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Saturday, 18 September 2010

"सीनाजोरी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

     चाल-बाजी की भी सीमाएँ होती हैं। परन्तु मेरा वास्ता एक ऐसे चालबाज से पड़ा था। जिसने जाल-साजी की सभी हदें पार कर ली थी।

     मेरे एक कवि मित्र थे-श्रीमान वैद्य जी! उनका पूरा नाम लिखना तो इस स्वर्गवासी की आत्मा को ठेस पहुँचाना ही होगा। इसलिए सिर्फ वैद्य जी के नाम से ही काम चला लेता हूँ। 

      ये महाशय जाल-साजी की एक जीती-जागती मिसाल थे। 
वाकया 1987-88 का है। उन दिनों उ0प्र0 में कांग्रेस का शासन था। 

पं0 नारायण दत्त तिवारी उन दिनों यहाँ के मुख्यमन्त्री हुआ करते थे। जो मुझे बहुत पसन्द करते थे।   वैद्य जी भी अपने आप को कांग्रेस के नेता कहते थे और पं0 नाराणदत्त तिवारी जी को अपना कथित लंगोटिया यार बताते थे। अपनी डींग मारने में नम्बर ये एक थे। इसलिए लोगों ने इनकी बात को कुछ हद तक सही भी मान लिया था। 

      राजनीति की इस आड़ में इन्होंने कुछ शिक्षित बेरोजगारों को नौकरी दिलाने के लिए इन्होंने अपने जाल में फाँस लिया था। जिनकी संख्या दस थी। 
हर एक से इन्होंने पाँच-पाँच हजार रुपये ऐंठ लिये थे। उन दिनों पचास हजार रुपये एक अच्छी-खासी मोटी रकम मानी जाती थी। 

       अब ठगे गये व्यक्तियों को इनके घर के चक्कर तो लगाने ही थे। इनका कोई घर द्वार तो था ही नही। एक कमरे को किराये पर ले रखा था। उसी में अपनी धर्मपत्नी के साथ रहते थे। कविता सुनाने के बहाने से अक्सर मेरे पास बैठे रहते थे।                
एक दिन कुछ लोग इनको ढूंढते हुए खटीमा आ गये। 

        इनका पता पूछा तो लोगों ने बताया- ‘‘वो शास्त्री जी के पास ज्यादातर बैठते हैं।’’
अतः वे लोग मेरे घर ही आ गये। वैद्य जी भी मेरे पास ही बैठे थे। वे यहीं पर उनसे बात करने लगे। वैद्य जी उनको पहाड़ा पढ़ाते रहे। 

       तभी उनमें से एक व्यक्ति ने पूछा- ‘‘वैद्य जी आपका घर कौन सा है?’’

       वैद्य जी ने उत्तर दिया- ‘‘यही तो मेरा घर है। ये मेरे छोटे भाई हैं। इनके पिता जी वो जो चारपाई पर बैठे हैं। मेरे चाचा जी हैं।’’

       वैद्य जी की बात सुन कर, अब मेरे चौंकने की बारी थी। 
उस समय बाबा नागार्जुन तो मेरे पास नही थे। जो इनको खरी खोटी सुनाते। 
हाँ, मेरी माता जी यह सब सुन रही थीं। 

       वे चारपाई पर से उठ कर आयीं और वैद्य जी का हाथ पकड़ कर कहा- ‘‘वैद्य के बच्चे! उठ तो सही यहाँ से। तेरे कौन से बाप ने ये घर बनाया है? न जात न बिरादरी, बड़ा आया अपना घर बताने।’’

       अब तो वैद्य जी की की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। 
वो अपने इन लोगों को लेकर चुपचाप उठ गये और कहने लगे- 

    ‘‘चाची जी का स्वभाव तेज है, आओ- बाहर चल कर बाते करते हैं।’’

                       शेष अगली कड़ी में.....।

10 comments:

  1. रोचक..........

    अगली कड़ी का इंतज़ार करेंगे..........

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  2. ओह ! कैसे कैसे लोग होते हैं।

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  3. Aisebhi log hote hain is duniya me! Mujhe to aapki mataji pe bada naaz hua!

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  4. रोचक प्रसंग ....क्या कहें ऐसे वैध जैसे लोगों को ... आभार

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  5. अब जो नहीं रहा उसके बारे में क्या कहें । वैसे ऐसे लोग भी होते हैं । सावधान रहना चाहिए ।

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  6. बहुत ही दिलचस्प वाकया है....!!!

    पूरी कहानी का इंतज़ार रहेगा |

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  7. हा..हा..हा..अभी भी कह रहे हैं कि चलो बाहर चल कर बात करते हैं!

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  8. रोचक वाकया..
    डींग मारने की जिसको आदत पड़ जाए...वो जल्दी किए छूटती भी तो नही़ ....
    छोटापुर गाँव के खुशिया चाचा से मिलना हो तो जरूर आइएगा..हमारे यहाँ....

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  9. bahut hi dilchasp vaakya. samaj mein aise log bahutayat mein mil jayebge.

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  10. bahut sundar - aapne apni yaado ko share kiya...mujhey bhi yaad aa gayi aik ghatnaa - jab aik ristedaar ke delivery karvaai...khana peena aavbhagat sevaa shushurusha bhi kee ..aur aik din ward me main jab mareeja ko dekhne gayi to unke kuch pehchaan vale aaye they ..vo mithai khushi kee mang rahe they .. unki saas ne kaha meri or ishara kar ke.... kyaa aapne in logo ko abhi tak mithayi nahi khilayi ..hamne aapke paas rakhvaayi thee... mai awaak reh gayi.. par sidhi hoo yaa yoo kahiye bevkoof hoo koi jwab naa de payi aur vo log mujhse mithai maangne lage ki khud hee khaa lee...maine apni baat keh dee Aapki post se mujhey ye baate yaad aa gayi..saadar

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