डॉ. सिद्धेश्वर सिंह हिन्दी साहित्य और ब्लॉग की दुनिया का एक जाना-पहचाना नाम है। जब कभी विद्वता की बात चलती है तो डॉ. सिद्धेश्वर सिंह को कभी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कर्मनाशा ब्लॉग पर इनकी लेखनी के विविध रूपों की झलक हमको मिलती है। हिन्दी का प्रोफेसर होने के साथ-साथ इनकी अंग्रेजी पर भी समानरूप से पकड़ है। विदेशी भाषा के साहित्यकारों की रचनाओं के इन्होंने बहुत ही कुशलता से दर्जनों अनुवाद किये हैं।
यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे इनका सानिध्य अक्सर मिलता रहता है। मेरी पुस्तक 'सुख का सूरज' की भूमिका लिखकर इन्होंने मुझे कृतार्थ किया है। जिसके लिए मैं इनका आभारी हूँ। आपके साथ मैं इस पुस्तक की भूमिका को साझा करते हुए बहुत हर्ष हो रहा है!
कविता के सुख का सूरजशब्द कोई व्यापार नहीं है।
तलवारों की धार नहीं है।
भूमिका
आज, ऐसे समय में जब हमारे निकट की दुनिया में विद्यमान लगभग प्रत्येक विचार व वस्तु को उपादेयता की कसौटी पर कस कर देखे जाने का चलन आम होता जा रहा है और तात्कालिकता को एक मूल्य की तरह बरते जाने में कोई संकोच नहीं रह गया है व कविता के लिखने-पढ़ने-सुनने-गुनने वालों के सीमित संसार में शब्द की अर्थवत्ता को लेकर बहुत गंभीरता से सोचा जाना कोई जरूरी सवाल नहीं दीखता हो वहाँ यदि कहीं कुछ भला, सुन्दर तथा सदाशयता से पूरित अथवा उसकी ऐषणा करता हुआ-सा मिल जाता है तो इस बात पर यकीन पुख्ता होता है कि सोच एवं सृजन की सदानीरा का उद्गम जिन पहाड़ों के पार है वहाँ का हिमनद तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद विलोपित नहीं होगा अपितु सूरज की ऊष्मा से ऊर्जा ग्रहण कर अनंत काल तक बूँद-बूँद रिसता हुआ स्वच्छ-जीवनदायी जल में रूपायित होता रहेगा।
आज प्रायः देखने को मिल जाता है कि हिन्दी कविता में शब्दों के करघे पर बहुत महीन कताई हो रही है। आजकल कभी-कभार तो ऐसा भी दिखाई दे जाता है कि कताई-बुनाई के अतिशय मोह में संवेदनाओं के सहज तंतु कहीं अदृश्य से हो गए हैं ऐसे में सहज ही उन कविताओं की स्मृति होने लगती है जिनके सानिध्य में हम सब का बालपन बीता है। आखिर ऐसी कौन सी बात रही है उन कविताओं में कि समय की शिल्प पर अंकित उनकी छाप अमिट है? इस प्रश्न के उत्तर में दो बातें समझ में आती हैं। पहली तो यह कि उनमें व्यक्त सहजता का सरल प्रस्तुतिकरण और दूसरी उनकी गेयता-लयात्मकता। ये दोनो चीजें कविता को एक प्रस्तुति-कला में ढाल देने के लिए सहज हैं और संप्रेषणीयता की संवाहिका भी। ‘सुख का सूरज’ संग्रह की कविताओं में निहित भाव व विचार की सहजता तथा लयात्मक संप्रेषणीयता का समन्वय इसे आज के हिन्दी कविता-संसार में अपनी-सी भाषा में कही जाने वाली अपनी-सी बात के रूप में कविता प्रेमियों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है।
‘सुख का सूरज’ में संकलित कविताओं की विविधवर्णी छवियाँ हैं। इनमें जहाँ एक ओर वंदना-आराधना, अनुनय-विनय, राग-अनुराग, मान-मनुहार और प्रकृति-परिवेश की कोमल काया वाली कवितायें हैं वहीं दूसरी ओर कवि ‘मयंक’ देश -दुनिया में व्याप्त मोह-व्यामोह से उपजी स्वार्थपरता व शुभ, शुचि, सुंदर के प्रति तिरोहित होते मान-सम्मान से उपजी खिन्नता व आक्रोश को वाणी देते हुए एक सुन्दर तथा बेहतर दुनिया की तलाश की छटपटाहट में रत दिखाई देते हैं।
आज भी लोगों को पावस लग रही है।
चाँदनी फिर क्यों अमावस लग रही है?
