शारदा नदी की उपत्यिका में, साल के घने और गगनचुम्बी वृक्षों और नेपाल सीमा पर बसा बनबसा, नैनीताल जिले का एक बहुत ही सुन्दर गाँव है। यहाँ अद्भुत सुन्दरता लिए, एक बहुत बड़ा बैराज है। जिसको शारदा हेड-वक्र्स के नाम से जाना जाता है। बस इसके पार करते ही नेपाल देश की सीमा शुरू हो जाती है। बात सन् 1977 की है। मेरा मन तराई की इस घाटी में इतना रम गया कि मैंने साल के जंगल के किनारे अपना मकान यहीं पर बना लिया और अपने परिवार के साथ यहाँ रहने लगा। एक दिन शाम के समय एक तोते का बच्चा जिसके पर अभी अर्द्ध विकसित ही थे, मेरे घर के आँगन में पड़ा फड़फड़ा रहा था। मैंने उसे उठाया पानी पिलाया तो वो कुछ होश में आता दिखाई दिया। मैं घर के सामने फुटपाथ के किनारे बैठे लोहार रमेशराम से तुरन्त एक पिंजड़ा बनवा कर लाया और तोते का नया आशियाना तैयार हो गया। अब यह तोते का बच्चा बड़ा होने लगा। एक दिन इसके मुँह से एक स्वर निकला- ‘‘मम्मी जी!’’ मेरा पुत्र नीटू अपनी माता को मम्मी जी! कहता था। बस तोते ने यह शब्द रट लिया। कुछ दिनों बाद तोते ने सुबह-सुबह आवाज लगाई- ‘‘नीटू उठो! स्कूल जाओ!’’ अब तो हम सबको बड़ी हैरानी हुई कि तोता इतना साफ कैसे बोल लेता है? क्यों कि हम लोग रोजाना सुबह अपने बेटे को सोते हुए देख कर कहते थे- ‘‘नीटू उठो! स्कूल जाओ!’’ अब तोते का प्रति दिन का काम यही हो गया था- ‘‘मम्मी जी!’’ ‘‘नीटू उठो! स्कूल जाओ!’ तोता अब जवान हो चला था। यह पहाड़ी नस्ल का था। इसका बहुत बड़ा सिर था, लाल खोपड़ी थी। हरे पंखो के बीच में भी लाल पर भी थे। एक दिन रात में चोरों ने मेरे घर के पीछे की दीवार काट ली और कमरे में आने लगे होंगे। कमरे के दरवाजे में तोते का पिंजड़ा टँगा हुआ था। किसी चोर के सिर में तोते का यह पिंजड़ा टकराया होगा। अब तो हमारे मिटठू भैया ने जोर से आवाज लगाई- ‘‘मम्मी जी!’’ उसकी आवाज सुन कर हम लोग जाग गये। हमने सोचा कि बिल्ली होगी तभी तोते ने आवाज लगाई है। इधर चोरों को हमारी आहट का आभास हुआ और वो ‘‘नौ दो ग्यारह’’ हो गये। जब हमने बाहर निकल कर देखा तो घर की दीवार कटी हुई थी और तोते का पिंजड़ा भी नदारत था। सुबह होने पर जब तोते को तलाशा गया तो उसका पिंजड़ा साल के जंगल में पड़ा मिला। पास ही उसके कुछ पर भी पड़े थे। यह तोता हमारे परिवार का आवश्यक अंग बन चुका था या यूँ कहे कि यह हमारा एक परिवारी सदस्य ही था तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। तोतें के गम में उस दिन घर में खाना भी नही बना। किसी को भूख ही नही थी। स्वामी-भक्त तोते ने अपना बलिदान देकर हमारे घर में होने वाली एक चोरी को नाकाम कर दिया था। इस घटना को 32 वर्ष हो गये हैं परन्तु, मिट्ठू भैया! आज भी हमें बहुत याद आते हैं।
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Sunday, 3 May 2009
‘‘तोते का बलिदान’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बहुत सुंदर। एक मिट्ठू भैया हमारे मामा के घर में भी हैं। बिना पिंज़ड़े के रहते हैं और यहां वहां घूमते रहते हैं।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर,
ReplyDeleteधन्यवाद........
