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Friday 31 July 2009

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के जन्म-दिवस पर विशेष

मुँशी प्रेमचन्द का जीवन परिचय (Premchand's Biography)
जन्म-
प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।जीवन धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।
शादी-
आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, "उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।......." उसके साथ - साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है "पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।" हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
शिक्षा-
अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने - जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।साहित्यिक रुचिगरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो - तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला। आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद "तिलस्मे - होशरुबा" पढ़ डाली।अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी - बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ - साथ रहा।प्रेमचन्द की दूसरी शादीसन् १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।
व्यक्तित्व-
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा "हमारा काम तो केवल खेलना है- खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् - पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, "तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।" कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं "कि जाड़े के दिनों में चालीस - चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।"प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।ईश्वर के प्रति आस्थाजीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे - धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा "तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो - जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।"मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था - "जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।"प्रेमचन्द की कृतियाँप्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् १८९४ ई० में "होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात" नामक नाटक की रचना की। सन् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय "रुठी रानी" नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन् १९०४-०५ में "हम खुर्मा व हम सवाब" नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा-जीवन और विधवा-समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया। जब कुछ आर्थिक निर्जिंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।"सेवा सदन", "मिल मजदूर" तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए "महाजनी सभ्यता" नाम से एक लेख भी लिखा था।
मृत्यु-
सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने "प्रगतिशील लेखक संघ" की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।
(भारत दर्शन से साभार)

Thursday 30 July 2009

‘‘परिभाषा’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



आंग्ल-भाषा का पहला शब्द-कोष बनाने वाले डॉ. जॉनसन ने शब्दों को अकारादि क्रम से जोड़ा। लेकिन शब्दों के अर्थ लिखने की बजाय उनकी परिभाषाएँ लिख दीं।
ऐसा करने की वजह शायद यह रही होगी कि शब्द का अर्थ ठीक से समझ में आ जाये।
उदाहरण के तौर पर-
‘सिगरेट’ का अर्थ उन्होंने लिखा-‘‘सिगरेट कागज में लिपटा हुआ तम्बाकू है। जिसके एक तरफ धुँआ होता है और दूसरी तरफ एक बेवकूफ।’’
कैसी रही यह परिभाषा?

Sunday 26 July 2009

‘‘काश् हर परिवार में ऐसी श्रद्धा हो!’’ (डा0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



(चित्र में- श्री राकेश चन्द्र रस्तोगी और उनके पुत्र निपुण रस्तोगी)
का दिन मेरे लिए काफी व्यस्त रहा। यदि सार्थक कहा जाये तो ज्यादा उपयुक्त होगा।
मेरे अभिन्न मित्र ही नही अपितु पारिवारिक जैसे श्री राकेश चन्द्र रस्तोगी की ताई जी का चार दिन पूर्व निधन हो गया था। पारिवारिक रिश्ते होने के कारण मैं उनकी अन्त्येष्टी में भी सम्मिलित हुआ था। लेकिन आज उनकी तेरहवीं थी।
स्वर्गीया श्रीमती दुर्गावती रस्तोगी का जन्म 10 अक्टूबर, 1928 को लखनऊ के स्वनामधन्य श्री जवाहर लाल रस्तोगी जी के यहाँ हुआ था। आप प्रारम्भ से ही बड़ी मेधावी थीं। खुन-खुन जी डिग्री कालेज, लखनऊ से आपने बी0ए0, सी0टी0 पास किया और 1960 में आपका विवाह बदायूँ निवासी श्री आनन्द प्रकाश रस्तोगी जी के साथ हुआ। कालान्तर में यह परिवार खटीमा में आकर गया। जीवन के संघर्षो को झेलते हुए इस दम्पत्ति ने अपने परिश्रम से ऊँचाइयों के शिखर को छू लिया।
आज प्रभात फाम्र्स के नाम से आपका विशाल कृषि फार्म है। परिवार में एक पुत्र नवीन रस्तोगी, पुत्रवधु, एक पौत्र नितिन रस्तोगी, उसकी पत्नी सनामिका तथा एक प्रपौत्र है।
श्री आनन्द प्रकाश रस्तोगी जी के के छोटे भाई के पुत्र श्री राकेशचन्द्र रस्तोगी एक पेपर मिल खटीमा फाइबर्स लि0 के स्वामी हैं। आज श्रीमती दुर्गावती जी रस्तोगी के ब्रह्मभोज में जब मैं प्रभात फार्म पर गया तो मैंने वहाँ इतना प्रेम व श्रद्धा का वातावरण देखा कि मन गद्-गद् हो गया।
शाम को खटीमा फाइबर्स लि0 के परिसर में शोक-सभा आयोजित की गयी। जिसमें रस्तोगी परिवार के इष्ट-मित्र, सगे-सम्बन्धियों के अतिरिक्त नगर के सभी संभ्रान्त व्यक्ति मौजूद थे।
श्री राकेशचन्द्र रस्तोगी जी आग्रह पर इस श्रद्धांजलि सभा का संचालन स्वयं मैंने ही किया।
स्वर्गीया श्रीमती दुर्गावती रस्तोगी के प्रति इतनी श्रद्धा और परिवार का इतना स्नेह देख कर मैं भाव विभोर हो उठा।
स्वर्गीया श्रीमती दुर्गावती रस्तोगी के पतिदेव श्री बाबू आनन्द प्रकाश रस्तोगी 94 वर्ष की आयु में भी अपने दैनिक कार्य स्वयं करते हैं। उनके जीवन से मुझे बड़ी प्रेरणा मिलती है।
ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वे शताधिक वर्षो तक स्वस्थ रह कर अपना जीवन यापन करें।


