“मानसिक दासता” 1- ईस्वी नव वर्ष को हम बड़े ही उत्साह से मनाते हैं परन्तु हमें याद नहीं कि विक्रमी सम्वत कौन सा है, कौन सा मास चल रहा है और हमारा नव-वर्ष कब होता है? 2- बालक के जन्म-दिन पर केक न काटा जाये तो जन्मदिन अधूरा माना जाता है। प्रश्न- ऐसा क्यों? उत्तर- अंग्रेज ऐसा करते हैं। अरे इनके पास तो केक, पेस्ट्री और टॉफी के सिवा कोई मिष्ठान है ही नही। जबकि हमारे पास तो लड्डू, बरफी, गुलाबजामुन, रसगुल्ला आदि अनेक मिठाइयाँ हैं। जन्मदिन उनसे क्यों नही मनाया जा सकता है! 3- जन्मदिन पर मोमबत्ती बुझाने का रिवाज चल पड़ा है। जबकि जन्मदिन तो प्रसन्नता का विषय है।जब हम रामनवमी. कृष्णजन्माष्टमी मनाते हैं, गुरूनानकदेव का जन्मदिन मनाते हैं तो मन्दिरों-गुरूद्वारों में दीपमाला सजाते हैं, विद्युत प्रकाश करते हैं, मोमबत्तियाँ जलाते हैं। यदि लाइट चली जाये तो विद्युत विभाग को कोसते हैं। क्योंकि प्रसन्नता के वातावरण में अंधेरा शोक का सूचक माना जाता है। फिर अपने बालक के जन्मदिवस पर मोमबत्ती बुझाकर अन्धेरा क्यो करते हैं? उस दिन तो हवन-यज्ञ करना चाहिए और हवन की अग्नि से पूरे घर को प्रकाशित और सुवासित करना चाहिए। 4- हम अपने देश की वेश-भूषा को भी भुला बैठे हैं। धोती-पाजामा पहनने में हीन भावना से ग्रसित होते हैं और पैण्ट पहन कर अपने को उच्चस्तरीय नागरिक समझते हैं। यह भावना अपने मन में पालना हमारी मानसिक गुलामी नही तो क्या है? लंदन में जॉर्ज पंचम के दरबार में सरकारी पोशाक पहन कर ही उनसे मिलने का नियम था। परन्तु महात्मा गांधी और मदनमोहन मालवीय ने इस पोशाक को पहन कर उनसे मिलने से मना कर दिया था। जब जॉर्ज पंचम को इस बात का पता चला तो उन्होंने कहा कि ये जिस वेश-भूषा को पहन कर उनसे मिलने के लिए आना चाहें इन्हे मुझसे मिलने के लिए आने दिया जाये! तब गांधी जी और मालवीय जी इनसे भारतीय वेश-भूषा धोती-कुर्ता पहिन कर ही मिले थे! यबकि उस समय हमार देश अंग्रेजों के पराधीन था! आज आजाद होते हुए भी हम मानसिक गुलाम नहीं तो और क्या है? 5- कुछ समय पहले भारतीय रसोई में जमीन पर बैठकर आसन बिछाकर भोजन करते थे! इसका लाभ यह था कि रसोई में प्रवेश से पूर्व जूता उतारना पड़ता था! जूता न जाने कहाँ-कहाँ जाता है? इसमें गन्दगी भी लग जाती है और रोग के कीटाणु आने की पूरी संभावना रहती है। आपने देखा होगा कि डॉक्टर लोग ऑपरेशन करने के लिए जूता उतारकर और दस्ताने पहन कर ही ऑपरेशन करते हैं। परन्तु हम तो आधुनिकता के मोह में रोगों को स्वयं ही निमन्त्रण देते हैं! 6- पेण्ट पहनना स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है। क्योंकि खडे होकर लघुशंका करने से बीमारी तीव्र गति से हम पर हमला करती है! 7- टाई पहनना भी हमारी मानसिक गुलामी का ही प्रतीक है। अंग्रेज तो इसे ईसूमसीह के क्रॉस के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करते हैं। लेकिन हम यज्ञोपवीत के तीन तार के महत्व को भूल बैठे हैं! इसीलिए माता-पिता और आचार्य का सम्मान भूल बैठे हैं! 7- हमने अपनी मातृभाषा को भी भुला दिया है। हम अंग्रेजी में बात करने में अपने को सभ्य मानने लगे हैं। इसी लिए हम भारतीयों की न तो अंग्रेजी ही अच्ची है और नही हिन्दी ही! विदेशी भाषा सीखने में कोई हानि नही है लेकिन परन्तु हमें अपनी मातृभाषा भी आनी चाहिए और उसको प्रयोग करने में अपने को गर्व का अनुभव करना चाहिए! 8- यह देखने में आया है कि अंग्रेजी भाषा में पर्याप्त शब्दावली भी नही है। यदि किसी के घर में मृत्यु हो जाये तो तो अभिवादन के लिए अंग्रेजी में गुडमार्निंग ही कहना पड़ेगा ना! जरा विचार करके देखिए कि उस समय लोग क्या सोचेंगें! जबकि अपनी भाषा में नमस्ते कहने में कुछ भी हानि नही है। 9- पाश्चात्य सभ्यता में रंगा भारतीय युवक भारतीय शास्त्रीय संगीत को धीमा राग कह कर इसका तिरस्कार कर रहा है और उस पाश्चात्य संगीत की धुनों पर थिरक रहा है। जिसमें मधुरता नहीं मात्र कर्कशता है! यह सब हमारी मानसिक दासता का सूचक नहीं तो और क्या है? (अमृत पथ से साभार) |
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Tuesday, 12 October 2010
“मानसिक दासता” (प्रस्तोता-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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बहुत अच्छी बातें याद दिलाई शास्त्री जी । कुछ बातों का तो हम अभी भी पालन कर रहे हैं । अपनी वास्तविकता को कभी नहीं भूलना चाहिए ।
ReplyDeleteबहुत सही कहना है आपका !!
