 10 मिनट में कम्प्यूटर ठीक हो गया।’’
Thursday 18 June 2009
‘‘बड़ा पुत्र ही बेईमानी अधिक करता है।’’ अन्तिम कड़ी- (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मित्रों! कल मैंने एक पोस्ट लगाई थी ‘‘बड़ा पुत्र ही बेईमानी अधिक करता है।’’ मैं जानता हूँ कि इससे बहुत से लोगों को बहुत कष्ट हुआ होगा। मैं भी अपने माता-पिता की ज्येष्ठ सन्तान हूँ, परन्तु मेरा कोई सगा भाई नही है। कल मैंने केवल तीन उदाहरण दिये थे, किन्तु अपनी धारणा नही बनाई थी कि परिवार का बड़ा भाई बेईमान होता है। दुनिया में आज भी बहुत से ऐसे भाई हैं, जिन्होने अपने छोटे भाइयों के लिए बहुत कुछ त्याग किया है। एक मेरा मौसेरा भाई है जो पशु चिकित्साधिकारी के पद पर कार्यरत है। ये दो भाई हैं। गाँव में उनकी पैतृक कृषि भूमि थी। जिसे बेच दिया गया । लाखों रुपये की इस रकम को बड़े भाई ने अपने छोटे भाई को दे दिया और कहा कि तेरा कारोबार कमजोर है। इसे तू ही रख ले। दूसरी घटना शेरकोट कस्बे की है। यहाँ 6 भाई थे। जिनमें से पाँच अच्छे-अच्छे सरकारी पदों पर नियुक्त थे। सबसे छोटा भाई कम पढ़-लिखा था। वह एक ब्रुश बनाने की फैक्ट्री में काम करता था। समय निकाल कर किसी आयोजन में सब भाई इकट्ठे हुए और सबने सलाह करके अपने-अपने हिस्सों की जायदाद उसके नाम कर दी। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी बड़े भाई लोभी-लालची और बे-ईमान नही होते तथा न ही सभी छोटे भाई ईमानदार होते हैं। दुनिया में सभी तरह के लोग हैं। लेकिन इतनी बात तो तय है कि ईमानदार कम हैं और बे-ईमान अधिक हैं। |
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Wednesday 17 June 2009
"बड़ा पुत्र ही बेईमानी अधिक करता है।" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मेरी रिश्ते की मौसी जी हैं। उनके चार पुत्र तथा चार पुत्रियाँ हैं।
मौसा जी के पास 40 बीघा खेती की जमीन थी और आठ बीघा का आम का बगीचा था। अपनी मृत्यु से पूर्व ही मौसा जी ने चारों पुत्रों को तथा मौसी जी अपने पास बैठाकर हिस्सा बाँट दिया था कि 8-8 बीघा जमीन सबकी है इसके अलावा 8 बीघे का बाग बोनस के रूप में मौसी जी को अलग से दिया था और बाकायदा अपनी वसीयत कर दी थी।
जब मौसा जी जीवित थे तो चारों पुत्रियों और दो पुत्रों की शादी कर चुके थे। इसके बाद वो गोलोकवासी हो गये। अपने बड़े पुत्र को सारी जिम्मेदारी सौंप गये थे।
छोटे दो पुत्र उस समय नाबालिग थे। अतः बड़े पुत्र के पास उनकी भी जमीन थी। मौसी जी भी उसके ही साथ साझे में रहतीं थीं। अतः उसके पास 32 बीघा जमीन थी और 8 बीघा का बाग भी था। जबकि बड़े मले पुत्र के पास मात्र 6 बीघा जमीन थी।
जैसे-तैसे मौसी जी तथा रिश्तेदारों ने क्वारे बचे उनके दोनों पुत्रों का भी विवाह करा दिया।
चारों भाइयों की शादी हो जाने के उपरान्त भी इसने जमीन उनको वापिस नही की अन्ततः मजबूर होकर आज वो फैक्टरियों में नौकरी कर रहे हैं। लोगो के समझाने-बुझाने पर उसने छोटे भाइयों को दस-दस हजार प्रतिवर्ष मुआवजा देना स्वीकार कर लिया है।
लेकिन आज भी वो 32 बीघा जमीन और 8 बीघा बाग पर काबिज है।
दूसरी घटना मेरे ही शहर की है। दो भाई थे। 22 बीघा जमीन दोनों के पास थी। कुछ समय बाद दोनों अलग-अलग हो गये। लेकिन छल-बल से बड़े भाई ने छोटे भाई की जमीन कम रेट पर खरीद ली।