Friday 24 July 2009

‘‘प्राचीन नन्दीश्वर महादेव’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


(चित्र में मेरे मित्र गुरूसहाय भटनागर और मेरे पौत्र-पौत्री)

उत्तराखण्ड के ऊधमसिंहनगर जिले की तहसील खटीमा और सितारगंज थारू जनजाति के आदिवासी क्षेत्र कहलाते हैं।
जब मैं इस क्षेत्र में आया था तो आदिवासी लोगों के मुँह से एक कहानी सुनी थी। आज आपको भी वह कथा सुनाता हूँ।
नानकमत्ता से 6 किमी दूर एक गाँव बिल्कुल जंगल के बीच में बसा हुआ है। पुराने समय में कुछ लोगों ने खेत में एक गाय का बच्चा देखा। यह बहुत सुन्दर था और इसका रंग बिल्कुल सफेद था। जैसे ही लोग इसके पास गये तो यह पत्थर का हो गया। लोगों ने इसे उठाने का बड़ा प्रयास किया लेकिन यह टस से मस भी नही हुआ। थक हार कर लोगों ने इसे वहीं पर छोड़ दिया।
अगले दिन यह बछड़ा फिर किसी दूसरे खेत में दिखाई दिया। लोग जैसे ही इसके पास गये। यह फिर पत्थर का बन गया। लोगो ने इसे फिर उठाने की कोशिश की परन्तु यह कई लोगों के जोर लगाने पर भी नही उठा। तभी एक बालिका ने शिव आराधना की और इसे उठाया तो यह उसके हाथों से ऐसे उठ गया जैसे कि कोई प्लास्टिक का खिलौना हो।
अन्ततः इस बालिका ने इसे एक पीपल के पेड़ के नीचे स्थापित कर दिया। इस स्थान को नन्दीश्वर महादेव का नाम दिया गया। कालान्तर में यहाँ प्राचीन नन्दीश्वर महादेव का मन्दिर बना दिया गया।
कई वर्षों तक तो मुझे इस कहानी पर यकीन ही नही हुआ। लेकिन मन में यह इच्छा बनी रही कि इस स्थान को देखना अवश्य चाहिए।
अतः इस वर्ष महा शिवरात्रि के अवसर पर हम लोग इसके दर्शन करने के लिए गये।
अब यहाँ जाने लिए पक्की सड़क बना दी गयी है। इसके इर्द-गिर्द एक गाँव भी बस गया है।
प्रतिवर्ष शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ मेला लगता है जिसमें काफी श्रद्धालू यहाँ पूजा-अर्चना करने के लिए आते हैं।
यहाँ शुद्ध दूध और शुद्ध घी चढ़ाया जाता है। प्रसाद के रूप में प्रतिदिन इस दूध की खीर बनाई जाती है तथा भक्तों को खिलाई जाती है।
यहाँ जो घी चढ़ाया जात है उससे नानकमत्ता गुरूद्वारा में कड़ाह-प्रसाद बनाया जाता है।
इस स्थान पर जाने पर मुझे इस कहानी पर विश्वास हो चला है।