अन्दर तो छोडिये साब ...छत पर लेट कर भी कोई समाधान नही खोज पता । इसे जड़ता नही कहा जाए तो और क्या ?हालत तो ऐसी है की जब अपनी ही पीडाओं का पता नही तो दूसरों ......!
अभी भी रोटी के संघर्ष को नही जान पाया । कैसे माफ़ किया जाय मुझे ......
घर और मुल्क की गरीबी का कोई प्रभाव नही पड़ा । कैसे माफ़ किया जाय मुझे ......
SHASTRI JI
ReplyDeleteLAGHU-KATHA
ACHHI LAGI.
BADHAI
aaj us tote ka jikra apne blog par karke aapne uski swamibhakti ko sachchi shraddhanjali di hai.
ReplyDeleteबहुत सुंदर,
ReplyDeleteलघुकथा अच्छी लगी।
शास्त्री जी।
ReplyDeleteसुन्दर लघुकथा।
सुन्दर ब्लॉग।
बधाई।
SHASTRI JI.
ReplyDeleteIT'S VERY GOOD STORY.
मिट्ठू भैया! बहुत याद आते हैं।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लघुकथा.
badhiya sansmaran...ek tote ne choron ko kar diya no-do gyarah!
ReplyDeleteसुन्दर कथा..............मिट्ठू मियाँ के क्या कहने
ReplyDeleteWaah ati sunadr..
ReplyDeleteMan bhar gayaa...
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteRespected Mayankji
ReplyDeletethanks for your kind appreciation of my poem "tumhari deh" on iyatta.blogspot.com .through the same blog ,I came to know about your blog. This is my first visit in which I can say that I liked your blog.
hari shanker rarhi.
bhut hi sundar katha
ReplyDeletebadhai
ऐसे मिट्ठू भैया को हमारा सादर प्रणाम......राम-राम...!!
ReplyDeleteआदरणीय शास्त्री जी ,
ReplyDeleteआपकी लघु कथा पढ़कर मुझे अपने मिट्ठू ,टुइयां ..शेरू ,मोती टाइगर ...सब याद आ गए. मैंने भी कई तोते ,कुत्ते ...बचपन में पाले थे .
लेकिन अपने सबसे प्रिय कुत्ते "भूरे" को haidrofobiya हो जाने के बाद फिर
और जानवर पालने की हिम्मत नहीं पडी ....इनके चले जाने के बाद बहुत दुःख होता है .
हेमंत कुमार
बहुत खूब .. हम भी एक मिट्ठू मियां को बहुत याद करते हैं..
ReplyDeleteमैं तो प्रसन्नतापूर्वक पढ़ता चला जा रहा था!
ReplyDeleteइतनी सुंदर और रोचक कहानी में
इतना दुखद मोड़ आएगा,
मैंने कल्पना तक नहीं की थी!
अभी भी अपनी आँखों पर
विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ!
जब मेरी पत्नी 10-12 साल के आसपास थीं,
ReplyDeleteतो उन्हें भी इसी प्रकार घायल अवस्था में
एक तोते का पट्ठा मिला था! उन्होंने भी उसे पाल लिया था!
पच्चीस साल से ज़्यादा
परिवार के सदस्य की तरह रहा!
पिछले साल अचानक उसने प्राण त्याग दिए!
ख़बर आते ही ये फूट-फूट कर रोने लगीं!
इनके लिए वह सगे भाई से कम नहीं था!
उस दिन इन्होंने खाना तक नहीं खाया
और उसके किस्से सुनाते-सुनाते सो गईं!
सब बात ठीक, पर बोलने के मामले में
उल्लू का पट्ठा था!