समर्थक

Thursday 13 December 2012

"उत्तराखंड के प्रथम मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी का निधन"


उत्तराखंड के प्रथम मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी का बुधवार को देहरादून में निधन हो गया. वे 85 वर्ष के थे.
भारतीय जनता पार्टी की उत्तराखंड इकाई के प्रमुख बिशन सिंह चुफाल ने बताया कि स्वामी का सुबह यहां एक सीएमआई अस्पताल में निधन हुआ. वे लंबे समय से बीमार थे. 

स्वामी के निधन की खबर से पूरे राज्य में शोक का माहौल है. उन्होंने बताया कि स्वामी ने अलग राज्य उत्तरांचल के गठन के लिए हुए आंदोलन की अगुवाई की थी.

स्वामी के निधन पर चुफाल के अलावा भाजपा नेता प्रकाश पंत, हरबंस कपूर और पूर्व मुख्यमंत्रियों रमेश पोखरियाल निशंक, मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) बीसी खंडूरी और बीएस कोशियारी समेत कई नेताओं ने शोक जताते हुए उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की है.

विधानसभा की कार्यवाही स्थगित
उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी के निधन के बाद राज्य विधानसभा की कार्यवाही बुधवार को दिनभर के लिए स्थगित की गई.दिवंगत नेता के सम्मान में राजकीय शोक की घोषणा की गई है.
स्थगित किए जाने से पहले राज्य विधानसभा में पूर्व मुख्यमंत्री को श्रद्धांजलि दी गई और उनकी आत्मा की शांति की कामना करते हुए पीडित परिवार को जुदा हुए सदस्य के कारण मिले सदमें को सहन करने की भगवान से प्रार्थना की गई.
मैं अपनी ओर से और चर्चा मंच परिवार की ओर से दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वे दिवंगत आत्मा को सदगति प्रदान करें। 

Thursday 15 November 2012

"के. सी. पन्त नहीं रहे" श्रद्धांजलि!

माननीय के. सी. पन्त 
अब हमारे बीच नहीं रहे!
बहुत ही दुख के साथ सूचित कर रहा हूँ कि 
महान स्वतन्त्रता सेनानी, संयुक्त प्रान्त (उ.प्र.) के प्रथम प्रधानमन्त्री औ
र भारत के पूर्व गृह मन्त्री पं.गोबिन्द बल्लभ पन्त के पुत्र 
कृष्ण चन्द्र पन्त का का 80 वर्ष की आयु में आज देहावसान हो गया है। 
ये काँग्रेस सरकार में रक्षामन्त्री, वित्तमन्त्री आदि बहुत से पदों पर सुशोभित रहे। 
बाद में ये भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गये औ
र योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे।
मैं अपनी ओर से दिवंगत आत्मा को 
भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ।