Sunday 19 July 2009

‘‘शारदा सागर जलाशय’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)




जनाब ये किसी समुद्र का सीन नही है।
यह है भारत नेपाल सीमा पर बना शारदा सागर जलाशय। यह दिल्ली से 320 किमी की दूरी पर उत्तराखण्ड के ऊधमसिंहनगर जिले के खटीमा से उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले तक एक बड़े हिस्से में फैला हुआ है।
आज हम आपको उत्तराखण्ड के खटीमा से जिला पीलीभीत तक फैले इसी शारदासागर डाम की सैर पर ले चलते हैं।
कुमाऊँ की पहाड़ियों से चल कर उत्तर प्रदेश के बड़े भूभाग को सिंचित करने वाली शारदा नहर के किनारे ही यह शारदा सागर बाँध है।
यह लम्बाई में लगभग 30किमी तक फैला है और इसकी चैड़ाई 5 किमी के लगभग है। यह जलाशय भूमि की सतह से नीचे है। इसलिए इसके फटने तथा कटने की सम्भावना बिकुल नही है।
खटीमा से नेपाल बार्डर की ओर जाने पर 12 किमी की दूरी पर यह प्रारम्भ हो जाता है। प्रतिवर्ष इस बाँध का मछली पकड़ने का ठेके की नीलामी करोड़ों रुपयों में होती है। इसके अरिक्ति इसमें से कई नहरें भी निकाली गयी हैं। जो कि खेती के सिंचन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अतः इसके किनारे पिकनिक मनाने का आनन्द ही अलग है।
दो वर्ष पूर्व घर में अतिथि आये हुए थे इसलिए हमने भी सोचा कि इसी के किनारे पिकनिक मनाइ जाये। घर से खाना पॅक किया और जा पहुँचे शारदा सगर डाम पर।

सबसे पहले शारदा सागर के नीचे ढलान वाले भू-भाग पर बनी चरवाहों की एक झोंपड़ी देखी तो उसने तो मन मोह ही लिया। ऐसी शीतल हवा तो घर के ए-सी व पंखे भी नही दे सकते। इसके बाद शारदा सागर का जायजा लिया।
अब कुछ थकान सी हो आई थी, भूख भी कस कर लगी थी अतः मैदान में ही चादर बिछा कर आराम से भोजन किया।
शारदा सागर की सीपेज से निकले स्वच्छ जल में महिलाओं को बर्तन सा करने में बड़ा आनन्द आया। वो जैसे ही जूठे बर्तन पानी में डुबोती वैसे ही सैकड़ों मछलियाँ बचा-खुचा खाना खाने के लिए लपक-लपक कर आ जाती थीं।
थोड़ी देर के लिए इसी मैदान में विश्राम किया और फिर से काफिला घर की ओर प्रस्थान कर गया।

Thursday 16 July 2009

दल-दल में कौन फँसेगा? (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)





आप इन से तो भली-भाँति परिचित ही हैं-


ये हैं:- पूर्व मुख्यमन्त्री पं0 हेमवती नन्दन बहुगुणा की बेटी,
श्रीमती रीता बहुगुणा जोशी! (अध्यक्ष-प्रदेश कांग्रेस कमेटी, उ0प्र0)
कसूरः- भावावेश में अशोभनीय शब्दों का प्रयोग!
गल्ती का आभास होने पर खेद भी प्रकट किया।

और ये हैं:-

उत्तर प्रदेश की वर्तमान मुख्यमन्त्री,बहन कु0 मायावती
(राष्ट्रीय अध्यक्ष-ब0स0पा0)

एक राजा - एक प्रजा

लोक-तन्त्र???

दल-दल में कौन फँसेगा???
राजा या...................


(चित्र गूगल सर्च से साभार)

Tuesday 14 July 2009

’’श्यामलाताल’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)




