मित्रों ! मेरी बात भारत में रहने वाले काले अंग्रेजों को बुरी लग सकती है। परन्तु मैं ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी से न डरा हूँ और नही डरूँगा। जब से मैंने होश सम्भाला है तब से मैं देखता चला आ रहा हूँ कि हम लोग प्रति वर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी-दिवस का आयोजन बड़े उत्साह से करते हैं। एक ही दिन में हम लोग यह प्रमाणित कर देते हैं कि हमसे बड़ा अपनी राष्ट्र-भाषा का भक्त शायद ही विश्व में दूसरा कोई होगा। 14 सितम्बर को देश के छोटे-बड़े लगभग सभी हिन्दी-अंग्रेजी संस्थानों में इस उपलक्ष्य में आयोजन होते हैं। उनमें हिन्दी के मनीषी तो कम ही दृष्टिगत होते हैं, लेकिन उनमें निजी / सरकारी या अर्द्ध-सरकारी संस्थानों के अंग्रेजी-भक्त ही मुख्य-अतिथि बनाए जाते हैं। जो अपना व्याख्यानहिन्दी के समर्थन में देते हैं और इन व्याख्यानों में 80 प्रतिशत शब्द अंग्रेजी भाषा के ही होते हैं। समाचारपत्रों में बड़े-बड़े अक्षरों में छपता है- ‘‘................संस्थान में हिन्दी दिवस का आयोजन सफल रहा।’’ और हिन्दी-दिवस की औपचारिकता पूर्ण हो जाती है। अगले दिन फिर से वही प्रतिदिन की दिनचर्या शुरू हो जाती है। यानि पंचों की राय सिर माथे पर लेकिन पतनाला वहीं उतरेगा। विगत वर्षों में भी मेरे पड़ोस में बनबसा में राष्ट्रीय जल विद्युत परियोजना में प्रति वर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी-दिवस मनाया जाता रहा है। जिसकी अध्यक्षता इसी संस्थान के मुख्य अभियन्ता करते हैं। इसमें पधारे कवियों और साहित्यकारों को पुरस्कृत भी किया जाता है। मैं वही गूढ़ रहस्य अपनी इस प्रविष्टी में खोलने जा रहा हूँ कि पुरस्कार में प्रतिवर्ष क्या होता है। जी हाँ! पुरस्कार में मिलती है पड़ोस के नेपाल राष्ट्र से चीन की बनी हुई 20-20 रु0 की अलार्म-घड़ियाँ। खैर, इस विषय को आगे बढ़ाते हुए- ‘‘मैं यह कहना चाहता हूँ कि भारत का राष्ट्रपति एक है, राष्ट्रीय-पशु एक है, राष्ट्रीय पक्षी एक है, राष्ट्र-पिता भी एक ही है तो राष्ट्र-भाषा अनेक क्यों हैं?’’ हम लोग प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस मनाते हैं और उसमें रोष और रुदन करते हैं कि हिन्दी का विकास होना चाहिए, अपने देश में हिन्दी में ही सारे राज-काज होने चाहिएँ। क्या अर्थ है इसका ? अर्थात् सब कुछ ठीक-ठाक नही है। सच कहा जाये तो - 14 सितम्बर हिन्दी दिवस नही, बल्कि हिन्दी का शोक-दिवस ही है। |
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Tuesday, 1 September 2009
‘‘हिन्दी का शोक-दिवस’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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आपकी चिन्ता जायज है शास्त्री जी
ReplyDeleteहमारे राष्ट्र की भाषा बनी जब शान से हिन्दी
शुरू से भिन्नता में एकता की जान ये हिन्दी
वे हिन्दी छोड़ बच्चे को अब अंगरेजी पढ़ाते हैं
तो कैसे बन सकेगी राष्ट्र की पहचान ये हिन्दी
bबिलकुल् सही कहा आपने एक छोटी सी बात बताती हूँ कि हमरे शहर मे हिन्दी की लेखिका अभी तक मैं ही हूँ जो छुट् पुट्रचनायें हिन्दी मे लिखते भी है वो भी यही कोशिश करते हैं कि इसे प्रदेश की भाषा मे लिखें मुझे लगता है कि प्रादेशिक भाशाओं को समृ्द्ध बनाने के लिये राज्य सरकारें भी राष्ट्र भाशा को उतनी अहमियत नहीं देती । केन्द्र सरकार से आयी चिट्ठीयाँ दफ्तरों मे ही धूल चाटती रहती हैं और केन्द्र सरकार के पास भी कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है कि राष्ट्र भाषा को समृद्ध किया जये बहुत सही मुद्दा उठाया है आपने आभार
ReplyDeleteपश्चिमी लहर और उपभोक्ता संस्कृति ने जैसे मातृदिवस, पितृदिवस, व फलाना दिवस, ढिमकाना दिवस हम पर थोपा है उसी का एक रूप यह हिंदी दिवस है। विड़ंबना है कि जहां रोज परिवार टूटते हैं, वे हमे मां-बाप की अहमियत सिखा रहे हैं। हम भी तो उधर की तरफ मुंह बाए खड़े रहते हैं। लगता है कि कभी जगतगुरु रहा होगा हमारा देश ????