Saturday 20 October 2012

"अन्तःप्रवाह की समीक्षा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


मन के प्रवाह का संकलन है अन्तःप्रवाह
   कुछ दिनों पूर्व ख्यातिप्राप्त कवयित्री स्व. ज्ञानवती सक्सेना की पुत्री श्रीमती आशालता सक्सेना के काव्य संकलन अन्तःप्रवाह की प्रति की मुझे डाक से मिली थी। जिसको आद्योपान्त पढ़ने के उपरान्त मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अन्तःप्रवाहउनके मन के प्रवाहों का संकलन है। 
  इस संकलन की भूमिका विक्रम विश्वविद्यालय, उजैन के प्राचार्य डॉ. बालकृष्ण शर्मा ने लिखी है। यह श्रीमती आशालता सक्सेना का द्वितीय रचना संकलन है और इसमें अपनी 84 कविताओं को उन्होंने स्थान दिया है। कवयित्री ने कीर्ति प्रिंटिंग प्रैस, उज्जैन से इसको छपवाया है जिसकी प्रकाशिका वो स्वयं ही हैं। एक सौ दस पृषठों के इस संकलन का मूल्य उन्होंने 200/- मात्र रखा है। इससे पूर्व इनका एक काव्य संकलन अनकहा सच भी प्रकाशित हो चुका है।
    कवयित्री ने इस काव्यसंग्रह के अपनी ममतामयी माता सुप्रसिद्ध कवयित्री स्व. डॉ. (श्रीमती) ज्ञानवती सक्सेना किरण को समर्पित किया है। अपनी शुभकामनाएँ देते हुए शासकीय स्नातकोत्तर शिक्षा महाविद्यालय, भोपाल से अवकाशप्राप्त प्राचार्या सुश्री इन्दु हेबालकर ने लिखा है-
कवयित्री ने काव्य को सरल साहित्यिक शब्दों में अभिव्यक्त कर पुस्तक अन्तःप्रवाह को प्रभावशाली बनाया है। आपको हार्दिक आशीर्वाद। इसी प्रकार लिखती रहें और एक छोटी पतंग, रंबिरंगी न्यारी-न्यारी उड़ाती रहें।
     श्रीमती आशालता सक्सेना ने अपनी बात कहते हुए लिखा है-
मैं काफी समय से कम्प्यूटर से जुड़ी हुई हूँ अपने ब्लॉग आकांक्षा Akankshaपर अपनी रचनाएँ लगाती हूँ। अंग्रेजी भाषा में भी लेखनकार्य करती हूँ.... आस-पास की छोटी-छोटी घटनाएँ मुझे प्रभावित करती हैं। मैं एक संवेदनशील और भावुक महिला हूँ। मन में उमड़ते विचारों और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए मैंने कविता लेखन को माध्यम बनाया है...।
कवयित्री ने अन्तःप्रवाह की शीर्षक रचना को पहली कविता के रूप मे स्थान दिया है, जिसमें उन्होंने लिखा है-
..नाव जगमगाई

उर्मियों की बाहों में
फिर भी तट तक पहुँच पाया
ना खया अन्तःप्रवाह में...
      अपनी कविताओं में श्रीमती आशालता सक्सेना जी ने बरसात के बारे में लिखा है-
हरी-भरी वादी में

लगी जोर की आग
मन ने सोचा
जाने क्या होगा हाल
फिर जोर से चली हवा
उमड-घुमड़ बादल बरसा
सरसा तब संसार...
    "अन्तःप्रवाह" में कवयित्री की बहुमुखी प्रतिभा की झलक दिखाई देती है। ज़िन्दगी के बारे में वे लिखतीं हैं-
यह ज़िन्दगी की शाम

अजीब सा सोच है
कभी है होश
कभी खामोश है...
    एक ओर जहाँ इन्होंने नफरत, प्रतीक्षा, अतीत, शब्द, नीड़, अजनबी, अवसाद, बन्धन, आतंक, भटकाव, अफवाहें, अहंकार आदि विषयों को   अपनी रचना का विषय बनाया है, तो दूसरी ओर बहार, बाँसुरी, मन का सुख, बेटी, पतंग, होली, दीपावली, सपनों आदि के विभिन्न रूपों को भी उनकी रचनाओं में विस्तार मिला है। वे अपने परिवेश की सामाजिक समस्याओं पर भी अपनी लेखनी चलाई है
    बेटी के बारे में वे लिखतीं हैं-
बेटी अजन्मी सोच रही

क्यूँ उदास माँ दिखती है
जब भी कुछ जानना चाहूँ
यूँ ही टाल देती है
रह न पाई
कुलबुलाई
समय देख प्रशन दागा
क्या तुम मुझे नहीं चाहती...
   सहनशीलता के बारे में कवयित्री लिखती है-
रल नहीं सहनशील होना

