सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय", शमशेर बहादुर सिंह, बाबा नागार्जुन, केदार नाथ अग्रवाल और फैज़ अहमद “फैज़” सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय", शमशेर बहादुर सिंह, बाबा नागार्जुन, केदार नाथ अग्रवाल और फैज़ अहमद “फैज़” की जन्म शताब्दी पर खटीमा में डॉ.चन्द्र शेखर जोशी के निवास पर एक चर्चा गौषठी का आयोजन किया गया। जिसमें सर्वप्रथम इन महान साहित्यकारों के चित्रों पर पुष्पाञ्जलि अर्पित की गई। इसके बाद परिचर्चा काशुभारम्भ करते हुए राजकिशोर सक्सेना “राज” ने सच्चिदानन्द हीरानन्द “अज्ञेय”, के विषय में विस्तृत प्रकाश डालते हुए उत्तराखण्ड मे स्थित नन्दा देवी पर रचित 15 कविताओं का उल्लेख किया। जिनमें से कुछ कविताएँ निम्न हैं- तुम वहाँ हो मन्दिर तुम्हारा यहाँ है। और हम-- हमारे हाथ, हमारी सुमिरनी-- यहाँ है-- और हमारा मन वह कहाँ है? --------------------------------------------------- कितनी जल्दी तुम उझकीं झिझकीं ओट हो गईं, नन्दा ! उतने ही में बीन ले गईं धूप-कुन्दन की अन्तिम कनिका देवदारु के तनों के बीच फिर तन गई धुन्ध की झीनी यवनिका। --------------------------------------------------- निचले हर शिखर पर देवल : ऊपर निराकार तुम केवल... ----------------------------------------------------------------------- इसके बाद डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ने बाबा नानार्जुन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके कुछ संस्मरण सुनाए। जिसमें से एक सचित्र संस्मरण यहाँ दिया जा रहा है- जन्म : १९११ ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ग्राम तरौनी, जिला दरभंगा में।परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा।सुविख्यात प्रगतिशील कवि एवं कथाकार।हिन्दी, मैथिली, संस्कृत और बंगला में काव्य रचना।मातृभाषा मैथिली में "यात्री" नाम से लेखन।मैथिली काव्य संग्रह "पत्रहीन नग्न गाछ" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। छे से अधिक उपन्यास, एक दर्जन कविता संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली (हिन्दी में भी अनूदित) कविता संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य "धर्मलोक शतकम" तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता। बाबा नागार्जुन जुलाई 1989 के प्रथम सप्ताह में 5 जुलाई से 8 जुलाई तक मेरे घर में रहे। मेरे दोनो पुत्रों नितिन और विनीत के तो मजे ही आ गये। बाबा उनसे खूब बातें किया करते थे। कुछ प्रेरणा देने वाली कहानियाँ भी उन्हें सुना ही देते थे। दिन में सोना तो बाबा का रोज का नियम था। दो-पहर को वे डेढ़-दो बजे सो जाते थे और शाम को साढ़े चार बजे तक उठ जाते थे। इसके बाद वो मेरे पिता जी से काफी बातें करते थे। दोनों की बातें घण्टों चलतीं थी। खटीमा में जुलाई का मौसम उमस भर गर्मी का होता है और अचानक बारिस भी हो जाती है। बाबा को बारिस को देखना बड़ा अच्छा लगता था। वह घण्टों मेरे घर के बरांडे में बिछी हुई खाट बैठे रहते थे और बारिस को देखते रहते थे। हम लोग कहते थे बाबा बहुत देर से बैठे हो थोड़ा आराम कर लो। तो बाबा कहते थे कि मुझे बारिस देखना अच्छा लगता है। बाबा को 8 जुलाई को शाम को 5 बजे मेरे दोनों पुत्र और मेरे पिता जी वाचस्पति जी के घर तक पहुँचाने के लिए गये। उसी समय का एक चित्र प्रकाशित कर रहा हूँ। जिसमें मेरे पिता श्री घासीराम जी, बड़ा पुत्र नितिन और बाबा नागार्जुन ने छोटे पुत्र विनीत के कन्धे पर हाथ रखा हुआ है। बाबा की प्रवृत्ति तो शुरू से ही एक घुमक्कड़ की रही है। दिल्ली जाने के बाद बाबा ने मुझे एक पत्र लिखा था। जिसमें पिथौरागढ़ और शाहजहाँपुर जाने का जिक्र किया है। वो पोस्ट-कार्ड भी मैं प्रकाशित कर रहा हूँ। बाबा नागार्जुन की स्मृति में उनकी एक रचना भी प्रस्तुत कर रहा हूँ। जो चुनावी परिवेश पर बिल्कुल खरी उतरती है। आए दिन बहार के!