कवि ‘मयंक’ की कविताओं में एक चीज जो सबसे अधिक आकर्षित करने वाली है वह है निराशा का अभाव। कविता में प्रायः ऐसा होता देखा जाता है कि प्रेम अंततः पीड़ा में परिवर्तित हो जाता है और आक्रोश नैराश्य की शरण में पलायन कर अपना एक ऐसा संसार रच लेता है जो इसी दुनिया में होता हुआ भी इसी दुनिया से दूरी बनाने को अपना ध्येय मान लेता है लेकिन ‘सुख का सूरज’ की कविताओं में पीड़ा में ही प्रियतम की तलाश का आभास नहीं है अपितु इन कविताओं में इसी दुनिया में निवास करने वाले मनुष्य देहधरी दो प्राणियों के अंतस में अवस्थित अनुराग को स्वर देने की सहजता है और प्रतिकूलताओं-प्रपंचों की निन्दा-आलोचना से आगे बढ़कर एक नये सुखमय, सौहार्द्रपूर्ण संसार की रचना के प्रति विश्वास व क्रियाशीलता का स्पष्ट आग्रह दिखाई देता है।
लक्ष्य है मुश्किल बहुत ही दूर है।
साधना मुझको निशाना आ गया है।
हाथ लेकर हाथ में जब चल पड़े ,
साथ उनको भी निभाना आ गया है।
डॉ.. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ एक सहज, सरल, सहृदय व्यक्ति हैं। उनके पास राजनीतिक-सामाजिक जीवन का सुदीर्घ अनुभव है। जीवन व जगत वैविध्यता को उन्होंने खूब देखा-परखा है। एक साहित्यकार और ब्लॉगर के रूप में भी वे सबके सुपरिचित हैं। यह उनकी उदारता व स्नेह ही है कि मुझे इस संग्रह की पांडुलिपि को पढ़ने का सुख मिला है तथा ‘दो शब्द’ लिखने का सौभाग्य। ‘सुख का सूरज’ उनकी चुनिंदा कविताओं का ऐसा संग्रह है जो द्रुत गति से भाग रहे कुहरीले दिवस के क्षितिज पर सूरज की तरह उदित होकर साहित्य प्रेमियों को सुख देगा और रचना की रात्रि के पटल पर उनके उपनाम मयंक की सार्थकता को सिद्ध करेगा और अंत में स्वयं कवि के ही शब्दों में बस यही कहना है-
पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ।
उत्कर्षों के उच्च शिखर पर चढ़ते जाओ।
- सिद्धेश्वर सिंह
21नवंबर, 2010
(डॉ. सिद्धेश्वर सिंह)
हिन्दी विभागाध्यक्ष:राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
खटीमा, जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड)
bahut shreshth bhoomika likhi hai.aap dono ko haardik badhaai.
ReplyDeleteड़ाक्टर सिद्देश्वर सिंह जी द्वारा की गयी समीक्षा तो अपने आप मे अनमोल होगी ही………………बहुत सुन्दर व सार्थक विश्लेषण किया है।
ReplyDeleteसार्थक समीक्षा !
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनायें !
दिनकर को दिनकर कह देना मात्र औपचारिकता होगी ,वस्तुतः उसके प्रभामंडल यथार्थता ,स्वीकार्यता ,अस्तित्व को विवेचित कर सूर्य कहना उसके प्रति सच्चा भाव होगा निष्ठा होगी .....जो डॉ .सिंह ने कहा है , यथोचित है ../
ReplyDeleteडाक्टर साहब ने सुन्दर समीक्षा की है....
ReplyDeleteसादर बधाई....
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ReplyDeleteमेरी बधाई स्वीकार करें। भूमिका पढ़कर पुस्तक पढ़ने की इच्छा हो रही है।
ReplyDeletebahut hee badhiyaa!!!
ReplyDeleteओह धन्यवाद! इसे मैं आज देख पा रहा हूँ। आभार।वैसे बंदा इतनी तारीफ के काबिल नहीं।
ReplyDeleteआज भी लोगों को पावस लग रही है।
ReplyDeleteचाँदनी फिर क्यों अमावस लग रही है?
सुन्दर समीक्षा.