इच्छा शक्ति धरा सी होना
नहीं दूर अपने कर्तव्य से...
मृगतृष्णा पर प्रकाश डालते हुए कवयित्री कहती है-
जल देख आकृष्ट हुआ
घंटों बैठ अपलक निहारा
आसपास था जल ही जल
जगी प्यास बढ़ने लगी
खारा पानी इतना
कि बूँद-बूँद जल को तरसा
गला तर न कर पाया
प्यासा था प्यासा ही रहा...
मन की ऊहापोह के बारे में कवयित्री लिखती है-
मन चाहता है
कुछ नया लिखूँ
क्या लिखूँ
कैसे लिखूँ
किसपर लिखूँ
हैं प्रश्न अनेक
पर उत्तर एक
प्रयत्न करूँ
प्रयत्न करूँ.."
अंग्रेजी की प्राध्यापिका होने के बावजूद कवयित्री ने हिन्दी भाषा के प्रति अनुराग व्यक्त करते हुए लिखा है-
 “भाषा अपनी
भोजन अपना
रहने का अंदाज अपना
भिन्न धर्म और नियम उनके
फिर भी बँधे एक सूत्र से
.....
भारत में रहते हैं
हिन्दुस्तानी कहलाते हैं
फिर भाषा पर विवाद कैसा
....
सरल-सहज
और बोधगम्यता लिए
शब्दों का प्रचुर भण्डार
हिन्दी ही तो है...
नयनाभिराम मुखपृष्ठ, स्तरीय सामग्री से सुसज्जित यह काव्य संकलन स्वागत योग्य है। आम आदमी की भाषा में लिखी गयीं सभी रचनाएँ कवयित्री ने संवेदनशीलता के मर्म में डूबकर लिखी हैं। आशा है कि आशालता जी का अन्तःप्रवाह पाठकों के मन में गहराई से अपनी पैठ बनायेगा।
इस सुबोधगम्य और पठनीय काव्यसंग्रह के लिये श्रीमती आशालता सक्सेना को मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
खटीमा (उत्तराखण्ड) पिन-262308
सम्पर्क-09368499921,
वेबसाइट-http://uchcharan.blogspot.in/

Monday 3 September 2012

“लखनऊ सम्मान समारोह के कुछ अनछुए पहलू” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

   अपनी बात पर बहिन वन्दना अवस्थी दुबे ने सम्मान समारोह-एक नज़र इधर भी......शीर्षक से बहुत उम्दा आलेख प्रकाशित किया है। विचारणीय बात यह है कि यदि उनका आलेख ब्लॉग पर न आता तो मुझे तो पता ही नहीं लगता कि मेरी बहुत पुरानी मित्र भी इस समारोह में उपस्थित थीं।

    उन्होंने बहुत सारी बाते इस आलेख में लिखीं हैं। मैं उसी के आधार पर कहना चाहता हूँ कि पहला सत्र लम्बा खिंच गया तो दूसरा सत्र तो होना ही चाहिए था, कार्यक्रम चाहे भले ही 2 घण्टा विलम्ब से समाप्त होता। मगर आयोजक ने तो पहला सत्र शुरू होने के बाद ही मुझसे यह व्यक्तिगत रूप से कहा था कि हमारा कार्यक्रम सफल हो गया। यानि अपने मुँह खुद ही अपनी प्रशंसा। यही बात कोई अन्य कहता तो मुझे बहुत अच्छा लगता।

    अब श्रीमती दुबे जी के आलेख को पढ़कर में ही सवाल उठाता हूँ कि ब्लॉगिस्तान की आदरणीया सम्मानिता बहन रशिमप्रभा जी इसमें क्यों सम्मिलित नहीं हो पाईं?

     गत वर्ष हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना सम्मान आयोजित करने वाले मुख्य आयोजक आदरणीय गिरराज शरण अग्रवाल इस सम्मेलन में क्यों नहीं आ पाये?

     आदरणीय अविनाश वाचस्पति जो स्वयं ब्लॉगिंग के एक मजबूत पुरोधा हैं, उनके साथ दिल्ली की एक पूरी टीम है। लेकिन उस टीम में से 1-2 को छोड़कर अन्य लोग क्यों नहीं आ पाये?

     परिकल्पना द्वारा जो आयोजन किया गया उसकी तो मैं भूरि-भूरि प्रशंसा करता हूँ। क्योंकि जब से इल सम्मान समारोह की घोषणा हुई थी तभी से में अपनी टिप्पणियों में यह बात कहता चला आया हूँ कि कुछ न करने से कुछ करना तो बहुत बेहतर है।

    बहुत से लोगों ने यह आवाज भी उठाई थी कि वोटिंग प्रक्रिया को सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया? उनकी बात सही भी थी। क्योंकि वोटिंग के बाद यह कार्यक्रम व्यकितगत कहाँ रहा? वह तो सार्वजनिक ही माना जाना चाहिए था।

    बहुत से लोगों ने तो इस सम्मेलन पर होने वाले व्यय पर प्रश्नचिह्न उठाये हैं कि इस सम्मेलन में व्यय करने के लिए पैसा किन श्रोतों से आया? लेकिन मैं इस बिन्दु को खारिज करता हूँ। मेरे विचार से यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि कार्यक्रम करना महत्व रखता था।

    इसके अलावा बहुत से ऐसे भी ब्लॉगर इस सम्मेलन में पधारे थे जो कि ब्लॉगिस्तान में बिल्कुल नये थे। उनके प्रोत्साहन के लिए क्या नये कदम इस सम्मेलन में उठाये गये?

