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Tuesday, 29 September 2009

"सत्य पर असत्य की विजय" - दैनिक जागरण





आपने इस समाचार का शीर्षक पढ़ा....

नही पढ़ा हो तो उपरोक्त कटिंग पर

चटका लगा कर

इसे बड़ा करके ध्यान से पढ़ें।

धन्यवाद! दैनिक जागरण!!

चाहे भूलवश् ही सही

वास्तविकता तो प्रकट कर ही दी।

बिल्कुल सही हैडिंग लगाया है-

आज वास्तव में

सत्य पर असत्य की ही

विजय हो रही है।

बहुत-बहुत बधाई!!

Saturday, 26 September 2009

अतीत के झरोखे से (खटीमा सम्मेलन)

अखिल भारतीय प्रजापति (कुम्भकार) महासंघ

शाखा-उत्तरांचल का

प्रथम प्रदेश स्तर का सम्मेलन
खटीमा में सम्पन्न हुआ था।


(झलकियाँ)



दस हजार लोगों का मेला लगा था।

सम्मेलन स्थल पर उमड़ा



प्रजापतियों का

जन सैलाब


(मंच के सामने का दृश्य
)






(पगड़ी लिए हुए स0गुरदयालसिंह-स्वतन्त्रता सेनानी)


इस अवसर पर

सिक्ख पन्थ के

प्रजापति समाज के

व्यक्तियों द्दारा

उत्तरांचल प्रजापति महासंघ के

प्रदेश-अध्यक्ष

प्रजापति डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री

को पगड़ी बाँध कर

सम्मानित किया।

उत्तराञ्चल के तत्कालीन मा0 मुख्य-मन्त्री
पं0 नारायण दत्त तिवारी के प्रतिनिधि के रूप में पधारे
श्री आर0के0वर्मा, प्रमुख-सचिव
समाज-कल्याण मन्त्रालय उत्तराञ्चल।


तत्कालीन कॉग्रेस के सांसद
डॉ.महेन्द्र सिंह पाल का
स्वागत करते हुए
प्रदेश-अध्यक्ष
प्रजापति डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री।




बिहार से पधारे
स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी
डॉ. बी. एन. पहाड़ी।







अतिथियों के सम्मान में

स्वागत-गान प्रस्तुत करती हुईं

राष्ट्रीय वैदिक विद्यालय, खटीमा की छात्राएँ।


शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबन्धक कमेटी, अमृतसर के
जनरल सेक्रेट्री स0 रघुवीर सिंह का
स्वागत करते हुए सम्मेलन के स्वागताध्यश्क्ष
श्री शिवशंकर (उद्योगपति, दिल्ली)।




अखिल भारतीय प्रजापति (कुम्भकार) महासंघ,
पञ्जाब के प्रदेशाध्यक्ष
स0 बाबा सिंह।







अखिल भारतीय प्रजापति (कुम्भकार) महासंघ,

के मुख्य-महासचिव-श्री सन्तराम प्रजापति, दिल्ली।

स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी

99 वर्षीय श्री रामस्वरूप आर्य।




होटल हेस्ट व्यू के एम0डी0

ठा0 कमलाकान्त सिंह।



अखिल भारतीय प्रजापति (कुम्भकार) महासंघ,
के राष्ट्रीय अध्यक्ष-
श्री मुन्नालाल प्रजापति, कानपुर।







स्वतन्त्रता सेनानी स0 सेवा सिंह तथा


स्वतन्त्रता सेनानी स0गुरदयालसिंह।


सभा को सम्बोधित करती हुई

श्रीमती पूनम आर्या, देहरादून।




सभा को सम्बोधित करते हुए

श्री बुद्ध सिंह, जिला-बिजनौर।


प्रजापति (कुम्भकार) महासंघ,

नेपाल के अध्यक्ष

श्री विष्णु लाल कुमाल।



स्वतन्त्रता सेनानी स0 दिलीप सिंह।
श्री आर0के0वर्मा, प्रमुख-सचिव
समाज-कल्याण मन्त्रालय उत्तराञ्चल
को सम्मानित करते हुए
स0 रघुबीर सिंह ।
!!समापन के क्षण!!
धन्यवाद ज्ञापित करते हुए
उत्तरांचल प्रजापति महासंघ के
प्रदेश-अध्यक्ष प्रजापति डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री।