‘ श्वेत-श्याम-रतनार’ अँखिया निहार के, सिंडकेटी प्रभुओं की पग-धूर-झार के, खिलें हैं दाँत ज्यों दाने अनार के, आए दिन बहार के! बन गया निजी काम- दिखायेंगे और अन्न दान के, उधार के, टल गये संकट यू. पी.-बिहार के, लौटे टिकट मार के! आए दिन बहार के! सपने दिखे कार के, गगन-विहार के, सीखेंगे नखरे, समुन्दर-पार के, लौटे टिकट मार के! आए दिन बहार के! ------------------------------------------------------------------------ राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. सिद्धेश्वर सिंह ने शमशेर बहादुर सिंह के विय़च में विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि शमशेर बहादुर सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्परनगर में हुआ था और इनकी शिक्षा देहरादून, उत्तर प्रदेश, मे हुई। इनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं- कुछ कविताएँ (1959), कुछ और कविताएँ(1961), चुका भी हूँ मैं नहीं (1975), इतने पास अपने (1980), उदिता: अभिव्यक्ति का संघर्ष (1980), बात बोलेगी (1981), काल तुझसे होड़ है मेरी (1988) 1977 में "चुका भी हूँ मैं नहीं " के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के "तुलसी" पुरस्कार से सम्मानित। सन् 1987 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा "मैथिलीशरण गुप्त" पुरस्कार से सम्मानित किया गया। एक आदमी दो पहाड़ों को कोहनियों से ठेलता पूरब से पच्छिम को एक कदम से नापता बढ़ रहा है कितनी ऊंची घासें चांद-तारों को छूने-छूने को हैं जिनसे घुटनों को निकालता वह बढ़ रहा है अपनी शाम को सुबह से मिलाता हुआ फिर क्यों दो बादलों के तार उसे महज उलझा रहे हैं? (1956 में रचित,'कुछ कवितायें' कविता-संग्रह से ) ------------------- लौट आ, ओ धार! टूट मत ओ साँझ के पत्थर हृदय पर। (मैं समय की एक लंबी आह! मौन लंबी आह!) लौट आ, ओ फूल की पंखडी! फिर फूल में लग जा। चूमता है धूल का फूल कोई, हाय!! ----------------------------------------------------------------------- इस अवसर पर कैलाश पाण्डे्य ने केदार नाथ अग्रवाल जी का परिचय देते हुए बताया कि १ अप्रैल १९११ को जन्मे केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिशील काव्य-धारा के एक प्रमुख कवि हैं। उनका पहला काव्य-संग्रह युग की गंगा आज़ादी के पहले मार्च, १९४७ में प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए यह संग्रह एक बहुमूल्य दस्तावेज़ है। केदारनाथ अग्रवाल ने मार्क्सवादी दर्शन को जीवन का आधार मानकर जनसाधारण के जीवन की गहरी व व्यापक संवेदना को अपने कवियों में मुखरित किया है। कवि केदार की जनवादी लेखनी पूर्णरूपेण भारत की सोंधी मिट्टी की देन है। इसीलिए इनकी कविताओं में भारत की धरती की सुगंध और आस्था का स्वर मिलता है। केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं का अनुवाद रूसी, जर्मन, चेक और अंग्रेज़ी में हुआ है। उनके कविता-संग्रह 'फूल नहीं, रंग बोलते हैं', सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित हो चुका है : केदारनाथ अग्रवाल के प्रमुख कविता संग्रह है : युग की गंगा, फूल नहीं, रंग बोलते हैं, गुलमेंहदी, हे मेरी तुम!, बोलेबोल अबोल, जमुन जल तुम, कहें केदार खरी खरी, मार प्यार की थापें आदि। उनकी नई रचनाओं में- गई बिजली पाँव हैं पाँव बुलंद है हौसला