    इस पर मैं अपनी बेबाक राय रखना चाहूँगा कि आ.अविनाश वाचस्पति ब्लॉग की उन्नति के लिए इस समय सबसे क्रियाशील हैं। नौ जनवरी 2011 को वे अपनी टीम के साथ खटीमा ब्लॉगर सम्मेलन में पधारे थे। उस समय मुझे उनकी लगन व क्रियाशीलता का परिचय मिला था कि उन्होंने अपनी टीम के साथ बहुत से लोगों के ब्लॉग बनवाये और उन्हें बलॉगिंग के गुर सिखाये थे।

    उसके बाद 30 अप्रैल 2011 को मुझे आदर्शनगर दिल्ली की एक ब्लॉगर मीट में जाने का सौभाग्य मिला। उसमें तो इन्होंने बाकायदा ब्लॉगिंग की कार्यशाला का आयोजन किया था और बहुत से लोगों को ब्लॉगिंग की ओर उन्मुख किया था। मगर इस प्रकार का कोई उपक्रम लखनऊ के इस सम्मेलन में मुझे देखने को नहीं मिला। जबकि इसमें श्री बी.एस.पाबला, आ.रवि रतलामी और यमुना नगर के ई-पण्डित जैसे ब्लॉग तकनीकी विशेषज्ञ भी पधारे थे।

     जहाँ तक मेरी अपनी बात है तो मैंने अपनी तीन-चार साल की ब्लॉगिंग में 50 से अधिक लोगों के ब्लॉग बनाये हैं और मेरे साथ इस सम्मेलन में तीन नये ब्लॉगर भी पधारे थे। जिनको यहाँ आकर निराशा ही हाथ लगी थी।

अब मैं कुछ बातें और लिखकर इस आलेख का समापन करना चाहूँगा।

सम्मानिता वन्दना जी!
    आपने जिन बातों का उल्लेख आपने आलेख में किया वो सब सही हैं। किन्तु 100 से अधिक ब्लॉगर क्या बढ़िया खाना खाने के लिए ही दूर-दराज से अपना धन और अमूल्य समय नष्ट करने के लिए आये थे?
    क्या कोई रिकार्ड आयोजकों के पास है कि कौन-कौन लोग इसमें आये थे? कम से कम एक रजिस्टर ही प्रेक्षाग्रह में कार्यक्रम स्थल पर रखना ही चाहिए था। जिससे पता लगता कि सम्मानित होने वाले कौन-कौन ब्लॉगर इसमें हाजिर हुए और कौन-कौन नहीं आ पाये तथा ऐसे कौन से आगन्तुक थे जो इस सम्मेलन में रुचि लेने के लिए पधारे थे?

    क्या ब्लॉग पर लगी सम्मानित होने वाले लोगों की सूचना के अतिरिक्त इनके पास कोई रिकार्ड है जिससे कि यह पता लग पाये कि सम्मानित होने वाले कौन-कौन ब्लॉगर इसमें हाजिर हुए और कौन नहीं ग़ैरहाजिर रहे?
    कुछ लोग तो 26 अगस्त की शाम को ही लखनऊ आ गये थे और वे अपने खर्चे पर 300 से 1000 रुपये व्यय करके विभिन्न स्थानों पर रुके थे। यदि आयोजक 200 या 300 रुपये तक का प्रतिनिधि शुल्क लेकर इनकी व्यवस्था किसी धर्मशाला में करा देते तो ये अपनी अनौपचारिक गोष्ठी ही कर लेते। मेरे विचार से सभी ब्लॉगर सहमत थे। मगर ऐसा नहीं हुआ और सम्मेलन वाकई में कम से कम मेरे लिए तो यादगार बन ही गया।
     अन्त में सबसे बड़ा बिन्दु तो यह है कि दूर-दराज से आने वाले ब्लॉगरों का परिचय तक सम्मेलन में नहीं कराया गया। जिससे कई ब्लॉगर तो उन लोगों का नाम तक नहीं जान पाये, जिनसे वो भेंट करना चाहते थे।

