यह घटना मेरे बचपन की है। मेरी आयु उस समय 13-14 वर्ष की रही होगी। मेरा बचपन नजीबाबाद, उ0प्र0 मे बीता, वहीं पला व बड़ा हुआ । पास ही में एक गाँव अकबरपुर-चौगाँवा है, वहाँ मेरे मौसा जी एक मध्यमवर्ग के किसान थे । मैं अक्सर छुट्टियों में वहाँ चला जाता था । खेती किसानी में मुझे रुचि थी इसीलिए मौसा जी भी मुझको पसन्द करते थे । नवम्बर का महीना था। मैं और मौसा जी खेत में पानी लगाने के लिए चले गये। पानी लगाते हुए कुछ रात सी हो गयी थी । मौसा जी का खेत सड़क के किनारे पड़ता था, खेत में एक पीपल का पुराना पेड़ भी था । मैने मिट्टी तेल की लालटेन जला ली और पीपल के पेड़ में टाँग दी । उस समय नजीबाबाद में कोई भी अदालत नही थी । अतः लोग बिजनौर रेलगाड़ी से अदालत के काम से जाया करते थे । उस दिन रेलगाड़ी भी कुछ लेट हो गयी थी । अतः लोगों को गाँव लौटते हुए रात के लगभग 10 बज गये थे । अगले दिन मैं और मौसा जी मुखिया की चौपाल पर बैठे थे । तभी गाँव के कुंछ लोगों ने अपनी व्यथा सुनानी शुरू कर दी । कहने लगे- रात को हमने पीपल के पेड़ में भूतों की लालटेन जलती देखी थी , खेत में उनके चलने की आवाज भी आ रही थी । हम लोगों ने जब यह नजारा देखा तो भाग खडे हुए और चार मील का रास्ता तय कर दूसरे रास्ते से 11 बजे घर पहुँचे । अब तो मेरा हँसते-हँसते बुरा हाल था । मौसा जी भी खूब रस ले-ले कर बात को सुन रहे थे । किसी ने सच ही कहा है कि भय का ही भूत होता है । डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ (पूर्व सदस्य-अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखण्ड सरकार) कैम्प-खटीमा, जिला-ऊधमसिंहनगर, पिनकोड- 262 308 फोन/फैक्सः 05943-250207, मोबाइल- 09368499921 |
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Thursday, 10 June 2010
“भय का भूत” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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सही कहा आपने
ReplyDeleteआपकी इस घटना से यह तो सीख मिल ही गयी की भय का भूत ही डराता है....बढ़िया संस्मरण
ReplyDeleteबढ़िया संस्मरण शास्त्री जी ।
ReplyDeleteइसे पढ़कर अब किसी को कोई संशय नहीं रहेगा कि भूत सिर्फ मन का भय है।
Haan sach! Ek waqaya, meri Dadi ne sunaya tha..lekin uska ant bada bhayankar hua tha..kabhi likhungi..
ReplyDeleteरोचक है...आभार
ReplyDeleteभूत तो भय का ही होता है !!
ReplyDeletebahut he badhiya sir ji..
ReplyDeleteaksar aisa hota hai..bahut badhiya sanmarana shastri ji dhanywaad
ReplyDeleteहा हा हा हा ....मज़ा आ गया इस संस्मरण में... वाकई में भूत सिर्फ वहम होता है.... पर कहीं अगर सही में कहीं हुआ तो? ही ही ही ही ....
ReplyDeleteha ha ha sirji maja aa gaya...
ReplyDeleteहमारे अन्दर का डर ही भूत बनकर हमें डराता है, बढिया संस्समरण है।
ReplyDeleteआपने बिल्कुल सही फ़रमाया है! मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ! शानदार और रोचक संस्मरण !
ReplyDeletebahut kaam ki baat kahi aapne.Badhai!!
ReplyDeleteहा हा हा…………………बहुत ही मज़ेदार संस्मरण्।
ReplyDeleteसुन्दर वैसे भी भूत कुछ नही होता भूत का लबादा ओढ़े भ्रम हमें डराता रहता है
ReplyDeleteशुक्रिया शास्त्री जी .
ReplyDeleteआपके इतने अलफ़ाज़ ही काफ़ी हैं ,
आपका चर्चा मंच भी अच्छा लगा और 'मन का भूत' और गंगदत्त कथा भी ;बचपन की कुछ
स्मृतियाँ ताज़ा हो उठीं ,बाल दिवस पर ज़रूर शेयर करुँगी .
BAU JEE NAMASTE....
ReplyDeleteMERI NANI BHI APNE BACHPAN KI EK KAHANI SUNATI HAIN.....
HAAN, USME LALTEN NAHIN DIYE HAIN!
JAI HO!
भाई जिस अबोध और निर्भयी बचपने में हम पढ़े-लिखे लोग भूत का भय भरते हैं, उनका क्या किया जाये........
ReplyDeleteकहानी बढ़िया रही........
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
ek sandesh deta sansmaran.........bahut accha lagaa.
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