यदि प्रकृति का वास्तविक स्वरूप देखना हो तो आपको इसके लिए सबसे पहले टनकपुर आना पड़ेगा। लेकिन कम से कम 3 दिन का समय इसक लिए आपको निकालना ही होगा।
टनकपुर उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले में स्थित है। यह कुआऊँ का प्रवेश द्वार है। यह दिल्ली से 350 किमी दूर है और यह बरेली से रेलवे की छोटी लाइन से जुड़ा हुआ है।
टनकपुर पहुँयने पर आप सबसे पहले माता पूर्णागिरि के दर्शन करें। जो एक शक्ति-पीठ के नाम से जानी जाती है। यह टनकपुर से 25 किमी की दूरी पर पर्वत की चोटी पर है। आप श्रद्धा और प्रेम से माता के दर्शन करें।
अगले दिन आप नेपाल में स्थित ब्रह्मदेव मण्डी जाकर सिद्धबाबा के दर्शन करें। कहा जाता है कि माता के दर्शन करने पर सिद्धबाबा के दर्शन करना अनिवार्य माना जाता है।
तीसरे दिन आप मनोहारी छवि और प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध श्यामलाताल पहुँच कर कुदरत के नजारों का आनन्द ले सकते हैं।
यहाँ पर रामकृष्ण मठ द्वारा संचालित विवेकानन्द आश्रम है। जिसमें रामकृष्ण मिशन से जुड़े सन्त साधना करते हैं ।
वास्तव में यह मिशन का एक प्रशिक्षण केन्द्र है।

(चित्र गूगल सर्च से साभार)

Saturday 11 July 2009

‘ताज की वास्तविकता’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


‘‘अगर बुरा लगे तो क्षमा करना’’

हमारे विद्यालयों ओर विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है कि ताजमहल एक कब्र है। बादशाह शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताजमहल की याद में यह कब्र बनाई गयी थी।
इसे बनवाने के लिए कितने मजदूर, कितने वर्ष काम करते रहे?
नक्शा किसने बनाया था?
भवन कब बनकर तैयार हुआ?
उस पर कितनी लागत आई थी?
यह आज सब कुछ तैयार कर दिया गया है।
कौन पूछे कि बनाने वाले को तो उसी के बेटे ने जेल में डाल दिया था। उसकी हालत आर्थिक रूप से क्या थी? कि जिन्दा बाप ऐ-आबतरसानी। ऐ बेटे! तू अजब मुसलमान हैकि जिन्दा बाप को पानी की बून्द-बून्द के लिए तड़पा रहा है। तुझसे तो हिन्दू मूर्ति-पूजक बेहतर हैं जो श्राद्ध के नाम पर मरने के बाद भी माँ-बाप को भोजन भेज रहे हैं। किसी ने यह तो पूछना नही है कि उस जेल में पड़े लाचार बादशाह के पास इतना धन था भी या नही कि जो ताज बनवा सकता।
इतिहासकार ने लिखा है कि ताज के गिर्द पैड बनवाने में ही खजाना खाली हो गया था। हम पाठकों से यह निवेदन करेंगे कि यदि उन्हें कुछ अवसर मिले तो एक बार ताजमहल अवश्य देखें।
१ - ताजमहल के अन्दर प्रवेश करने से पहले मुख्यद्वार तक पहुँचने के लिए जो चाहर-दीवारी बनी है, उसमें सकड़ों छोटे बड़े कमरे बने हैं।
गाइड बतायेगा कि इनमें बादशाह के घोड़े बँधते थे, घुड़सवार यहाँ ठहरते थे।
हाँ! आप किसी गाइड से यह मत पूछ लेना कि कब्रिस्तान में घुड़सवार क्यों रहते थे? क्या मुरदे रात को उठ कर भाग जाते थे, जिन्हें रोकना जरूरी था? या, जीवित मुर्दे रहते थे, जिनकी रक्षा और सेवा के लिए घुड़सवार चाहिए थे?