Wednesday, 23 September 2009

‘‘सावधान! हुन्गामा फ्लू आ गया है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मित्रों!
आजकल ब्लाग-जगत में एक हुन्गामा नाम का वायरस हमला कर रहा है। हमारे मित्र श्री प्रेम नारायण शर्मा जी के ब्लाग को वो संक्रमित कर चुका है। बड़ी हा-हाकार मची हुई है।
प्रेम नारायण शर्मा जी को कई लोग सान्त्वना दे रहे हैं और कई लोग इसका मजा भी ले रहे हैं।
क्योंकि महाकवि तुलसीदास जी ने कहा है -
‘‘जिसको प्रभु दारुण दुख देहीं।
उसकी मति पहले हर लेहीं।।’’
भाई जी ने भद्दी टिप्पणियों से घबराकर कमेण्ट-माडरेशन लागू कर दिया।
यह तो श्री शर्मा जी ही जानें कि हुन्गामा नाम से टिप्पणी करने वाला ब्लागर बबली नाम की महिला है या कोई वायरस है।
कहीं खुशी, कहीं गम।
दोनों ही महान हैं,
कोई नही है कम।।
मैं भी उनके दुख में दुखी हूँ और मैंने इस टिप्पणी के साथ उनको सान्त्वना भी दी है-
बधाई हो!
आपने तो बबली नाम की ब्लॉगर का लिंग ही चेंज कर दिया है।
बबली जी तो एक बड़ी ब्लॉगर हैं।
वो 4-5 ब्लॉग चलाती हैं।
मुझे नही लगता कि उनके पास इस विवाद में उलझने का समय होगा।
अगर आप कन्फर्म हैं कि हुन्गामा यही हैं, तो इन्होंने अच्छा नही किया।
जिसने भी यह टिप्पणियाँ की हैं, मैं उसकी निन्दा करता हूँ।
आपने अपनी इस पोस्ट में हुन्गामा की कथित टिप्पणी
HUNGAMA said...
SADAKCHHAP!
AB DOOSARI CHAKLLAS KAB LAGAYEGA.
COMMENTS MODRETION KYON LAGA DIYA.
DAR GAYA HAI KYA.
MARD HAI TO IS COMMENT KO PUBLISH KAR.
22 September, 2009 12:47 PM
भी प्रमाणस्वरूप लगाई है,
मगर यह तो आपकी किसी भी पोस्ट पर नही दिखाई दे रही है।
अब प्रश्न यह उठता है कि आपने अपने ब्लॉग पर मॉडरेशन लगाया ही क्यों है?
क्या आप इस हुन्गामारूपी भूत से इतने भयभीत हो गये हैं?
आप स्वछन्द होकर लिखते रहिए।
मेरा तो सुझाव है कि आप इस हुन्गामा नाम के भूत की उपेक्षा करते रहें।
यह अपने आप ही खामोश होकर बैठ जायेगा।
मगर आपने तो बबली जी का लिंक देकर उन्हें स्वयं ही हाई-लाइट कर दिया है।
जो उन्हे नही भी जानता था, आपके सौजन्य वो भी उनसे परिचित हो ही जायेगा।
भ्राता जी! समझदारी से काम लो।
शुभकामनाओं सहित-
शर्मा जी तो दुखी है, उनके साथ मेरी पूरी श्रद्धा और सहानुभूति है। किन्तु अगर बबली जी ने यह टिप्पणियाँ नही की हैं तो उन्हें तो मुफ्त में प्रसिद्धि मिल रही है। क्योंकि इनके ब्लाग का लिंक जो श्रीमान प्रेम नारायण शर्मा जी ने अपनी पोस्ट में लगा दिया है।