ReplyDeleteकहना तो आपका बिल्कुल सही है, शास्त्री जी.
ReplyDeleteशास्त्री जी बहुत खुब कहा आप ने ओर मेरे दिल की बात कही, आप को नमन हे, मै इन सब बातो पर ९०% खरा उतरता हुं, ओर मुझे मान हे कि मै भारत मे जन्मा, ओर मेरी पहचान भी यही हे, धन्यवाद
ReplyDeleteAapka kahnaa sahee hai..kewal ek santulan bana rahna chahiye...kisee ek vichaar yaa aachaar kaa atirek na ho.
ReplyDeleteहम्म अच्छी लग रही है पोस्ट..फुर्सत में आकर पढ़ती हूँ.
ReplyDeleteसही और सटीक बाते ...सभी के लिए संकलन करने योग्य ......
ReplyDeletebahut hee achhi baatein yaad dilaayi aapne guru ji!
ReplyDeleteआपकी बातों से शत प्रतिशत सहमत हूँ ! अंग्रेजी भाषा की विपन्नता का परिचय इससे बड़ा और क्या होगा की माता पिता के अलावा सारे रिश्ते आंटी और अंकल दो शब्दों में सिमट जाते हैं जबकि हमारी भाषा में हर रिश्ते के लिए एक अलग गरिमामय संबोधन है जो हमारी आत्मीयता का परिचायक है और हमारी भाषा की सम्पन्नता को सिद्ध करता है ! यह सच है की ज्ञानार्जन के लिए चाहे जितनी भी भाषाएँ सीख ली जाएँ लेकिन हमारे ह्रदय में अपनी मातृभाषा के लिए सदैव सम्मान की भावना होना चाहिए ! समय के अनुसार थोड़ा बहुत आधुनिकीकरण मान्य हो सकता है लेकिन पूरी तरह से पाश्चात्य रंग में रंग कर अपने तौर तरीकों को भुला देना या उन्हें हीन समझना किसी भी तरह से क्षम्य नहीं हो सकता ! बहुत सार्थक आलेख !
ReplyDeleteजिस दिन हम मानसिक गुलामी से आज़ाद हो जायेंगे एक नया इतिहास रच देंगे…………………आपने बहुत ही सुन्दर और सशक्त पोस्ट लगाई है जो अपने संस्कारो की तरफ़ प्रेरित करती है और जो हम भूल चुके हैं उन बातों की तरफ़ ध्यान दिलाया है……………।बहुत बहुत आभार्।
ReplyDelete.
ReplyDeleteसहमत हूँ आपकी सभी बातों से। समय-समय पर ऐसी पोस्ट लगती रहनी चाहिए। --आभार।
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बिल्कुल सही व सटीक बात...
ReplyDeletesahi baat hai.
ReplyDeleteशास्त्री जी .. १६ आने सच और सही कहा आपने... और हर कोनो को भी लिया आपने... आज हम और हमारी आने वाली पीडी अपनी संस्कृति और सभ्यता को भुलाती जा रही है... ऐसा करने में वो नहीं समझ रहे है की हम अपनी पहचान खोते जा रहे है... हां पाश्चात्य सभ्यता को खूब हरा भरा कर रहे है किन्तु अपनी जड़ो को काट रहे है.. हमारे देश की संस्कृति पूर्ण और मनभावन है.. हमें इसे संजो कर आगे की पीडी को देना होगा... आपकी पोस्ट बहुत ही अच्छी है..
ReplyDeleteविजयादशमी की अनन्त शुभकामनायें.
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