बूढ़ा पेड़ इस रचना का वाचन भी किया गया। एक अन्य रचना जो इनके द्वारा पढी गई वो यह थी- आओ बैठो आग लगे इस राम-राज में आदमी की तरह एक हथौड़े वाला घर में और हुआ! घर के बाहर दुख ने मुझको पहला पानी बैठा हूँ इस केन किनारे वह उदास दिन हे मेरी तुम ------------------------------------------------------------------------- गोष्ठी के अन्त में आजोजक डॉ. चन्द्र शेखर जोशी ने फैज़ अहमद “फैज़” के विषय में प्रकाश डालते हुइस आलेख का वाचन किया! भारतीय उपमहाद्वीप में इस साल फैज़ अहमद फैज़ की जन्मशती का जश्न चल रहा है। पाकिस्तान की सरजमीं के इस शानदार शायर को संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप का शायर माना जाता है। फैज़ अहमद फैज़ की शायरी मंत्रमुग्ध करने वाली शायरी मानी जाती है। इसका अहम् कारण रहा कि फै़ज़ ने साहित्य और समाज की खातिर जीवनपर्यन्त कठोर तपस्या अंजाम दी। जिंदगी भर समाज के गरीब मजलूमों के लिए समर्पित रहने वाले फै़ज़ ने बेवजह शेर कहने की कोशिश कदाचित नहीं की। उनके कविता संग्रह नक्श ए फरयादी पढते हुए गालिब की एक उक्ति बरबस याद आ जाती है कि जब से मेरे सीने का नासूर बंद हो गया, तब से मैने शेर ओ शायरी करना छोड़ दिया। सीने का नासूर फिर चाहे मुहब्बत अथवा प्रेम भाव के रूप में विद्यमान रहे और चाहे वतन एवं मानवता के प्रेम के तौर पर कायम रहे। यह महान् भाव कविता के लिए ही नहीं वरन सभी ललित कलाओं के लिए एक अनिवार्य तत्व रहा है। अध्ययन और अभ्यास के बलबूते पर बात कहने का सलीका तो आ सकता है, किंतु उसे दमदार और महत्वपूर्ण बनाने के लिए कलाकार को अपने ही अंतस्थल में बहुत गहरे उतरना पड़ता है। मौहम्मद इक़बाल ने फरमाया अपने अंदर डूब कर पा जा सुराग ए जिंदगी तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन फै़ज़ अहमद फै़ज़ आधुनिक काल के उन बडे़ शायरों में शुमार रहे हैं, जिन्होने काव्य कला के नए अनोखे प्रयोग अंजाम दिए, किंतु उनकी बुनियाद सदैव ही पुरातन क्लासिक मान्याताओं पर रखी। इस मूल तथ्य को कदापि नहीं विस्मृत नहीं किया कि प्रत्येक नई चीज का जन्म पुरानी कोख से ही होता आया है। उनकी बहुत मशहूर ग़ज़ल को ही देखें मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब ना मांग़ और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा राहते और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा अनगिनत सदियों तारीक़ बहीमाना तिलिस्म रेशम ओ अतलस ओ कमखाब में बुनवाए हुए जा बजा बजा बिकते हुए कूच आ बाजार में जिस्म खाक़ में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए जिस्म निकले हुए अमराज के तन्नूरों से पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से लौट जाती है उध्ार को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे फै़ज़ अहमद फै़ज़ सन् 1911 में अविभाजित हिदुस्तान के शहर सियालकोट (पंजाब) के एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे थे। प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा स्कॉच मिशन हायरसैंकडरी स्कूल से हुई। इसके पश्चात गवर्नमेंट कालेज लाहौर से 1933 में इंग्लिश से एम ए किया और वहीं से बाद में अरबी भाषा में भी एम ए किया। सन् 1936 में वह भारत में प्रेमचंद, मौलवी अब्दुल हक़, सज्जाद जहीर और मुल्कराज आनंद द्वारा स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ में बाकायदा शामिल हुए। युवा फ़ैज़ अहमद फै़ज़ ने प्रगतिशील लेखक संघ की तहारीक़ को साहिर लुधायानवी, किशन चंद्र, शैलेंद्र, राजेंद्रसिंह बेदी, जां निसार अख्तर, कैफी आज़मी, अली सरदार ज़ाफ़री, भीष्म साहनी, के ए अब्बास, डा रामविलास शर्मा, नीरज आदि अनेक मूर्धन्य कवियों शायरों और लेखकों के साथ मिलकर नई ऊचाइयों तक पंहुचाया। पढाई लिखाई में बेहद मेधावी रहे फै़ज़ ने एम ए ओ कालेज अमृतसर में अध्यापन कार्य 1934 से 1940 तक किया। इसके पश्चात 1940 से 42 तक हैली कालेज लाहौर में अध्यापन किया। 