Sunday 29 July 2012

“नन्हे सुमन” की भूमिका" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

आज 29 जुलाई को
उड़नतश्तरी वाले समीर लाल जी का जन्म दिन है।
इस अवसर पर मैं उनको
हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाइयाँ प्रेषित करता हूँ!
लगभग 2 वर्ष पूर्व उन्होंने मेरी बालकृति
नन्हे सुमन” की भूमिका लिखी थी!
एक अद्भुत संसार - नन्हें सुमन
            आज की इस भागती दौड़ती दुनिया में जब हर व्यक्ति अपने आप में मशगूल है। वह स्पर्धा के इस दौर में मात्र वही करना चाहता है जो उसे मुख्य धारा में आगे ले जायेऐसे वक्त में दुनिया भर के बच्चों के लिए मुख्य धारा से इतर कुछ स्रजन करना श्री रुपचन्द्र शास्त्रीमयंक’ जैसे सहृदय कवियों को एक अलग पहचान देता है।
          ‘मयंक’ जी ने बच्चों के लिए रचित बाल रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ उनके ज्ञानवर्धन एवं मनोरंजन का बीड़ा उठाया है बल्कि उन्हें एक बेहतर एवं सफल जीवन के रहस्य और संदेश देकर एक जागरूक नागरिक बनाने का भी बखूबी प्रयास किया है।
          पुस्तक नन्हें सुमन’ अपने शीर्षक में ही सब कुछ कह जाती है कि यह नन्हें-मुन्नों के लिए रचित काव्य है। परन्तु जब इसकी रचनायें पढ़ी तो मैंने स्वयं भी उनका भरपूर आनन्द उठाया। बच्चों के लिए लिखी कविता के माध्यम से उन्होंने बड़ों को भी सीख दी है!
डस्टर’ बहुत कष्ट देता है’’ कविता का यह अंश बच्चों की कोमल पीड़ा को स्पष्ट परिलक्षित करता है-

‘‘कोई तो उनसे यह पूछे,
क्या डस्टर का काम यही है?
कोमल हाथों पर चटकाना,
क्या इसका अपमान नही है?’’

नन्हें सुमन’ में छपी हर रचना अपने आप में सम्पूर्ण है और उनसे गुजरना एक सुखद अनुभव है। उनमें एक जागरूकता हैज्ञान हैसंदेश है और साथ ही साथ एक अनुभवी कवि की सकारात्मक सोच है।
          आराध्य माँ वीणापाणि की आराधना करते हुए कवि लिखता है-

‘‘तार वीणा के सुनाओ कर रहे हम कामना।
माँ करो स्वीकार नन्हे सुमन की आराधना।।
इस धरा पर ज्ञान की गंगा बहाओ,
तम मिटाकर सत्य के पथ को दिखाओ,
लक्ष्य में बाधक बना अज्ञान का जंगल घना।
माँ करो स्वीकार नन्हे सुमन की आराधना।।’’

          मेरे दृष्टिकोण से तो यह एक संपूर्ण पुस्तक है जो बाल साहित्य के क्षेत्र में एक नया प्रतिमान स्थापित करेगी। मुझे लगता है कि इसे न सिर्फ बच्चों को बल्कि बड़ों को भी पढ़ना चाहिये।
          मेरा दावा है कि आप एक अद्भुत संसार सिमटा पायेंगे नन्हें सुमन’ मेंबच्चों के लिए और उनके पालकों के लिए भी!
          कवि ‘‘मयंक’’ को इस श्रेष्ठ कार्य के लिए मेरा साधुवादनमन एवं शुभकामनाएँ!