ReplyDeleteआपकी चिन्ता जायज है किन्तु मुझे लगता है कि जिस भाषा से हमें समुचित आजीविका मिलती है उसी का प्रचलन ज़्यादा होता है। इसीलिए दक्षिण भारतीय उत्तर में आ कर हिंदी बोलने लगता है तो सिक्ख कर्नाटक में बेधड़क कन्नड़ बोलते पाए जाते हैं।
ReplyDeleteअंग्रेजी भाषा का प्रभाव इसलिए ज़्यादा है कि आजकल की तमाम श्रेष्ठ तकनीकी जानकारियाँ उसी भाषा में हैं। वही जानकारियाँ अर्थव्यवस्था को चलाती हैं। जब संस्कृत के बूते पर आधारित थे बाज़ार तो वही बोलचाल की भाषा थी।
मेरा ख्याल है कि एक पोस्ट ही लिख दी जाए इस मुद्दे पर :-)
शास्त्री जी, आपके हिंदी प्रेम को सलाम करता हूँ. मैं भी हिंदी का उपासक हूँ. जहाँ तक हो सके हम सब भारतवासियों का फ़र्ज़ है की हम हिंदी का प्रचार करें और हिंदी को अपनाएँ तथा दूसरों को भी प्रोत्साहित करें.
ReplyDeleteसाथ ही मैं यह भी कहना चाहूँगा की इंग्लिश एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है और उसकी महत्ता को कम नहीं आँका जाना चाहिए. इस बात का अहसास तब होता है जब हमें देश से बहार जाने का अवसर मिलता है. तब केवल इंग्लिश ही हमारे काम आती है. हिंदी के लिए हम सब की शुभकामनाएं.
यह एक ऐसी चिंता है
ReplyDeleteजो चिंतन करने से भी
चिता नहीं सजा पा रही है
अंग्रेजी की।
श्रद्धा का एक वर्ष तो श्राद का एक दिन ही रहेगा ना। साल भर अंग्रेज़ी झोंक ली तो एक दिन हिंदी भी सही। अब तो श्राद्ध की तरह हिंदी का पखवाड़ा भी मनाया जाने लगा है।
ReplyDeleteलो कर ली ना प्रगति, एक दिन से एक पखवाडे तक पहुंच ही गये।
शास्त्री जी आपकी बात जायज है और ये चिंता का विषय भी है! दरअसल हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा होने पर भी बच्चे अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ते हैं क्यूंकि हिन्दी अगर पूरी तरह से पढाई जाए तो भारत के बहार पढने का मौका नहीं मिलेगा और सिर्फ़ यही नहीं भारत में कॉलेज और यूनिवर्सिटी में भी दाखिला नहीं मिलेगी! हिन्दी जानना आवश्यक है पर साथ साथ अंग्रेजी भी उतनी ही आवश्यक है यही मेरा कहना है!
ReplyDeleteजायज चिन्ता..
ReplyDeleteआपकी कही गई बात विचारणीय है.. हैपी ब्लॉगिंग.