२ - यहाँ प्रविष्ट होते ही एक कुआँ है जो पहले यन्त्रों के द्वारा चलाया जाता था। उस कुएँ की कई परतें हैं। सारा कुआँ यन्त्र से खाली किया जा सकता था। यदि जरूरत हो तो उसमें से पीछे बहने वाली यमुना नदी में सुरक्षित पहुँचा जा सकता था। निचले तल में कोई भी सामान सुरक्षित करके रखा जा सकता था और साथ ही ऊपर के तल को यमुना के पानी से इस प्रकार भरा जा सकता था कि नीचे की तह का किसी को पता भी चले और सामान भी सुरक्षित रह जाये।
(क्या यह विलक्षण कलायुक्त कूप इस स्थान को मुर्दो की बस्ती की जरूरत की चीज बता सकता है।)
३ - आगे खुले मैदान में दो कब्रें बनी हैं। इतिहास साक्षी है कि मुमताज आगरा में नही मरी थी। वह तो खण्डवा के पास बुरहानपुर में १० -१२ वर्ष पहले मरी थी और वहीं दफनाई गयी थी। आज भी वहीं उसकी कब्र बनी है।
परन्तु गाइउ आपको बतायेगा कि बुरहानपुर से कब्र में से निकाल कर लाश १२ वर्ष बाद खोद कर लाई लाई गयी और यहीं आगरा में सुरक्षित इस स्थान पर कब्र में नीचे रख दी गयी। जब ताज का निर्माण पूरा हो गया तो वहाँ से फिर खोद कर निकाली गई और उसे ताज भवन में दफना दिया गया। उस ऊँचे गुम्बद के नीचे जहाँ पटल लगा है, मलिका मुमताज महल नीचे की कब्र में हमशा की नींद सो रही है।
परन्तु आप हैरान होंगे कि जहाँ असली कब्र बताई जाती है वह स्थान तो भूमि ही नही है। वह ताज भवन के दुमंजिले की छत है। पीछे बहने वाली यमुना नदी उससे २० - २५ फीट नीचे ताज की दीवार के साथ सट कर बह रही है। यानि कब्र के नाम पर दुनिया की आँखें में धूल झोंक दी गयी है। कब्रें छतों पर नही भूमि पर बनतीं हैं।
४ - उसके पीछे की दीवार में (यमुना में खड़े होकर देखने पर साफ दिखाई देता है कि दीवार में बहुत सारी खिड़कियाँ बनी हैं, जिन्हें पत्थर - मिट्टी भरकर बन्द करने की कोशिश की गई है। परन्तु वे अधखुली खिड़कियाँ चुगली कर रही हैं।) अन्दर ताज की कब्र की सीढ़ी के सामने भी एक दरवाजा है। उसे ताला लगा कर बन्द किया गया है, जिस पर पटल लगा है-
सरकारी आदेश से अमुक सन् में यह द्वार बन्द किया गया है।
यदि आप यह दरवाजा खुलवा कर कभी अन्दर झाँक सकें तो वहाँ पुरानी टूटी मूतियाँ और मन्दिर के खण्डहर मिल जायेंगे। वहाँ उस मंजिल में पचासों कमरे हैं जिनकी खिड़कियाँ जमुना जी की तरफ खुलती हैं।
इस पर हमसे कहा जाता है कि इस बात पर विश्वास कर लो कि यह कब्रिस्तान है। ये कमरे क्या मुरदों के निवास के लिए बनाये गये थे?
५ - भवन के सामने भूमि पर ताज का मानचित्र बनाया गया है। जो भारतीय वास्तुकला के नियमानुसार है।
ताज शिखर पर जो मंगलघट बना है। उस घट के मुख पर नारिकेल और आम्रपत्रिकाएँ बनाई गयी हैं और त्रिशूल चमक रहा है। वही सब कुछ मानचित्र में भी बना है।
इतने सारे प्रमाण होते हुए भी अंग्रेज लोग २०० साल तक हमें यह पढ़ाते रहे कि यह मुस्लिम संरचना है।
आजादी के साठ से अधिक वर्ष बीत जाने पर भी आज तक हमारे कालिजों में इतिहास की खोजो के नाम पर वही पढ़ाया जा रहा है जो कि अंग्रेज हमें पढ़ाते थे।
(अमृतपथ, देहरादून जुलाई ,२००९ से साभार)