-समीर लाल समीर
http://udantashtari.blogspot.com/
36, Greenhalf Drive
Ajax, ON
Canada

Thursday 31 May 2012

"रपट-रविकर जी के सम्मान में गोष्ठी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

"रविकर" जी के सम्मान में कविगोष्ठी!
      !!खटीमा (उत्तराखण्ड) 31 मई, 2012!! साहित्य शारदा मंच, खटीमा की ओर से धनबाद से पधारे रविकर फैजाबादी के सम्मान में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया।
       इस अवसर पर साहित्य शारदा मंच खटीमा के अध्यक्ष डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" ने इन्हें अपनी 4 पुस्तकें भेट की और मंच के सर्वोच्च सम्मान "साहित्यश्री" से अलंकृत किया।
      ब्लॉगिस्तान में इनकी सक्रियता को देखते हुए "ब्लॉगश्री" के सम्मान से भी सम्मानित किया गया। 
         गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ नागरिक समिति के अध्यक्ष 
सतपाल बत्तरा ने की तथा गोष्ठी का सफल संचालन पीलीभीत से पधारे लब्धप्रतिष्ठित कवि देवदत्त "प्रसून" ने किया।

         इस अवसर पर माँ सरस्वती की वन्दना डॉ. मयंक ने प्रस्तुत करते हुए गोष्ठी का शुभारम्भ किया।
         इसके बाद वयोवृद्ध रूमानी शायर गुरुसहाय भटनागर ने अपनी ग़ज़ल प्रस्तुत की-
"प्यार से मिलके रह लें गाँव-शहर में-
देश में हमको ऐसा अमन चाहिए।"
          स्थानीय थारू राजकीय इण्टर कॉलेज में हिन्दी के प्रवक्ता डॉ.गंगाधर राय ने अपनी एक सशक्त रचना का पाठ किया-
"हे राम अब आओ 
पंथ दिखलाओ!
राक्षसी वृत्तियाँ बढ़ रहीं हैं।
मर्यादाएँ टूट रही हैं...."
          गोष्ठी के संचालक देवदत्त प्रसून ने इस अवसर पर काव्य पाठ करते हुए कहा-
"आपस के व्यवहार टूटते देखें हैं।
नाते-रिश्तेदार टूटते देखें हैं।।
हाँ पैसों के लोभ के निठुर दबाओं से-
कसमें खाकर यार टूटते देखें हैं।।"
           हेमवतीनन्दन राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, खटीमा के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. सिद्धेश्वर सिंह ने इस अवसर पर गंगादशहरा पर अपनी कविता का पाठ किया-

स्कूटर पर सवार होकर 
घर आई मिठास
बेरंग - बदरंग समय में
आँखों को भाया 
भुला दिया गया सुर्ख रंग
यह तरबूज है सचमुच
या कि घर में 
आज के दिन हुआ है गंगावतरण।"

      हास्य-व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर गेंदालाल शर्मा "निर्जन" ने अपने काव्य पाठ से गोष्ठी में समा बाँध दिया।
       गोष्ठी के मुख्यअतिथि दिनेश चन्द्र गुप्त "रविकर" ने अपने काव्य पाठ में कहा-
"तिलचट्टों ने तेलकुओं पर, 
अपनी कुत्सित नजर गड़ाई।
रक्तकोष की पहरेदारी,
नरपिशाच के जिम्मे आई।"
         इस अवसर पर "रविकर" जी ने अपने वक्तव्य में कहा-
"मेरा किसी गोष्ठी में भाग लेने का यह पहला अवसर है और पहली बार ही मुझे सम्मान मिला है। इसके लिए मैं साहित्य शारदा मंच के अध्यक्ष डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।"

Friday 18 May 2012

समीक्षा-“मिटने वाली रात नहीं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

