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Saturday 15 May 2010

“काश् ये ज़ज्बा हमारे भीतर भी होता?” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

सन् 1979, बनबसा जिला-नैनीताल का वाकया है। उन दिनों मेरा निवास वहीं पर था । मेरे घर के सामने रिजर्व कैनाल फौरेस्ट का साल का जंगल था। उन पर काले मुँह के लंगूर बहुत रहते थे।
मैंने काले रंग का भोटिया नस्ल का कुत्ता पाला हुआ था। उसका नाम टॉमी था। जो मेरे परिवार का एक वफादार सदस्य था। मेरे घर के आस-पास सूअर अक्सर आ जाते थे। जिन्हें टॉमी खदेड़ दिया करता था ।

एक दिन दोपहर में 2-3 सूअर उसे सामने के कैनाल के जंगल में दिखाई दिये। वह उन पर झपट पड़ा और उसने लपक कर एक सूअर का कान पकड़ लिया। सूअर काफी बड़ा था । वह भागने लगा तो टॉमी उसके साथ घिसटने लगा। अब टॉमी ने सूअर का कान पकड़े-पकड़े अपने अगले पाँव साल के पेड़ में टिका लिए।
ऊपर साल के पेड़ पर बैठा लंगूर यह देख रहा था। उससे सूअर की यह दुर्दशा देखी नही जा रही थी । वह जल्दी से पेड़ से नीचे उतरा और उसने टॉमी को एक जोरदार चाँटा रसीद कर दिया और सूअर को कुत्ते से मुक्त करा दिया।
हमारे भी आस-पास बहुत सी ऐसी घटनाएँ आये दिन घटती रहती हैं परन्तु हम उनसे आँखे चुरा लेते हैं और हमारी मानवता मर जाती है।
काश! जानवरों सा जज्बा हमारे भीतर भी होता?

16 comments:

  1. शास्त्री जी बहुत बढ़िया संस्मरण प्रस्तुत किया आपने आज हम लोग कुछ मामलों में जानवर से भी पीछे हो गये है हम लोगों को तो तमाशा देखने में ही मज़ा आती है भले किसी की जान जाती हो हम बीच में कुछ बोलने वाले ही नही क्योंकि हमारी मानसिकता यहीं है की जब तक कुछ अपना नुकसान नही हो रहा चुप बैठो और मज़े लो.....सुंदर प्रसंग के लिए धन्यवाद एक प्रेरक प्रसंग...

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  2. बढ़िया संस्मरण शास्त्री जी , निचोड़ ये निकला कि जानवर इंसानों से कही बेहतर और समझदार है !

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  3. जानवरों सा जज्बा हमारे भीतर भी होता
    ...
    शास्त्री जी, है तो सही जानवरों का जज्बा।
    जानवरों में इंसानियत चली गयी और इंसानों में जानवरियत आ गयी।

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  4. vinod ji , neeraj ji aur godiyal ji ki baat se sahamt hun..........insaan bacha hi kahan hai sirf shabd rah gaya hai.

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  5. संस्मरण के माध्यम से इंसानियत का पाठ पढा दिया आपने धन्यवाद शास्त्री जी।

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  6. इस प्रकरण में गलत कौन था --सूअर , टौमी या लंगूर ?

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  7. सच में इंसान अपनी जज़्बात खोता जा रहा है इन जानवरों से बदतर हो गया है ।

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  8. bahut hi badhiyaa... kaash ka arth hi hai ki hum aisa chahte hain, aur chaah pooree hoti hai

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  9. काश! जानवरों सा जज्बा हमारे भीतर भी होता?

    Kash!

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  10. हालांकि हम उसी लंगूर की परिष्कृत संतान हैं लेकिन अब हम सभ्य और शहरी हो गये हैं ,जंगलीपन छोड़ के,
    तो हम उसके जैसे किस तरह हो सकते हैं ?

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  11. बढ़िया संस्मरण शास्त्री जी

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  12. सुन्दर संस्मरण. कभी कौवे की मौत और आदमी की मौत का फर्क देखें. कौवे की सड़क पर बिजली के तार से गिरकर मौत हो जाये तो सब कौवे इकठ्ठा हो जायेंगें, पर आदमी के अक्सिडेंट पर....

    ____________________________
    'शब्द-शिखर' पर- ब्लागिंग का 'जलजला'..जरा सोचिये !!

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  13. शास्त्री जी बहुत ही बढ़िया संस्मरण!

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