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Friday 23 September 2011

"नये नेता का चुनाव" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


"नये नेता का चुनाव"
नये नेता का चुनाब यह वाक्य सुनने में कितना अच्छा लगता है। भारत के किसी राज्य में जब भी कोई बहुमत वाला राजनीतिक दल अपने नए नेता का चुनाव करवाता है तो बड़े बेमन से विधायकों को नेता के चुनाव पर अपनी मुहर लगाना होता है। क्योंकि नेता का चयन तो हाईकमान पहले से ही कर देता है। लेकिन हमने रीति ही ऐसी बना ली है कि मजबूरी में यह सब करना पड़ता है और हाईकमान के फैसले को झेलना पड़ता है।
इस पर बहुत से प्रश्न दिमाग में कौंधने लगते हैं।
क्या एक लोकतान्त्रिक देश में यह प्रक्रिया शोभनीय है?
क्या राजनीतिक दल द्वारा थोपा गया फैसला विधायकों का अपना फैसला होता है?
क्या विधायकों को अपनी पसंद का नेता चुनने का भी हक नहीं है?
क्या इससे दलगत राजनीति में असन्तोष समाप्त होगा?
इन प्रश्नों का उत्तर तो एक ही है कि नेता कभी भी उन विधायकों की पसंद का नहीं होता है जिनके साथ नेता को अपनी सरकार चलानी होती है।
सच तो यह है कि यह ऊपर से थोपा गया नेता पार्टी के हाथों की कठपुतली बना रहता है और अपने मन्त्रिमण्डल के मन्त्रियों के चुनाव करने में भी वह स्वतन्त्र नहीं होता है। छोटी-छोटी बातों के लिए उसे हमेशा केन्द्रीय संगठन तक दौड़ लगानी पड़ती है।
राज्य के हित में लिए जाने वालो फैसलों के लिए भी उसे हाईकमान का मुँह देखना पड़ता है। यही कारण है कि वह कभी भी अपने को स्वतन्त्र महसूस नहीं करता है और अपने दल के विधायकों का चहेता नहीं बन पाता है। क्योंकि उसका चुनाव उसके विधायकों ने नही किया होता है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश में यह लोकतन्त्र की हत्या नहीं तो और क्या है?
क्या आजादी के 65 वर्ष के बाद भी हम सामन्तवादी युग में नहीं जी रहे हैं?
यदि हमें अपनी प्रजातान्त्रिक छवि अक्षुण्ण रखनी है तो इस प्रथा को बदलना ही होगा। तभी हम दलगत असन्तोष से मुक्त हो सकते हैं।

Wednesday 14 September 2011

"हिन्दी दिवस के साथ कार की भी वर्षगाँठ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

आज हिन्दी दिवस के साथ
मेरी कार की भी प्रथम वर्षगाँठ है!
प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को भारत के लोग हिन्दी दिवस मनाते हैं और हिन्दी के प्रति अपनी श्रद्धा को प्रकट कर देते हैं। उसके बाद पूरे साल वही गिटर-पिटर का टर-टर स्वर आलापते रहते हैं।
आज से 62 वर्ष पूर्व जब महात्मा गांधी जीवित थे 14 सितम्बर, 1949 को भारत की संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया था कि हिन्दी भारत की राजभाषा कहलाएगी।
इस निर्णय पर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाया जाने लगा।
मेरी कार की प्रथम वर्षगाँठ


मित्रों! मैंने सन् 2010 में आज के ही दिन मारूति कम्पनी की ज़ेन स्टिलो कार भी खरीदी थी! देखते-देखते एक साल इतनी जल्दी व्यतीत हो गया और मेरी इस प्यारी सी कार की आयु भी एक वर्ष हो गई!
सिर्फ इतना ही नहीं मैंने इसमें स्वयं और परिवार के साथ 4,500 किमी की सुखद यात्रा भी की।


मेरी 6 वर्षीया पोती प्राची को तो यह बहुत पसन्द है। वह स्कूल से आकर इसमें एक बार तो रोज ही बैठ जाती है। कार में बैठकर जब हम लोग इसको साथ ले जाते हैं तो इसका सबसे पहला काम ए-सी चलाना होता है।

