बहुत समय पुरानी बात है। दो ब्राह्मणपुत्र काशी से विद्याध्ययन करके लौट रहे थे। दोनों ही बड़े घमण्डी स्वभाव के थे। प्रशंसा करना तो वह जानते ही नही थे। सदैव दूसरों की बुराई करना और उनके अवगुणों को गिनाना ही उनका कार्य था। यहाँ तक कि वे दोनों परस्पर मित्र होते हुए भी पीठ पीछे एक दूसरे की बुराई करने से बाज नही आते थे।
काशी से लौटते हुए रास्तें में उन्हें शाम हो गयी। उन्होंने सोचा कि रात में किसी बाह्मण के घर रात्रि विश्राम कर लिया जाये। अतः वे एक गाँव में किसी ब्राह्मण के यहाँ रुक गये। रात्रि को विश्राम किया।
अगले दिन प्रातःकाल जब उनमें से एक व्यक्ति स्नान को गया तो मेजबान पण्डित जी ने उसकी विद्या के बारे में पूछा। काशी से लौटे ब्राह्मणपुत्र ने अपने गुणों का बखान करना प्रारम्भ कर दिया।
जब मेजबान ने उससे उसके दूसरे साथी के बारे में पूछा तो उसने कहा-
‘‘वह तो निरा गधा है।’’
अब दूसरा ब्राह्मणपुत्र स्नान के लिए गया तो मेजबान पण्डित जी ने उससे भी वही प्रश्न किये। इसनें भी अपनी खूब प्रशंसा की और जब उससे दूसरे साथी के बारे में पूछा गया तो
इसने कहा कि- ‘‘वह तो निरा बैल है।’’
जब इन दोनों ब्राह्मणपुत्रों ने पूजा-पाठ कर लिया तो नाश्ते में मेजबान ने दो थालियाँ सजा कर उनके सामने लगा दी और कहा कि प्रातःरास कर लीजिए।
दोनों ब्राह्मणपुत्र नाश्ते में थालियों में परोसा गया व्यंजन देख कर दंग रह गये। क्योंकि एक थाली में घास थी और दूसरी में भूसा था।
उन्होंने मेजबान पण्डित जी से जब इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया कि भाई तुम लोगों ने ही तो एक दूसरे को गधा और बैल बताया था। इसलिए गधे के लिए हरी घास और बैल के लिए भूसा परोसा गया है।
इस पर दोनों ब्राह्मण पुत्र काफी लज्जित हुए। उन्होंने मेजबान पण्डित जी क्षमा माँगी।
उनको नसीहत मिल चुकी थी।
इसके बाद उन्होंने ने किसी की भी बुराई न करने का प्रण कर लिया।
वाहवा.. बेहतरीन दृष्टांत की प्रस्तुति के लिये साधुवाद स्वीकारें..
ReplyDeletewaah.........bahut badhiya.
ReplyDeleteजो बुराई न करने की आदत
ReplyDeleteडाल लेता है,
वह हमेशा मज़े में रहता है
और
जो बुराई करने का मज़ा लेते हैं,
उन्हें ऐसे ही
लज्जित होना पड़ता है!
प्रेरणादायक...सीख देती. किसी की निन्दा करना तो खराब है ही.
ReplyDelete