Thursday 9 July 2009

‘‘बनबसा बैराज भगवान भरोसे’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



एक समय वह था जब नेपाल सीमा पर स्थित नॅनीताल कमिश्नरी के बनबसा की धूम मची रहती थी।

यहाँ शारदा नदी पर बना यह बैराज लगभग 60-70 वर्ष पुराना है। यह भारत को उत्तरी नेपाल से जोड़ने वाला एक मात्र मार्ग हैं। यहाँ के गेस्ट हाउस आज भी अपनी शान-औ-शौकत के लिए प्रसिद्ध हैं।

अब यह स्थान उत्तराखण्ड के जिला चम्पावत में स्थित है।

अविभाजित उत्तर प्रदेश में इस बैराज रख-रखाव के लिए पर्याप्त धन प्रतिवर्ष आता था। आज भी इस बैराज पर उत्तर प्रदेश का कब्जा है। परन्तु है यह उत्तराखण्ड की भूमि पर। इसलिए उत्तर प्रदेश शासन ने इसकी ओर से अपनी नजर फेर ली है। क्योंकि देर-सबेर यह उत्तराखण्ड को ही हस्तान्तरित होना है।

इस बैराज से एक बड़ी नहर भी निकलती है। जिसको शारदा नहर के नाम से जाना जाता है। खटीमा में इसी नहर पर लोहियोड पावर हाउस के नाम से एक बिजलीघर भी है। इसके साथ ही इस बैराज से एक छोटी नहर नेपाल को भी दी गयी है।

बैराज पार करते ही भारत की सीमा पर स्थित कस्टम तथा इमीग्रेशन चेक पोस्ट भी हैं और लगभग 500 मीटर के बाद नेपाल देश की सीमा प्रारम्भ हो जाती है।

यदि इस बैराज की यूँ ही उपेक्षा होती रही तो इसका अस्तित्व समाप्त होने में देर नही लगेगी।

Tuesday 7 July 2009

‘‘ एक लाश को गोलियों से भूनने वाली पुलिस! शाबाश....!!’’ (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


मैं भारत में रहता हूँ। इस देश में एक राज्य है ‘‘उत्तराखण्ड’’।

उत्तराखण्ड की छवि देश में एक सीधे-सहज और ईमानदार प्रदेश के रूप में सुविख्यात है। जहाँ इस प्रदेश ने लाखों रण-बाँकुरे सैनिक राष्ट्र को दिये हैं, वहीं इस प्रदेश की पुलिस भी बहादुरी में अपने कीर्तिमान स्थापित करने में पीछे नही रही है।

चार दिन पूर्व यहाँ की पुलिस ने अपना रुतबा कायम करने के लिए एक पढ़े-लिखे निर्दोष नौजवान को थाने में मे ले जाकर इतना मारा कि उसने अपने प्राण त्याग दिये। फिर उसकी लाश को जंगल में ले जाकर गोलियों से छलनी कर दिया।

इस दुर्दान्त कार्य कर को नाम दिया गया एनकाउण्टर।

यह कारनामा तो सिर्फ और सिर्फ उत्तराखण्ड पुलिस ही कर सकती है।

मेरे मन से अनायास ही निकल पड़ता है कि वाह री बहादुर पुलिस!

शाबाश..! शाबाश..! शाबाश....!!!

Monday 6 July 2009

‘‘हरिभूमि’’ हिन्दी दैनिक समाचारपत्र में ब्लॉग-चर्चा

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समाचार पत्र की कटिंग श्री बी0एस0पाबला के ब्लाग से साभार।

Sunday 5 July 2009

‘‘एक एनकाउण्टर होने से बच गया’’(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


लगभग 13-14 वर्ष पुरानी बात है। उन दिनों मैं पत्रकार परिषद का अध्यक्ष था।

पास के गाँव चकरपुर में रात को 8 बजे के लगभग किसी तस्कर को कस्टम के लोगों ने पकड़ रखा था। लेन-देन की बात हो रही थी। तभी अमर उजाला का तत्कालीन पत्रकार अनीस अहमद वहाँ पहुँच गया।

वह इस घटना की कवरेज कर रहा था कि एक कस्टम इंस्पेक्टर की नजर उस पर पड़ गयी। अनीस अहमद ने इस कस्टम अधिकारी को बताया कि मैं अमर-उजाला का स्थानीय पत्रकार हूँ। बस इतना सुनना था कि कस्टम अधिकारी ने अपने सिपाहियों की सहायता से जीप में डाल लिया और जंगल की ओर जीप मोड़ दी।

रात का अंधेरा था। अनीस अहमद बिल्कुल युवा था वह मौका मिलते ही जीप से कूद गया और जंगल में छिपते-छिपाते नेपाल के रास्ते होते हुए सुबह 4 बजे मेरे निवास पर पहुँचा।

उसकी पूरी कहानी सुन कर मेरे रोंगटे खड़े हो गये। मैंने अनीस को अपने घर में पनाह दी या यूँ कहे कि छिपा लिया। प्रातःकाल होते ही खटीमा थाने में अनीस को कस्टम अधिकारियों द्वारा अगवा करने की रपट लिखा दी गयी।

अब छान-बीन शुरू हुई। कस्टम अधिकारियों को थाने में तलब कर लिया

बीच सायंकाल मैंने अन्य पत्रकारों के सहयोग से अनीस का मेडिकल कराया। उस के शरीर पर 15 चोटों के निशान थे। फिर अनीस को थाने में पेश कर दिया गया।