     लगभग दो माह पूर्व मुझे आनन्द विश्वास जी ने अपना काव्य संग्रह भेजा। लेकिन अपनी दिनचर्चा में बहुत ज्यादा व्यस्त होने के कारण मैं इस कृति के बारे में अपने विचार प्रकट न कर सका।
    अब मैंने इस काव्य संकलन को आद्योपान्त पढ़ लिया है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि कवि आनन्द विश्वास द्वारा रचित काव्य संकलन मिटने वाली रात नहीं उनकी रचनाओं का एक नायाब गुलदस्ता है। जिसे डायमण्ड पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है। जिसमें 112 पृष्ठों में इक्यावन कविताएँ है और इस पेपरबैक संस्करण का मूल्य मात्र 100 रु. है।
    कवि ने इस कृति के शीर्षक को अपने शब्दों में बाँधते हुए लिखा है-
दीपक की है क्या बिसात,
सूरज के वश की बात नहीं।
चलते-चलते थके सूर्य,
पर मिटने वाली रात नहीं।
      यों तो संग्रह में बहुत सी रचनाएं हैं और सब एक से बढ़कर एक हैं लेकिन एक स्थान पर अपने लक्ष्य की इच्छाओं के बारे में कवि लिखता है-
तमन्ना-ए-मंजिल कहाँ तक चलूँ,
उम्र भर तो चला और कितना चलूँ।
डगमगाते कदम कब्र तक तो चलो,
एक पल को जहाँ मैं ठहर तो चलूँ।
    कवि की कल्पना की उड़ान कहाँ तक जा सकती है इसकी बानगी आप उन्हीं के अन्दाज़ में देखिए-
गोबर,
तुम केवल गोबर हो,
या सारे जग की, सकल धरोहर हो।
तुमसे हो निर्मित, जन-जन का जीवन,
तुमसे ही निर्मित, अन्न फसल का हर कन।
      बहुधा पाया जाता है कि जो यायावर प्रकृति का न हो वो कवि ही कहाँ है, आनन्द विश्वास जी की यह झलक उनकी इस रचना में देखने को मिलती है-
चलो कहीं घूमा जाए
थोड़ा मन हल्का हो जाए
     जीवन में यदि प्रेम न हो तो जीवन का अस्तित्व ही क्या है। कवि ने भी इस पर अपनी कलम चलाते हुए लिखा है-
दीप लौ उबार लो, शीत की बयार से।
जीवन सँवार लो प्रीत की फुहार से।।
    इसी भाव को दृष्टिगत रखते हुए कवि आगे लिखता है-
सूरज उगे या शाम ढले,
मेरे पाँव सजनवा के गाँव चले।
    ग्रामीण जीवन में सर्दी के मौसम का चित्रांकन करते हुए कवि कहता है-
चलो बैठ जाएँ अपनी रजइया में,
आग थोड़ी धर लो कढ़इया में।
     प्रस्तुत काव्य संग्रह में कवि ने विविध विषयों की रचनाएँ समाहित की हैं। उनकी जन-जागरण करती हुई इस रचना को ही लीजिए-
जागो भइया अभी समय है
वर्ना तुम भी जी न सकोगे।
गंगा का पानी दूषित है
गंगाजल तुम पी न सकोगे।
     त्यौहार जीवन में नया उत्साह और नया विश्वास जगाते हैं-
जलाओ दीप जी भरकर,
दिवाली आज आई है।
नया उत्साह लाई है,
नया विश्वास लाई है।
    हर एक व्यक्ति का सपना होता है कि उसका अपना एक घर हो! जिसकी छत के नीचे वह चैन और सुकून महसूस कर सके। कवि ने इसी पर प्रकाश डालते हुए कहा है-
अपना घर अपना होता है,
ये जीवन का सपना होता है।
    कवि का दृष्टिकोण सन्देश और सीख के बिना अधूरा सा प्रतीत होता है लेकिन मुझे इस काव्य संग्रह में इसका अभाव किसी भी रचना में नहीं खला है-
अगर सीखना चाहो तो,
हर चीज तुम्हें शिक्षा देगी।
शर्त यही है कुछ पाने की,
जब तुममें इच्छा होगी।
     कुल मिला कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इस काव्य संग्रह के रचयिता ने मिटने वाली रात नहींमें अपने कविधर्म को बाखूबी निभाया है। नयनाभिराम मुखपृष्ठ, स्तरीय सामग्री तथा निर्दोष मुद्रण सभी दृष्टियों से यह स्वागत योग्य है। मुझे विश्वास है कि आनन्द विश्वास जी इसी प्रकार अधिकाधिक एवं उत्तमोत्तम ग्रंथों की रचना कर हिंदी की सेवा में अग्रणी बनेंगे।
सुंदर सजीव चित्रात्मक भाषा वाली ये रचनाएँ संवेदनशीलता के मर्म में डुबोकर लिखी गई हैं। आशा है कहीं न कहीं ये हर पाठक को गहराई से छुएँगी।