मेरी आप सब ब्लागर मित्रों को नेक सलाह है कि अगर ऐसा वायरस आपको भी परेशान करे तो कृपया चुप होकर बैठ जायें।
खासतौर से वो मित्र जो शादीशुदा होते हुए भी रसिया रस वर्षा करते हों।
इससे आप बदनामी से भी बचे रहेंगे और किसी को पता भी नही लगेगा कि आप हुन्गामा नाम के फ्लू से ग्रस्त हैं।

Sunday, 20 September 2009

‘‘शिक्षित बेरोजगार’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


दो दिन पूर्व एक पोस्ट लगाई थी- ‘‘अँगूठा छाप’’
इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों में कुछ मित्रों ने मुझे श्रमिक विरोधी प्रमाणित करने में कोई-कोर कसर नही छोड़ी। जबकि इस प्रविष्टी में मेरा कहने का यह उद्देश्य था कि पढ़े-लिखों की हमारे देश में कितनी दयनीय स्थिति है।
जहाँ तक श्रमिकों का प्रश्न है मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि आज हमारे देश में मजदूर खुशहाल है। इस विषय में मेरी कई श्रमिकों से बात हुई है।
सबने यही स्वीकार किया है कि वर्तमान समय में बिना पढ़े-लिखे श्रमिक आज चैन की वंशी बजा रहे हैं। रही बात एक-दो प्रतिशत मजदूरों की, उनमें केवल वो ही दुखी हैं जो कामचोर है।
परिश्रमी लोगों को प्रतिदिन काम मिल ही जाता है। लेकिन पोस्ट ग्रेजुएशन करने के उपरान्त भी आज पढ़े लिखे लोगों को 1500/- रु0 प्रतिमाह की नौकरी भी नही मिलती है।
आप विचार करें कि उनके दिलों पर क्या गुजरती होगी जिन्होंने उच्च-शिक्षा प्राप्त करने के लिए कितने ही रुपये बरबाद किये होंगे?
दूसरी ओर शिक्षा पर बिना कोई पैसा व्यय किये मजदूर आज 4-5 हजार रुपये महीना आराम से कमा रहे हैं और अपने परिवार की गुजर-बसर कर रहे हैं।
श्रमिक खुशहाल हों यह तो अच्छी बात है मगर शिक्षित भी तो खुशहाल होने ही चाहिएँ।
शासन में बैठे लोगों को इसकी कोई चिन्ता ही नही है।
शासन-प्रशासन तो इतना भ्रष्ट हो चुका है कि वो सीधे-सीधे ही कहता है - ‘‘यदि नौकरी चाहिए तो दो साल के वेतन का पैसा एडवांस रिश्वत में दो और नौकरी खरीद लो।’’
यानि नौकरी अब खरीदी जाने लगी है। यदि गाँठ में माल नही है तो नौकरी की परिकल्पना ही बेमानी है। ऐसे में कौन अपने पाल्यों को शिक्षित करना पसन्द करेगा?
यह विचारणीय प्रश्न है।

Saturday, 19 September 2009

‘‘अँगूठा छाप को काम, मनमाना दाम’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

बरसात से पूर्व घर में कुछ छुट-पुट मरम्मत का कार्य करवाना था। एक अदद राज मिस्त्री और दो मजदूरों की जरूरत थी।
इन्हें लाने के लिए चौराहे पर गया। 300 रु0 प्रतिदिन मजदूरी के हिसाब से राज-मिस्त्री तो मिल गया।
अब मजदूर खोजने लगे। 2-4 लोगों से कहा कि मजदूरी पर चलोगे।
उन्होंने पूछा-‘‘क्या काम है।
हमने कहा- ‘‘छुट-पुट मरम्मत का काम है।’’
मजदूरों ने कहा- ‘नही जायेंगे साहब! लिण्टर के काम में जायेंगे, वहाँ 170 की मजदूरी मिलती है।’’
काफी खोज-बीन के बाद 150 रु0 प्रतिदिन के हिसाब से दो मजदूर मिल ही गये।
....................................................................................................................................
जुलाई का प्रथम सप्ताह। विद्यालय में नये अध्यापकों के लिए इन्टरव्यू चल रहे थे। रिक्तियाँ लगभग पूरी हो गयी थी।
अगले दिन एक नौकरी की आशा में एक नवयुवक विद्यालय में आया।
योग्यता थी- एम0एससी०, लेकिन अध्यापकों के पद तो सारे भरे जा चुके थे।
विद्यालय के प्रबन्धक ने इस युवक को कह दिया-‘‘सीटे सारी भरी जा चुकी हैं, हमारे यहाँ कोई वैकेन्सी नही है।"
अब युवक गिड़गिड़ाते हुए बोला- ‘‘सर! 1500 रु0 महीने पर ही रख लीजिए।’’
हमने अपना माथा पीट लिया-
‘‘वाह! अँगूठा छाप को काम मनमाना दाम।’’
और पढ़े-लिखे लोग बेकार.......दर-दर की ठोकरे खाने को मजबूर।