1942 से 47 तक में फैंज़ अहमद फै़ज़ ने सेना मे बतौर कर्नल अपनी सेवाएं अंजाम दी। 1947 में फौ़ज़ से अलग होकर पाकिस्तान टाइम्स और इमरोज़ अखबारों के एडीटर रहे। सन् 1951 में उनको पाकिस्तान सरकार ने रावलपिंडी कांसपेरिसी केस के तहत गिरफ्तार किया गया। उल्लेखनीय है कि इसी केस के तहत ही भारतीय नाट्य संघ (इप्टा) के लेजेन्डरी संस्थापक जनाब सज़्जाद जहीर उर्फ बन्ने मियां को भी गिरफ्तार किया गया। इसी मुकदमे के सिलसिले में फै़ज़ को 1955 तक जेल में ही रहना पडा़। फै़ज़ की शायरी के अनेक संग्रह प्रकाशित हुए, इनमें नक्श-ए-फरयादी, दस्त-ए-सबा, जिंदानामा और दस्त ए तहे संग बहुत मक़बूल हुए। एक बडी़ ही विचित्र किंतु प्रशंसनीय बात है कि प्राचीन और आधुनिक शायरों की महफिल में बाकायदा खपकर भी फै़ज़ की एकदम अलग शख्सियत कायम है। फै़ज ने काव्य-कला के बुनियादी नियमों में कोई संशोधन नहीं किया। उर्दू के प्रसिद्ध शायर असर लखनवी ने फै़ज़ के विषय में अपनी टिप्पणी में कहा कि फै़ज की शायरी तरक्की के दर्जे तय करती हुई, शिखर बिंदु तक पंहुची। कल्पना (तख़य्युल) ने कला के जौहर दिखाए और मासूम जज्बात को हसीन पैकर(आकार) बख़्शा। क्यों मेरा दिल नाशद नहीं क्यों खमोश रहा करता हूं छोडो़ मेरी राम कहानी मैं जैसा भी हूं अच्छा हूं क्यों न जहां का ग़म अपना ले बाद में सब तदबीरें सोचें बाद में सुख के सपने देखें सपनों की ताबीरें सोचें हमने माना जंग कडी़ है सर फूटेगें खून बहेगा खून में ग़म भी बह जाएगें हम न रहेगें ग़म न रहेगा अपनी शायरी के अंदाज ए बयां की तरह ही व्यक्तिगत जिंदगी में भी कभी किसी ने उनको ऊचां बोलते हुए नहीं सुना। मुशायरों में भी फै़ज़ कुछ इस तरह से शेर पढा़ करते थे कि होठों से जरा ऊंची आवाज निकल गई, तो न जाने कितने मोती चकनाचूर हो जाएगें। वह फौ़ज में रहे। कालेज में प्रोफेसरी की। रेडियो की नौकरी की, अख़बार के एडीटर रहे। पाकिस्तान हुकूमत ने हिंसात्मक षडयंत्र के इल्जाम में जेल में रखा, किंतु उनके नर्म दिल लहजे और शायराना अंदाज में कतई कहीं कोई अंतर नहीं आया। उनकी शख्सियत बयान करती है कि जीवन यापन की खातिर बहुत से पेशों से गुजरते हुए वह मूलत: एक इंकलाबी शायर ही रहे। फै़ज़ की आवाज़ का नरम लहजा और उसकी गहन गंभीरता वस्तुत: उनके बेहद कठोर मुश्किल जीवन और अपार अध्ययन का स्वाभाविक परिणाम समझा जाता है। दुनिया के मेहनतकश किसान मजदूरों और उनकी अंतिम विजय में उनका गहरा यकी़न कायम रहा। भारत के विभाजन को उन्होने मन से कदाचित स्वीकरा नहीं। उनकी मशहूर नज़्म सुबह ओ आज़ादी इसकी गवाह रही है ये दाग़ दाग़ उजाला ये श्ाब गुजीदा सहर वो इंतजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरजू लेकर चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं ना कहीं अभी गिरानी ए शब में कमी नहीं आई नजाते दीदा ओ दिल की घडी़ नहीं आई चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई 1960 के दशक में फै़ज़ को एक इंटरनेशनल शायर के तौर पर तस्लीम किया गया। अपने जीवन के आखिरी दौर तक फै़ज ने अपना यह मका़म बनाए रखा। यही कारण है कि दुनिया में चारो ओर बहता हुआ मानवता का लहू उनकी शायरी में छलकता नजर आता है। पुकारता रहा बेआसरा यतीम लहू किसी के पास समाअत का वक्त था न दिमाग कहीं नहीं कहीं भी नहीं लहू का सुराग न दस्त ओ नाखून ए