ReplyDeletehindi hamari rashtra bhasha hai aur uska samman har kisi bhasha se badhkar hona bhi chahiye.magar aaj ke waqt ki jaroorat ko dekhte huye hum angreji bhasha ka gyan bhi aavashyak hai.
ReplyDeleteआप का कहना उचित हे|
ReplyDeleteवंदना जी की प्रतिकिर्या हटा देवे, यह हिंदी भी ठीक नही गी.
ReplyDeleteमैं ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी से न डरा हूँ और नही डरूँगा।
ReplyDeleteअजी साहब उसी से क्यों डरते हो? जो हमारा मालिक है, आप उसी से डरते हो? कमाल है!! उसे जो करना है, वो तो करेगा ही, डरने से हमारी बात थोड़े ही मानने लगेगा?
सार्थक पोस्ट
ReplyDeleteचिंता जायज है
अनुरोध है की इतने भड़कीले रंग से न लिखें .. आखों पर बहुत जोर पड़ता है ..
कृपया अन्यथा न लें
achchi prastuti ham hindi ka prayog
ReplyDeletekare aur dusaro ko bhee protsahit kare
घर को लगा दी आग घर के ही चरागों नें,
ReplyDeleteशायद इसी में आपकी जायज़ चिंता के गुनाहगार हैं,
हमारे सामने रोज़ी-रोटी, मन-सम्मान, हस-उपहास, छोटा-बड़ा, इंग्लिश मीडियम-हिंदी मीडियम, स्व भाषा में टेक्नोलोजी की अनुपलब्धता जैसे अनेकानेक जुमले और समस्याएं डरों को और डरा कर कातर बना रही है.
उधार की भाषा, उधार के पैसों, उधार के कपडों, उधार के सामानों, से क्या कभी कोई वास्तविक प्रगति कर पाया है, जो दिखाया जाता है, सब भ्रम है.
क्या सोंच सिर्फ अंग्रेजी में हो सकती है, क्या टेक्नोलोजी पर सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी का ही अधिकार है, समय बदलता है उधार लिया पैथागोरस प्रमेय भी चोरी का निकालता है, जिसके जनक और कोई नहीं, बोधायन थे, वैदिक गणित सूत्र आज के दौर में कैलकुलेटर से भी तेज गणना में कामयाब हो रही है., भारत का दिया हुआ शून्य भी अंग्रेजीदा लोगों ने जीरो बना दिया...................
कुल मिला कर मैं आपको सलाम करता हूँ कि सितम्बर माह के प्रथम दिन ही इतना गंभीर विषय उठा दिया. बातें और भी है कहने को पर शायद टिपण्णी ज्यादा लम्बी और उबाऊ हो गई है.........
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
हिन्दी पर यह कदमताल मै काफी दिनों से देखता आ रहजा हूं। अगर हिन्दी सर्वमान्य होती तो एक दिन के दिवस की जरूरत ही नहीं होती। हिन्दी को पूरे भारत में स्थापित कियस जाना चाहिए। अब जबकि हिन्दी की धमक यूएनओ तक में है हम भारतवासियों को इसे अपना लेना चाहिए। हम हिन्दी भी सीखें और अपनी क्षेत्रीय भाषा भी बोलें इसमें हर्ज ही कहां है। हिन्दी सीखने या बोलने से हमारा भोजपुरी, मैथली, पुजाबी, कन्नड़, तमिल, बंगाली आदि भारतीय भाषाओं के प्रति लगाव थोड़े ही कम हो जाएगा। बेहतर है हम हिन्दी के साथ दो-तीन भाषाएं सीखें।
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ReplyDeleteप्रत्येक बुधवार सुबह 9.00 बजे बनिए
चैम्पियन C.M. Quiz में |
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होईये ठहाका एक्सप्रेस में |
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shastri ji aapka kahana ekdam sahi hai.
ReplyDeletebahut achchha lekh likha hai aapne.
aapki chinta shi hai hindi divas mnakar ham matra bsha ko janjan tak nhi phuncha skte in aadmbar div so ka bhishkar hona chahiye .
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