Wednesday, 16 September 2009

‘‘माँ का हत्यारा, पुत्र’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


पिछले वर्ष की बात है। मन में दशहरा और दीपावली का उत्साह था।

अचानक खबर आई की मौसी जी का देहान्त हो गया है।
जैसे-तैसे भागे उनके गाँव की ओर......।
मौसी जी के शव को शमशान ले जाने की तैयारी थी।
दाह संस्कार करके आये तो जानकारी की गई कि मौसी जी का तो स्वास्थ्य बहुत अच्छा था, वो अचानक कैसे चली गईं।
घर में सभी कुछ न कुछ छिपाते हुए मिले। लेकिन मौसा जी ने मुझे एक ओर ले जा कर भारी मन से बताया कि घर में माँ-बेटे में कलह हुई थी।
इसी में ..............ने अपनी माँ को छत से धक्का दे दिया। वो सम्भल नही पाई और छत से नीचे गिर गई। सिर में चोट लगी और उसने तड़प-तड़प कर प्राण त्याग दिये।
इसके साथ ही मौसा जी फफक कर रो पड़े।
...........घर का इकलौता पुत्र था। किसी से कुछ बताते भी नही बन रहा था। बस मन मे ही सारे गुबार भरे थे मौसा जी के।
वाह..........!
क्या जमाना आ गया है कि ................को जरा सा बुखार आ जाने पर भी मौसी जी परेशान हो जाती थीं।
परन्तु वही पुत्र ....................!
इसने न केवल अपनी माता का दूध ही नही लजाया, अपितु अपनी सगी माँ की कोख को भी कलंकित कर दिया।
इसके बाद मौसा जी ने उससे सारे सम्बऩ्ध तोड़ लिए। उनके नाम पर ५० बीघा खेती की जमीन थी। उसमें उन्होंने मौसी जी नाम से एक अनाथालय खोल दिया है।
अब यह मातृहन्ता पुत्र मजदूरी करता है और दुनिया की झिड़कियाँ भी खाता है।
शायद उसके लिए यह सजा कम है।

Wednesday, 9 September 2009

‘‘निर्धनता की भूख’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


लघु-कथा

बात 25 -30 साल पुरानी है। उन दिनों नेपाल में मेरा हम-वतन प्रीतम लाल पहाड़ में खच्चर लादने का काम करता था। इनका परिवार भी इनके साथ ही पहाड़ में किराये के झाले में रहता था।
उनका अपने घर नजीबाबाद के पास गाँव में जाने का कार्यक्रम था। अतः ये रास्ते में मेरा घर होने के कारण मिलने के लिए आये।
औपचारिकतावश् चाय नाश्ता बनाया गया।
प्रीतम की लड़की चाय बना कर लाई। परन्तु उसने चाय को बना कर छाना ही नही।
पहले सभी को निथार कर चाय परोसी गई। नीचे बची चाय को उसने अपने छोटे भाई बहनों के कपों में उडेल दिया।
सभी लोग चाय पीने लगे।
बच्चों ने चाय पीने के बाद चाय पत्ती को भी मजा लेकर खाया।
ये लोग अब बस से जाने की तैयारी में थे कि प्रीतम ने मुझसे कहा कि डॉ. साहब कल से भूखे हैं। हमें 2-2 रोटी तो खिला ही दो।
मैंने कहा- ‘‘जरूर।’’
श्रीमती ने पराँठे बनाने शुरू किये तो मैंने कहा कि इनके लिए रास्ते के लिए भी पराँठे रख देना।
अब प्रीतम और उसके परिवार ने पराँठे खाने शुरू किये। वो सब इतने भूखे थे कि पेट जल्दी भरने के चक्कर में दो पराँठे एक साथ हाथ में लेकर डबल-टुकड़े तोड़-तोड़ कर खाने लगे।
उस दिन मैंने देखा कि भूख और निर्धनता क्या होती है।