    इस सुंदर संग्रह के लिये आनन्द विश्वास जी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।

Friday 30 March 2012

"कर्मनाशा-मर्मस्पर्शी रचनाओं का संकलन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मर्मस्पर्शी रचनाओं का संकलन है
कर्मनाशा
    लगभग दो माह पूर्व डॉ. सिद्धेश्वर सिंह द्वारा रचित मुझे एक कविता संग्रह मिला जिसका नाम था कर्मनाशा। साठ रचनाओं से सुसज्जित 128 पृष्ठों की इस पुस्तक को अन्तिका प्रकाशन, गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। जिसका मूल्य रु.225/- रखा गया है। जनसाधारण की सोच से परे इसका आवरण चित्र रवीन्द्र व्यास ने तैयार किया है।
       इस कविता संग्रह को आत्मसात् करते हुए मैंने महसूस किया है कि इसके रचयिता डॉ. सिद्धेश्वर सिंह स्वयं में एक कविताकोष हैं। चाहे उनकी लेखनी से रचना निकले या मुँह से बात निकले वह अपने आप में कविता से कम नहीं होती है।
       रचनाधर्मी ने निज़ार कब्बानी की कविता के अनुवाद के रूप में अपनी इच्छा प्रकट करते हुए लिखा है-
तुम्हारी आँखों में
मैं जगमग करूँगा आने वाले वक्त को
स्थिर कर दूँगा समय की आवाजाही
और काल के असमाप्य चित्रपट से
पोंछ दूँगा उस लकीर को
जिससे विलय होता है यह क्षण
       और निकाल ही लिया उस पगदण्डी को जिसे बीच का रास्ता कहा जाता है-
नहीं थी
कहीं थी ही नहीं बीच की राह
खोजता रहा
होता रहा तबाह.....
       आज जमाना इण्टरनेट का है और उसमें एक साइट है फेसबुक! जिसके बारे में कवि ने प्रकाश डाला है कुछ इस प्रकार से-
की-बोर्ड की काया पर
अनवरत-अहर्निश
टिक-टिक टुक-टुक

खुलती सी है इक दुनिया
कुछ दौड़-भाग
कुछ थम-थम रुक-रुक....
        हर वर्ष नया साल आता है लोग नये साल में बहुत सी कामनाएँ करते हैं मगर रचनाधर्मी ने इसे बेसुरा संगीत का नाम देते हुए लिखा है-
देखो तो
शुरू हो गया और एक नया साल
नये-नये तरीके और औजार हैं
सहज उपलब्ध
जिन पर सवार होकर
यात्रा कर रहीं हैं शुभकामनाएँ
और उड़े जा रहे हैं संदेश.....
......   ......    .......
ग़ज़ब नक्काशी उभर आयी है हर ओर
......   ......    .......
और रात्रि की नीरवता में
भरता जा रहा है
एक बेसुरा संगीत
         कर्मनाशा के बारे में भी कवि ने पाठकों को जानकारी दी है कि आखिर कर्मनाशा क्या है?....
फूली हुई सरसों के
खेतों के ठीक बीच से
सकुचाकर निकलती है एक पतली धारा।
......   ......    .......
भला बताओ
फूली हुई सरसों
और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में
कोई भी नदी
आखिर कैसे हो सकती है अपवित्र
           पुस्तक के रचयिता ने अपने इस संग्रह में पर्यायवाची, कस्बे में कविगोष्ठी, अंकुरण, वेलेण्टाइन-डे, बालदिवस, लैपट़ाप, तलाश, सितारे, प्रतीक्षा, घृणा, तिलिस्म, हथेलियाँ, टोपियाँ आदि विविध विषयों पर भी अपनी सहज बात कविता में कही है।
           अन्त में इतना ही कहूँगा कि इस पुस्तक के रचयिता डॉ. सिद्धेश्वर सिंह बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और खटीमा के राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। लेकिन वे अंग्रेजी पर भी हिन्दी के समान ही अधिकार रखते हैं। इसीलिए उनको अनुवाद में खासी दिलचस्पी है। कुल मिलाकर यही कहूँगा कि उनकी कर्मनाशा एक पठनीय और संग्रहणीय काव्य पुस्तिका है।