पुलिस अनीस की निशानदेही पर उस स्थान पर भी गई, जहाँ अनीस जीप से कूद कर भागा था। अन्ततः 2 कस्टम अधिकारियों को जेल भेज दिया गया।

इस तरह से एक एनकाउण्टर होने से बच गया।

Friday 3 July 2009

‘‘ समलैंगिक सम्बन्ध : मेरी दृष्टि में ’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


समलैंगिक सम्बन्धों को मान्यता देने का समाचार पढ़ा तो मन को एक धक्का जैसा लगा और एक आह सी निकल पड़ी।
मन के कोने से आवाज आयी- ‘‘हे भगवान! यह देश कहाँ जा रहा है?’’
जगद्गुरू कहलाने वाला भारत आज किस संस्कृति की ओर अग्रसर हो रहा है।
हमारे नेतागण तो इसे न्यायालय का बहाना बना कर इस पर कभी कुछ बोलने वाले नही हैं।
परन्तु तरस तो उन मा0 न्यायाधीश की बुद्धि पर आता है। जिन्होंने कि बिना कुछ सोचे विचारे विदेशी संस्कृति का सहारा लेकर समलैंगिक सम्बन्धों को बैध ठहरा दिया है।
यदि वह प्रकृति का ही सहारा ले लेते तो अच्छा था।
कुदरत ने भी विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण का सिद्धान्त अपनाया हुआ है।
यदि पशु और पक्षियों की बात करें तो वह भी विपरीत लिंग के प्रति ही आकृष्ट होते हुए पाये जाते हैं।
अतः मेरी दृष्टि में समलैंगिक सम्बन्ध-
एक दुराचार, अनाचार और भ्रष्टाचार ही है।

Wednesday 1 July 2009

‘‘तीन प्रकार की बुद्धि’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



आज विद्यालय का पहला दिन था।
प्रार्थना के समय अपने विद्यालय के बच्चों को कुछ कहने जा रहा था कि मन में आया कि आज बुद्धि के बारे में कुछ बताया जाये।
संसार में बहुधा तीन प्रकार की बुद्धियाँ मानी जाती हैं।
इनको मैंने कुछ इस प्रकार से बताया-
प्यारे बच्चों!
बुद्धियाँ तीन प्रकार की होती हैं -
1- रबड़ बुद्धि 2- चमड़ा बुद्धि और 3- तेलिया बुद्धि।
रबड़ बुद्धि का नाम सुनते बहुत से बालकों ने अपने हाथ खड़े किये और कहा- ‘‘सर जी! हमारी बुद्धि रबड़ है।’’
जब चमड़ा बुद्धि का नाम सुना तो इक्का दुक्का बालकों ने ही हाथ खड़े किये और तेलिया बुद्धि का नाम सुन कर तो किसी ने अपना हाथ नही खड़ा किया।
अब मैंने व्याख्या करनी शुरू की।
रबड़ बुद्धि रबड़ की भाँति होती है। कितना भी समझाओ खीचो-तानो मगर वह फिर अपनी जगह पर आ जाती है। रबड़ में सूई से कितने ही सुराख कर दो है मगर वो बन्द हो जाते हैं। अर्थात जिस बुद्धि में कुछ भी न समाये वो रबड़ बुद्धि कहलाती है।
अब विद्यार्थियों ने कहना शुरू किया- ‘‘सर जी! हमारी बुद्धि तो चमड़ा बुद्धि है।’’
मैंने चमड़ा-बुद्धि की व्याख्या करनी शुरू की। चमड़ा बुद्धि वह बुद्धि होती है जो चमड़े के समान होती है । चमड़े में जितना सूराख कर दो वह उतना ही रहता है।गुरू जी ने जितना समझाया बस उतना हल ग्रहण कर लिया। अपना दिमाग बिल्कुल भी नही लगाया। यह औसत दर्जे की बुद्धि कहलाती है।
तीसरे प्रकार की बुद्धि तेलिया बुद्धि होती है। इसे कुशाग्र-बुद्धि या उत्तम प्रकार की बुद्धि भी कह सकते हैं। जिस प्रकार कागज पर एक तेल की बून्द गिरने पर वह पूरे कागज में फैल जाती है। इसी प्रकार तेलिया बुद्धि वाले को इशारा ही काफी होता है। गुरू ती ने पाठ याद करने को दिया तो तेलिया बुद्धि वाले बच्चे अगले दिन पढ़ाये जाने वाले पाठ की भी तैयारी करके आते हैं।