आज छोटा भाई दर-दर का भिखारी है जबकि बड़ा भाई उस जमीन की प्लाटिंग करके बेच रहा है और वो इस समय करोड़पति बना बैठा है।
तीसरी घटना मेरे पास के गाँव की है। जहाँ बड़े भाई ने अपने छोटे भाइयों को सिंगिल कमरे का मकान बना कर दे दिया है और अपने आप एक बड़े भवन व भूमि का स्वामी बना हुआ है।
उपरोक्त घटनाओं को देख कर मैं यह कह रहा हूँ कि अक्सर बड़ा पुत्र ही बेईमान होता है।
Tuesday 16 June 2009
‘‘गुरू-शिष्य का प्रगाढ़ रिश्ता’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
एक समय वो था, जब गुरू-शिष्य के मध्य एक रिश्ता हुआ करता था। जिसमें बँधकर जहाँ शिष्य गुरू के लिए अपार श्रद्धा रखता था, वहीं गुरू भी शिष्य को ज्ञान बाँटने के लिए उद्यत रहता था। उस समय ट्यूशन प्रथा नही थी।
मुझे 1960-70 के दशक की भली-भाँति याद है।
उन दिनों जिला-बिजनौर के नजीबाबाद शहर में पानी की बहुत किल्लत हुआ करती थी। सुबह 4 बजे से ही पनघट पर कुओं से पानी भरने की होड़ सी लगी रहती थी। कई बार तो कुएँ का पानी कम हो जाने पर गँदला पानी ही भरना पड़ता था और उसे निथार-निथार कर प्रयोग में लाया जाता था।
हिन्दी, संस्कृत व संगीत के प्रकाण्ड पण्डित यमुना प्रसाद कात्यायन जी का 2-4 मेधावी विद्यार्थियों पर बड़ा स्नेह था। जब तक हम उस विद्यालय मे पढ़े हमने सदैव 4 बजे कुओं से गुरू जी के लिए नियम से पानी भरा है। यद्यपि गुरू जी हमें पानी लाने के लिए नही कहते थे, परन्तु यह मारी गुरू के प्रति श्रद्धा ही थी।
गुरू जी ने भी हमें अष्टाध्यायी व लघु सिद्धान्त कौमुदी पढ़ाने में कोई कमी नही की थी। उस समय के याद करे हुए महेश्वर के सूत्र आज भी हमें कण्टस्थ याद है।
रिश्ता तो आज भी गुरू-शिष्य में प्रगाढ़ ही लगता है। मेरे शहर खटीमा में राजकीय इण्टर कालेज में कुछ गुरूजन ऐसे सौभाग्यशाली हैं जिनके घर पर 60-70 विद्याथियों की ट्यूशन की 2-3 शिफ्ट प्रातः तथा 2-3 शिफ्ट शाम को चलती हैं।
इसके अलावा कुछ छात्र उनके दोस्त भी बने हुए हैं, जो उनके लिए बोतल लेकर आते हैं और शाम ढलते ही गुरू और चेले साथ में बैठ कर जाम छलकाते हैं।
हुआ न प्रगाढ़ रिश्ता।
Sunday 14 June 2009
‘‘तानाशाही अनुशासन और सुझाव देना अनुशासन हीनता’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
Thursday 11 June 2009
‘‘ईमानदारी आज भी जिन्दा है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
दो दिन पूर्व की बात है। मन हुआ कि आज सब्जी मण्डी से अपने मन की सब्जियाँ लाई जायें।
शाम को सात बजे के लगभग मैं सब्जी मण्डी गया। साथ में मेरा 10 वर्षीय पौत्र प्रांजल भी था। मैंने एक ही दूकान से 100रु0 की कुछ सब्जियाँ ले लीं और दुकानदार को पैसे देकर चलता बना।
मैं अपने स्कूटर के पास तक पहुँचा ही था कि सब्जीवाले का लड़का दौड़ता हुआ आया और कहने लगा- ‘‘बाबू जी! आपको मेरे पापा बुला रहे हैं।’’
मैं जब दुकानदार के पास गया तो उसने कहा- ‘‘बाबू जी! आप पाँच सौ का नोट दे गये थे। ये चार सौ रुपये आपके रह गये है।’’
हुआ यों था कि मैंने भूल से उसे 500 रु0 का नीले रंग का नोट, सौ रुपये का नोट समझ कर दे दिया था।
मैंने उसे धन्यवाद दिया।
जहाँ आज दुनिया दो-दो रुपये के लिए मारने मरने पर उतारू है, वहीं एक गरीब सब्जीवाला भी है। जो ईमानदारी की मिसाल बन गया है।
मेरे मुँह से बरबस निकल पड़ा कि ईमानदारी आज भी जिन्दा है।