Tuesday, 1 September 2009

‘‘हिन्दी का शोक-दिवस’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


मित्रों !
मेरी बात भारत में रहने वाले काले अंग्रेजों को बुरी लग सकती है। परन्तु मैं ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी से न डरा हूँ और नही डरूँगा।
जब से मैंने होश सम्भाला है तब से मैं देखता चला आ रहा हूँ कि हम लोग प्रति वर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी-दिवस का आयोजन बड़े उत्साह से करते हैं।
एक ही दिन में हम लोग यह प्रमाणित कर देते हैं कि हमसे बड़ा अपनी राष्ट्र-भाषा का भक्त शायद ही विश्व में दूसरा कोई होगा।
14 सितम्बर को देश के छोटे-बड़े लगभग सभी हिन्दी-अंग्रेजी संस्थानों में इस उपलक्ष्य में आयोजन होते हैं। उनमें हिन्दी के मनीषी तो कम ही दृष्टिगत होते हैं, लेकिन उनमें निजी / सरकारी या अर्द्ध-सरकारी संस्थानों के अंग्रेजी-भक्त ही मुख्य-अतिथि बनाए जाते हैं। जो अपना व्याख्यानहिन्दी के समर्थन में देते हैं और इन व्याख्यानों में 80 प्रतिशत शब्द अंग्रेजी भाषा के ही होते हैं।
समाचारपत्रों में बड़े-बड़े अक्षरों में छपता है-
‘‘................संस्थान में हिन्दी दिवस का आयोजन सफल रहा।’’
और हिन्दी-दिवस की औपचारिकता पूर्ण हो जाती है।
अगले दिन फिर से वही प्रतिदिन की दिनचर्या शुरू हो जाती है। यानि पंचों की राय सिर माथे पर लेकिन पतनाला वहीं उतरेगा।
विगत वर्षों में भी मेरे पड़ोस में बनबसा में राष्ट्रीय जल विद्युत परियोजना में प्रति वर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी-दिवस मनाया जाता रहा है। जिसकी अध्यक्षता इसी संस्थान के मुख्य अभियन्ता करते हैं।
इसमें पधारे कवियों और साहित्यकारों को पुरस्कृत भी किया जाता है।
मैं वही गूढ़ रहस्य अपनी इस प्रविष्टी में खोलने जा रहा हूँ कि पुरस्कार में प्रतिवर्ष क्या होता है।
जी हाँ! पुरस्कार में मिलती है पड़ोस के नेपाल राष्ट्र से चीन की बनी हुई 20-20 रु0 की अलार्म-घड़ियाँ।
खैर, इस विषय को आगे बढ़ाते हुए-
‘‘मैं यह कहना चाहता हूँ कि भारत का राष्ट्रपति एक है, राष्ट्रीय-पशु एक है, राष्ट्रीय पक्षी एक है, राष्ट्र-पिता भी एक ही है तो राष्ट्र-भाषा अनेक क्यों हैं?’’
हम लोग प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस मनाते हैं और उसमें रोष और रुदन करते हैं कि हिन्दी का विकास होना चाहिए, अपने देश में हिन्दी में ही सारे राज-काज होने चाहिएँ।
क्या अर्थ है इसका ?
अर्थात् सब कुछ ठीक-ठाक नही है।
सच कहा जाये तो -
14 सितम्बर हिन्दी दिवस नही,
बल्कि हिन्दी का शोक-दिवस ही है।