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Wednesday 2 June 2010

“धैर्य और बुद्धि से काम लेना चाहिए” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

विभुक्षिता किं न करोति पापम्,
क्षीणाः जनाः निष्करुणा भवन्ति।
त्वं गच्छ भद्रे प्रियदर्शनाय,
न गंगदत्तः पुनरेति कूपम्।।


उपरोक्त श्लोक का अर्थ लिखने से पूर्व एक छोटी सी कथा के माध्यम से ही इसे समझाने का प्रयत्न करता हूँ।
एक कुएँ में प्रियदर्शन नाम का साँप, भद्रा नाम की गोह तथा मेढकों का राजा गंगदत्त अपनी प्रजा के साथ रहते थे । तीनों परस्पर मित्रवत् व्यवहार करते थे। लेकिन जब प्रियदर्शन को भूख लगती थी तो वह एक मेंढक को खाकर अपनी क्षुधा शान्त कर लेता था। इस प्रकार गंगदत्त की प्रजा की संख्या दिन-प्रतिदिन घटती जा रही थी।
एक दिन ऐसा भी आया कि गंगदत्त की प्रजा के सभी मेंढक समाप्त हो गये। अब केवल गंगदत्त शेष रह गया। प्रियदर्शन को भूख सता रही थी और वह भूख के कारण निर्बलता अनुभव कर रह था।
अब उसने गंगदत्त से क्या कहा-यह संस्कृत के कवि ने साँप के मन की व्यथा को अपने श्लोक में लिखा- ‘‘विभुक्षिता किं न करोति पापम्,’’ कि हे मित्र गंगदत्त! मैं बहुत भूखा हूँ और भूख से मेरे प्राण निकले जा रहे हैं। अतः ‘‘विभुक्षिता किं न करोति पापम्,’’ भूखा क्या पाप नही करता।
और ‘‘क्षीणाः जनाः निष्करुणा भवन्ति।’’
भूख से कमजोर व्यक्ति के मन में करुणा (दया) समाप्त हो जाती है। इसलिए मित्रवर गंगदत्त मैं अपनी भूख मिटाने के लिए तुम्हें खाना चाहता हूँ।
अब तो गंगदत्त के सामने प्रियदर्शनरूपी मौत साक्षात् सामने दिखाई दे रही थी। गंगदत्त ने जब प्रियदर्शन की बात सुनी तो उसके तो पाँव के नीचे सेजमीन ही खिसक गयी। किन्तु गंगदत्त मेंढकों का राजा था और बड़ा बुद्धिमान था। उसने प्रियदर्शन से कहा कि - ‘‘आप मेरे मित्र होकर मुझे खाना चाहते हैं तो खा लीजिए और अपनी क्षुधा शान्त कर लीजिए। परन्तु कल आप क्या खायेंगे?
प्रियदर्शन बोला- ‘‘मित्र! इसका तुम ही कोई उपाय बताओ जिससे कि कल को भी मेरे खाने का प्रबन्ध हो जाये।’’
अब गंगदत्त ने नीति से काम लिया और कहा-‘‘ मित्र तुम जानते हो कि मैं मेंढकों का राजा हूँ। पास के तालाब से मैं फिर अपनी प्रजा को ले आता हूँ । उनमें से तुम रोज एक मेंढक खा लिया करना और अपनी भूख मिटा लिया करना। परन्तु मैं इस कुएँ से बाहर कैसे निकल पाऊँगा।’’
प्रियदर्शन तो भूख से पागल था और अविवेकी भी हो गया था। इसलिए उसने अपनी मित्र भद्रा को पास बुला कर कहा कि -‘‘हे बहन भद्रा! तुम अपनी पीठ पर बैठा कर गंगदत्त को कुएँ से बाहर तालाब तक ले जाओ।
अतः भद्रा ने गंगदत्त को अपनी पीठ पर बैठाया और कुएँ से बाहर ले आयी।जैसे ही वह समीप के तालाब के पास पहुँची। उसकी पीठ पर बैठे गंगदत्त ने जोर की छलांग लगाई और तालाब में पहुँच कर बीच तालाब में से बोला-
‘‘त्वं गच्छ भद्रे प्रियदर्शनाय,
न गंगदत्तः पुनरेति कूपम्।’’
हे भद्रा तुम अब प्रिय दर्शन के पास चली जाओ।गंगदत्त अब पुनः उस कुएँ में जाने वाला नही है।
अर्थात विपत्ति के समय धैर्य
और
बुद्धि-विवेक से काम लेना चाहिए।

12 comments:

  1. Kitna sach hai..ham yahi to nahi karte..vivek kho dete hain!

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  2. bahut sunder tareeke se shlok katha ke madhyam se aapne samne rakha .......dhanyvad.

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  3. सही कहा...........
    धेर्य रखना ही चाहिए..........

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  4. bahut hi prerak kahani........buddhi aur vivek ka pata aapatti ke samay hi chalta hai.

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  5. ये कहानी शायद पंचतंत्र में पढ़ी थी या नानी ने सुने होगी ..जीवन का बहुत बड़ा दर्शन है इसमें .आभार इसे याद दिलाने का.

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  6. sahi kaha par abhi to hamari bhookh itni nahi badhi fir bhi sabko khane ko taiyaar hain...

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  7. Bhai,
    Bade kamaal kii prerana di kahani ke madhyam se. Dhanybaad.

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  8. रोचक कहानी के माध्यम से सही सलाह दी है आपने शास्त्री जी।

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  9. दिनेश शर्मा6 June 2010 at 13:48

    प्रेरणा के लिए धन्यवाद।

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  10. प्रेरणादायी कथा.........धण्यवाद।

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  11. Kahani k madhyam se bahut achchhi prerna di ..aapka bahut2 dhanyawad

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