Tuesday 9 June 2009
श्रद्धा-सुमन
श्री हबीब तनवीर जी
श्री ओमप्रकाश आदित्य जी
श्री नीरज पुरी जी
श्री लाड सिंह गुज्जर जी
आप सब का असमय
इस नश्वर संसार से चले जाना,
साहित्य-जगत की अपूरणीय क्षति है।
परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि
वो दिवंगत आत्माओं को
सद्-गति प्रदान करें और
परिवारीजनों को
इस दारुण-दुख को
सहन करने की शक्ति दें।
दुख की इस घड़ी में
सभी ब्लॉगर्स आपके साथ हैं।
Sunday 7 June 2009
‘‘दादी जी! प्रसाद दे दो ना’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
Saturday 6 June 2009
‘‘काश् गुस्से पर काबू रखते’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)
Wednesday 3 June 2009
‘‘क्रोधी व्यक्ति अकेला ही रह जाता है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)
कई वर्ष पुरानी बात है। मेरे एक मित्र थे। केन्द्र सरकार के महत्वपूर्ण विभाग में महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत थे। कभी-कभी उनके कार्यालय में जाना होता था, तो वो ढंग से बात नही करते थे। उनकी इस आदत से सभी परेशान थे।
Tuesday 2 June 2009
"भा0ज0पा0 की हार के कारण" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
भारतीय जनता पार्टी उत्तराखण्ड में सत्ता में रहते हुए भी लोकसभा की पाँचों सीटें क्यों हार गयी?
इसी गुणा-भाग में पार्टी के वरिष्ठ नेता लगे हुए हैं, परन्तु इसके असली कारण पार्टी दफ्तर में बैठ कर नही अपितु जनता के बीच जाकर तलाश करने होंगे।
मेरा भा0ज0पा0 से कुछ लेना देना नही है तथा नही मैं इस पार्टी का सदस्य हूँ। लेकिन एक नागरिक होने के नाते हार के कारणों की समीक्षा तो कर ही सकता हूँ।
मेरी पहचान के एक व्यक्ति हैं, जो भा0ज0पा0 कोटे से आयोग के नये-नये मेम्बर बने हैं। उन्होंने चुनाव से 5-6 दिन पहले एक बोलेरो जीप हायर की और 8-9 निठल्लों को बैठा कर प्रचार के चुनाव यात्रा पर लिए निकल पड़े। उनके पास एक बहुत बढ़िया कैमरा भी था, जिसमें वो अपनी चुनाव प्रचार यात्रा की फोटो खिंचवाते रहे।
ये सज्जन केवल वहाँ-वहाँ ही गये जहाँ कि प्रत्याशी जा रहा था। अर्थात् ये प्रत्याशी के साथ रहे और उसके साथ ही फोटों का कलेक्शन करते रहे। जब इनका मकसद पूरा हो गया तो संयोग से ये मेरे शहर में भी आये।
आयोग का पूर्व सदस्य होने के नाते ये सज्जन अपनी निठल्ली फौज को लेकर दिन में 11 बजे मेरे पास पहुँचे। सबने भोजन किया, दोपहर मे आराम किया और शाम को 5 बजे वापिस लौट गये।
जब मैंने इन सज्जन से चुनाव के बारे में चर्चा की तो वो बोले कि हमें यहाँ जानता ही कौन है? हम तो यहाँ से साढ़े तीन सौ कि.मी. दूर के रहने वाले हैं।
इन्होंने आगे कहा कि वैसे भी हमारा प्रत्याशी तो जीत ही रहा है। बस हमें तो कैण्डीडेट को अपनी शक्ल दिखानी थी। इसलिए दो-चार सभाओं में उनके साथ रहे। उनकी लोकप्रियता की सूची में अपना नाम आ गया और हो गया चुनाव प्रचार।
अब इनसे कोई पूछे कि आपने अपने क्षेत्र में जहाँ आपका प्रभाव था चुनाव प्रचार क्यों नही किया? तो इसका कोई उत्तर इनके पास नही था।
सच पूछा जाये तो बड़बोलापन भा0ज0पा0 को ले डूबा। इसके साथ ही सरकार में बैठे नेताओं ने भी पार्टी के साथ गद्दारी करने में कोई कसर नही छोड़ी और भा0ज0पा0 के ताबूत में कील ठोकते चले गये।
यही थे भा0ज0पा0 की हार के कारण।