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Friday, 15 January 2010

“ओह…आज तो भयंकर कुहरा है!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

ये हैं जी!
खटीमा में आज सुबह 8 बजे के दृश्य
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आठ बजे है बहुत अंधेरा,
देखो हुआ सवेरा!

सूरज छुट्टी मना रहा है,
कुहरा कुल्फी जमा रहा है,
गरमी ने मुँह फेरा!
देखो हुआ सवेरा!

भूरा-भूरा नील गगन है,
गीला धरती का आँगन है,
कम्बल बना बसेरा!
देखो हुआ सवेरा!

मूँगफली के भाव बढ़े हैं,
आलू के भी दाम चढ़े हैं,
सर्दी का है घेरा!
देखो हुआ सवेरा!

14 comments:

  1. सुन्दर कविता गढ़ दी आपने तो इस पे , वैसे आज दिल्ली में धूप खिलने की उम्मीद है :)

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  2. wah wah wah...
    vyang aur sachchai ko darshaati aapki yeh rachna bahut uttam hai shastri ji...

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  3. शास्त्री जी बढिया मौसम हो गया है,
    हमारे यहां तो कभी-कभी बरसों मे
    होता है,
    कविता के लिए-आभार

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  4. शास्त्री जी हमारे सतना में भी आज सुबह साढे सात बजे से जो कोहरा शुरु हुआ तो देखते ही देखते उसने पूरे शहर को ढंक लिया.
    बढिया कविता.

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  5. bahut hi sundar rachna...........sare nazare sardi ke nazar aa gaye.

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  6. कोहरे के बहाने सुन्दर कविता । तस्वीरें भी सुन्दर हैं शुभकामनायें

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  7. कोहरा तो वास्तव में बहुत घना है।
    लेकिन यहाँ दिल्ली में हमें तो अच्छा लगता है, ये बदलाव मौसम का।

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  8. सूरज छुट्टी मना रहा है,
    कुहरा कुल्फी जमा रहा है,
    गरमी ने मुँह फेरा!
    देखो हुआ सवेरा!

    Aur idhar ham sard mausam ke liye ruke rahe!

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  9. बहुत ही बढ़िया मौसम हैं आपके वहां और तस्वीरें देखकर तो जाने का मन कर रहा है! खूब मज़े कीजिये और इस मौसम का आनंद उठाइए !

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  10. वाह वाह आपने तो चित्र के साथ जो खूब वर्णन किया है मैं इस ठण्ड भरे मौसम में पहुँच गई

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  11. श्रद्धा जी आप पहली बार शब्दों के दंगल पर पधारी हो।
    आपका आभार व अभिनन्दन!
    कभी उच्चारण पर भी भ्रमण करें जी!

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  12. yahan to hum kohre aur sard dhup ko taras gaye hai...

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