Tuesday 6 September 2011

"अच्छी सेहत का राज़" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


     बहुधा देखा गया है कि लोग 60 साल की आयु में आते-आते बहुत चिड़चिड़े स्वभाव के हो जाते हैं। जिसके कारण उनका तन और मन भी सूखने लगता है। बहुत सी बीमारियाँ भी घेर लेती हैं और दुनिया से मोह भंग होने लगता है। इसके बहुत से परिस्थितिजन्य कारण हो सकते हैं।
कहा जाता है कि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन वास करता है और इसके लिए कोई अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। बस जरूरत है आहार और विहार की। मैं इसको स्पष्ट करने के लिए अपने जीवन से जुड़ी हुई कुछ बातें आपके साथ साझा करना चाहता हूँ।
मेरा जन्म उत्तर-प्रदेश नजीबाबाद के रम्पुरा मुहल्ले में हुआ था। उस समय पिता जी पटवारी के पद पर कार्यरत थे। अतः गुज़ारा आराम से हो जाता था। बाद में चौधरी चरण सिंह मुख्यमऩ्त्री बने। उस समय पटवारियों की हड़ताल चल रही थी। हड़ताल ख़त्म करने के लिए 48 घण्टे का समय दिया गया। लेकिन पिता जी इस अवधि में काम पर नहीं लौटे तो नौकरी से टर्मिनेट कर दिया गया। अब हमारे गर्दिश के दिन शुरू हो गये थे।
माता जी पानी के हाथ की रोटी बनाती थी। कभी-कभी एक सब्जी और अचार तथा कभी अचार के साथ रोटी। यही हमारा खाना और नाश्ता था। फिर शाम को दाल-भात और रोटी। दिन में सब लोग अपने काम में लग जाते थे।
समय बीतता रहा और मैं डॉक्टर बन गया। ईश्वर की कृपा ऐसी रही कि मैं जिस रोगी को दवा देता उसको आराम हो जाता। हमारे अच्छे दिन फिर लौट आये थे। मगर खाना वही गरीबी वाला ही मन में बसा हुआ था। जबकि मेरे पुत्र जिन्होंने कि खाते-पीते परिवेश में आँखें खोली थी। वो आज भी रईसों की तरह ही सुबह 9 बजे नाश्ता लेते हैं, अपराह्न 3 बजे दोपहर का खाना और रात का खाना 9-10 बजे तक खाते हैं।
अरे! अपनी धुन में मग्न हो गया मैं तो और आलेख लम्बा हो गया। किन्तु जिस बात को बताने केलिए यह लेख लिखा वो तो भूल ही गया। अब उसी पर आता हूँ।
लोग पूछते हैं कि शास्त्री आपकी कितनी आयु है। मै सहज भाव से बता देता हूँ कि साठ साल। लोग आश्चर्य करते हैं कि इस उम्र में भी मेरी आँखे-दाँत. कान और शरीर स्वस्थ क्यों है?
चलिए आपको इसका राज़ बता देता हूँ!
मैं सुबह 5 बजे उठता हूँ। शौच आदि से निवृत्त होकर 15-20 मिनट हलका-फुलका सहज योग करता हूँ। स्नान के बाद इण्टरनेट का व्यसन भी कर पूरा लेता हूँ। तब तक श्रीमती जी पानी के हाथ की दो रोटी और चावल ले आती हैं। इसे आप चाहे मेरा नाश्ता कहें या खाना कहें, मैं खा लेता हूँ। वैसे मुझे काले चने मिले हुए पीले चावल बहुत अच्छे लगते हैं। दिन में एक-दो चाय मित्रों के साथ हो जाती हैं। डेढ़-दो बजे दोपहर तक रोगियों को भी देखता रहता हूँ और आभासी दुनिया में इंटरनेट के माध्यम से जुड़ा रहता हूँ। शाम को सात बजे से पहले ही भोजन कर लेता हूँ। किसी बात को मन में गाँठ बाँधकर नहीं बैठता हूँ। सोचता भी बहुत कम ही हूँ। अतः बड़ा से बड़ा नुकसान होने पर भी गर्दन झटक कर चिन्ता को हटा देता हूँ।
मित्रों यही मेरे अच्छे स्वास्थ्य का राज़ है।