दो दिन पूर्व की बात है। मन हुआ कि आज सब्जी मण्डी से अपने मन की सब्जियाँ लाई जायें।
शाम को सात बजे के लगभग मैं सब्जी मण्डी गया। साथ में मेरा 10 वर्षीय पौत्र प्रांजल भी था। मैंने एक ही दूकान से 100रु0 की कुछ सब्जियाँ ले लीं और दुकानदार को पैसे देकर चलता बना।
मैं अपने स्कूटर के पास तक पहुँचा ही था कि सब्जीवाले का लड़का दौड़ता हुआ आया और कहने लगा- ‘‘बाबू जी! आपको मेरे पापा बुला रहे हैं।’’
मैं जब दुकानदार के पास गया तो उसने कहा- ‘‘बाबू जी! आप पाँच सौ का नोट दे गये थे। ये चार सौ रुपये आपके रह गये है।’’
हुआ यों था कि मैंने भूल से उसे 500 रु0 का नीले रंग का नोट, सौ रुपये का नोट समझ कर दे दिया था।
मैंने उसे धन्यवाद दिया।
जहाँ आज दुनिया दो-दो रुपये के लिए मारने मरने पर उतारू है, वहीं एक गरीब सब्जीवाला भी है। जो ईमानदारी की मिसाल बन गया है।
मेरे मुँह से बरबस निकल पड़ा कि ईमानदारी आज भी जिन्दा है।
जिन्दा तो है लेकिन अब बहुत कम देखने में नजर आती है यह ईमानदारी।
ReplyDeleteप्रेरक प्रसंग। ऐसे भाव जीवित न हों तो फिर दुनियाँ चलेगी क्या?
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
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shyamalsuman@gmail.com
शास्त्री जी को मेरा प्रणाम, यह बात तो सच है कि कलयुग चल रहा है लेकिन द्वापर युग के चरण दिखने लगे हैं...
ReplyDeleteआदरणीय शास्त्री जी ,
ReplyDeleteआपका अनुभवपरक संस्मरण पढ़कर अच्छा लगा ,अपने सच लिखा है ईमानदार लोग आज भी इस धरती पर मौजूद हैं .और उन्हीं की वजह से धरती और हमारा समाज बचा हुआ है .
शुभकामनायें.
पूनम
कहते हैं उसी ईमानदारी के बल पर ही दुनिया चल रही है।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बिलकुल जी, ईमानदारी "आज भी" जिन्दा है.
ReplyDeletesahi farmaya aapne.........bas milti kahin kahin hai.
ReplyDeleteईमानदारी आज भी जिन्दा है यह बात शत प्रतिशत सही है फर्क इतना है की आज हम उनकी चर्चा कभी कभी ही करते है |
ReplyDeleteआपको bahut बहुत बधाई और धन्यवाद जो आपने इस सच्चाई को ईमानदारी के साथ सबके साथ बाता |