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Saturday 19 September 2009

‘‘अँगूठा छाप को काम, मनमाना दाम’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

बरसात से पूर्व घर में कुछ छुट-पुट मरम्मत का कार्य करवाना था। एक अदद राज मिस्त्री और दो मजदूरों की जरूरत थी।
इन्हें लाने के लिए चौराहे पर गया। 300 रु0 प्रतिदिन मजदूरी के हिसाब से राज-मिस्त्री तो मिल गया।
अब मजदूर खोजने लगे। 2-4 लोगों से कहा कि मजदूरी पर चलोगे।
उन्होंने पूछा-‘‘क्या काम है।
हमने कहा- ‘‘छुट-पुट मरम्मत का काम है।’’
मजदूरों ने कहा- ‘नही जायेंगे साहब! लिण्टर के काम में जायेंगे, वहाँ 170 की मजदूरी मिलती है।’’
काफी खोज-बीन के बाद 150 रु0 प्रतिदिन के हिसाब से दो मजदूर मिल ही गये।
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जुलाई का प्रथम सप्ताह। विद्यालय में नये अध्यापकों के लिए इन्टरव्यू चल रहे थे। रिक्तियाँ लगभग पूरी हो गयी थी।
अगले दिन एक नौकरी की आशा में एक नवयुवक विद्यालय में आया।
योग्यता थी- एम0एससी०, लेकिन अध्यापकों के पद तो सारे भरे जा चुके थे।
विद्यालय के प्रबन्धक ने इस युवक को कह दिया-‘‘सीटे सारी भरी जा चुकी हैं, हमारे यहाँ कोई वैकेन्सी नही है।"
अब युवक गिड़गिड़ाते हुए बोला- ‘‘सर! 1500 रु0 महीने पर ही रख लीजिए।’’
हमने अपना माथा पीट लिया-
‘‘वाह! अँगूठा छाप को काम मनमाना दाम।’’
और पढ़े-लिखे लोग बेकार.......दर-दर की ठोकरे खाने को मजबूर।

11 comments:

  1. यहाँ, आपकी बात से पूर्णतया सहमत नहीं हूँ शास्त्री जी, यह सही है कि आज पढा लिखा इंसान दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर है लेकिन एक उस मजदूर का अधिक ध्याडी का अपना प्रयास भी पूर्णतया उचित है ! आज हालत यह है कि एक आम-आदमी ही दूसरे आम आदमी का दुश्मन बन बैठा है ! क्या नहीं था हमारे देश में रोजगार के लिए, सब कुछ था लेकिन हमने कुछ कमीने और स्वार्थी लोगो के चंगुल में फसकर खुद अपने लिए कांटे बो डाले ! आज सब नेता और भाई बनकर रातोरात अमीर बनने की फिराक में है, लेकिन यह सरकार उस इंसान को क्या सुविधाए दे रही है जो मेहनत कर एक फैक्ट्री लगाने की सोच रहा हो? उल्टे ये सर्टिफिकेट, वो सर्टिफिकेट, ये रजिस्टरेशन, वो रजिसत्रेसन, दुनिया भर के लफडे ! किसी तरह उसने फैक्ट्री लगा भी दी अगले ही दिन से आज लेबर इंस्पेक्टर, कल सेल्स टैक्स, परसों एक्स्सायिज इस्पेक्टर , साल के आख़िरी में इन्कोमे टैक्स वाले, इंसान कोई उद्यम लगाने की सोचे भी तो कैसे ? नतीजा, मजबूरन चाइनीज मटेरिअल खरीदो !

    विदेशो में खासकर गल्फ कंट्रीज में, लेबर क्लास, बाबू क्लास से ज्यादा कमाती है, उन्हें ज्यादा वेतन मिलता है ! और यहाँ, एक बेचार मजदूर अगर शाम को १००-१५० रूपये ध्याडी लेकर घर आता है तो बड़े परिवार के लिए तो १०० रुए किलो की दाल दो वक्त के लिए भी नहीं होती ! इसलिए उसका ऊँची ध्याडी ढूँढना लाजमी है, और फिर वह ७-८ घंटे लेंटर डालने में कमर तोड़ मेहनत भी करता है कडाके की धुप में !

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  2. क्षमा करें..........
    इस समूची मानवता को आगे बढ़ाने वाले लोग अंगूठा छाप ही रहे हैं, पढ़े लिखे लोगों ने सिवाय शोषण, संताप और अशांति के कुछ भी नहीं दिया..........

    ज़रा बारीकी से विचार कर लें...........

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  3. दाम तो उंचा है पर शायद उनके जैसी जिल्लत कोई दूसरा नहीं झेलता . मजदूर चाहे ५०० दिन का कमाए लेकिन उसके ऊपर भय हमेशा बना रहता है पुलिस का सरपंच का , अदालत का , इत्यादी . क्युकी मानसिकता में विकास नहीं हो पाता. और दम उंचा क्या शास्त्री जी अंगूठा छाप इसीलिए रहते है क्युकी लाख रुए नहीं है शिक्षित बनाने के लिए

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  4. हमारे यहाँ तो फिर १५० रूपये में मजदूर मिल जाते हैं शास्त्री जी, लेकिन बाहर के देशों में तो मजदूर मिलता ही नहीं. सारे काम या तो खुद करने पड़ते हैं या फिर बहुत मंहगे दाम पर काम करने वाले मिलते हैं. ये तो हमारी दिन दूने रात चौगने स्टाइल में बढती जनसँख्या का कमाल है. इसे कहते है ब्लेस्सिंग इन डिस्गाइज.

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  5. sabhi ne sachchaiyan bayan kar di hain aaj ke halat ki ------ab to kahne ko kuch bachta hi nhi.vaise zindagi jeene ke liye jarooratein insaan se har kaam karwa leti hain phir chahe wo padha likha ho ya angootha chhap.

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  6. यह तो है हमारी शिक्षा नीति का परिणाम:)

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  7. मंयक जी हम लोग हजरों कमा कर भी शायद उतना काम नहीं करते जितना 150 रु. मे वो मज़दूर कर देता है उनपढहोना कुछ उसकी तकदीर है कुच्ग हमारी सरकार की मेहर्बानी और जो भ्रश्ट बैठे हैण उनकी भी शुभकामनायें

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  8. आदरणीय शास्त्री जी ,
    आज के युवाओं की एक बड़ी समस्या --के साथ हमारे देश की एक गंभीर और ज्वलंत समस्या को प्रस्तुत किया है आपने .
    हेमंत कुमार

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  9. Oh! kya likha hai aapne........ bilkul sahi chitran kiya hai aapne......... is daur se main aaj se 7 saal pehle guzar chuka hoon....


    bahut hi sahi kaha aapne........

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  10. शास्त्रीजी,शिक्षित व्यक्ति जब 1500 की नौकरी भी करता है तो उसे हर महीने उन रुपयों की गारंटी होती है लेकिन वहीं वो मज़दूर जब सुबह चौराहे पर किसी काम देने वाले साहब का इंतज़ार करता है तो उसे पता नहीं होता कि शाम को उसके घर में चूल्हा जलेगा या नहीं। हां, आपका ये मसला बिल्कुल जायज़ है कि पढ़े लिखे को भी नौकरी मिलनी चाहिए लेकिन उसकी उस मज़दूर से तुलना नहीं की जा सकती।

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  11. Dr.Sahib ye sarkar bekar mein hi sakcharta abhiyan chlaye hue hai ...ye anpadh to padhe likhon se bhi jyada paise kma rahe hain ....!!

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