कातिल न आस्तीं के निशां इंसान और मानवता के बेहतरीन मुस्तक़बिल में उनका तर्कपूर्ण यकी़न बेमिसाल रहा। उनके एक तराने ने तो न जाने कितने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संघर्षो को हौंसला दिया। दरबार ए वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएगें कुछ अपनी सजा को पंहुचेगें कुछ अपनी ज़जा़ ले जाएगें ऐ ख़ाक नशीनों उठ बैठो वो वक़्त करीब आ पंहुचा है जब ताज गिराए जाएगें जब तख़्त उछाले जाएगें ऐ जुल्म के मारों ब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक कुछ हश्र तो इनसे उठ्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएगें अब दूर गिरेगीं जंजीरे अब जिंदानों की खैर नहीं जब दरिया झूम के उठ्ठगें तिनको से ना टाले जाएगें कटते भी चलो बढते भी चलो बाजू भी बहुत है सर भी बहुत चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल पे ही डाले जाएगें इस संक्षिप्त लेख के माध्यम से फै़ज़ की शख्सि़यत और उनकी शायरी कुछ रौशनी डालने का प्रयास किया गया, अन्यथा ऐसे शायर पर जिसने कालजयी कविता के माध्यम से अपने युग के दुख दर्द को आत्मसात करके, उसे अपनी शख्सियत का हिस्सा बना लिया और फिर उन्हे बेहद मनमोहक अंजाद में बयां कर दिया। जिसकी शायरी की ताकत जनमानस से उसका गहरा संबंध रही। जिसने जेल की अंधेरी कोठरी में आशा, अभिलाषा और उत्साह के अमर तराने लिखे, उसकी दास्तान पर तो अनेक ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। अपनी कठोर कैद में फै़ज ने एक नज्म़ लिखी जो कालजयी सिद्ध हुई, उसकी चर्चा के बिना यह लेख अधूरा रहेगा क्योंकि फै़ज़ की ये काव्यात्मक पंक्तिया उनके व्यक्तित्व और शायरी के अंदाज की एक शानदार झलक हैं मेरा कहीं क़याम क्या मेरा कहीं मक़ाम क्या मेरा सफ़र है दर वतन मेरा वतन है दर सफ़र मता ए लौहे कलम छिन गई तो क्या ग़म है कि खून ए दिल में डूबो ली है अंगुलियां मैंने जुबां पे मोहर लगी तो क्या ग़म है हर एक हल्कद ए जंजीर में रख दी है जुबां मैंने साभार- प्रभात कुमार रॉय स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार पूर्व प्रशासनिक अधिकारी |
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Friday, 5 November 2010
“परिचर्चा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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शास्त्री जी यह आज के इस मुबारक दिन का सर्वोत्तम उपहार है। अप बड़े ख़ुशनसीब हैं जो बाबा का आतिथ्य करने का आपको मौक़ा मिला।
ReplyDeleteआभार आपका।
दिपावली के शुभ अवसर पर हार्दिक शुभकामनायें जी।
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट ...इस दीपावली के शुभ अवसर पर आपको सपरिवार हार्दिक शुभकामनाये
ReplyDeleteये तो बहुत ही उत्तम पोस्ट लगाई है………आभार्।
ReplyDeleteसुंदर परिचर्चा के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
बहुत अच्छी पोस्ट...धन्यवाद
ReplyDeleteशानदार पोस्ट के लिये बधाई.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और शानदार पोस्ट ! बधाई!
ReplyDeleteशास्त्री जी, मुझे बाबा नागार्जुन को पढना अच्छा लगता है।
ReplyDeleteएक आपके संस्मरण और कोटा के द्विवेदी जी के संस्मरण मैंने खुद अपने कानों से सुने है। सोचता हूं कि आधुनिक काल में भी एक ऐसा इंसान था जिसकी पहुंच बर्फीले पहाडों से लेकर अंजान लोगों की रसोई तक थी।
सुन्दर पोस्ट .बधाई !
ReplyDeleteयह पोस्ट ते काफी समृद्ध है।
ReplyDeleteबेहतरीन....................
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति.........
ReplyDeletehttp://saaransh-ek-ant.blogspot.com