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Tuesday 30 June 2009

‘‘ब्लागिंग एक नशा नही बल्कि आदत है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

ब्लॉगर मित्रों!
एक बार मैंने लिखा था
‘‘क्या ब्लॉगिंग एक नशा है?’’
आप सब ने उस पर भाँति-भाँति की प्रतिक्रियाएँ टिप्पणी के रूप में मुझे उपहार में दीं थी।
आज मैं लिख रहा हूँ कि ब्लॉगिंग एक नशा नही बल्कि आदत है।
मेरी दिनचर्या रोज सुबह एक लोटा जल पीने से शुरू होती है। उसके बाद नेट खोलकर लैप-टाप में मेल चैक करता हूँ। इतनी देर में प्रैसर आ जाता है तो शौच आदि से निवृत हो जाता हूँ।
प्रैसर आने में यदि देर लगती है तो दो-तीन मिनट में ही कुछ शब्द स्वतः ही आ जाते हैं और एक रचना का रूप ले लेते हैं।
क्या लिखता हूँ? कैसे लिखता हूँ? यह मुझे खुद भी पता नही लगता।
ब्लॉग पर मैंने क्या लिखा है? इसका आभास मुझे तब होता है जब आप लोगों की प्रतिक्रियाएँ मिलतीं हैं।
पाँच महीने पूर्व तो कापी-कलम संभाल कर लिखता था। एक-एक लाइन को कई-कई बार काट-छाँटकर गढ़ने की कोशिश करता था।
महीना-पन्द्रह दिन में एक आधी लिख गई तो अपने को धन्य मान कर अपनी पीठ थप-थपा लिया करता था। परन्तु, जब से नेट चलाना आ गया है। तब से कापी कलम को हाथ भी नही लगाया है।
नेट-देवता की कृपा से और माँ सरस्वती के आशीर्वाद से प्रतिदिन-प्रतिपल भाव आते हैं और आराम से ब्लाग पर बह जाते हैं।
जब ताऊ रामपुरिया उर्फ पी0सी0 मुद्गल ने मेरा साक्षात्कार लिया था तो मुझसे एक प्रश्न किया था कि आप ब्लॉगिंग का भविष्य कैसा देखते हैं?
उस समय तो यह आभास भी नही था कि इस प्रश्न का उत्तर क्या देना है?
बस मैंने तुक्के में ही यह बात कह दी थी कि- ब्लॉगिंग का भविष्य उज्जवल है।
लेकिन ,
आज मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि ब्लॉगिंग का भविष्य उज्जवल है और यह एक नशा नही बल्कि एक आदत है।
यह आदत अच्छी है या बुरी यह तो आप जैसे सुधि-जन ही आकलन कर सकते हैं।
दुनिया भर के साहित्यिक लोगों से मिलने का, उनके विचार जानने का और अपने विचारों को उन तक पहुँचाने का माध्यम ब्लॉगिंग के अतिरिक्त दूसरा हो ही नही सकता।


Sunday 28 June 2009

"बचपन की आदते जाती नही हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)







लगभग 200 वर्ष से अधिक पुरानी बात है। उन दिनों स्कूल की जगह काजी जी के मकतब हुआ करते थे। एक दिन काजी जी एक छात्र को डाँट-डाँट कर कह रहे थे कि अबे! मैंने तुझे गधे से आदमी बनाया है।
संयोग से एक कुम्हार मकतब के पास से गुजर रहा था। उसके कानों में काजी जी की यह आवाज पड़ी तो बहुत खुश हुआ। क्योंकि कुम्हार के कोई सन्तान नही थी। उसने कई सारे गधे पाले हुए थे।
घर आकर उसने अपनी पत्नी को मकतब वाली बात बताई तो वह भी बहुत प्रसन्न हुई।
उसने अपने पति से कहा- ‘‘एजी्! हमारे पास जो छोटा गधे का बच्चा है उसका आदमी बनवा लाओ तो हमारा नाम-निशान चल जायेगा।’’
कुम्हार को भी उसकी बात समझ में आ गयी।
अगले दिन प्रातःकाल कुम्हार गधे के बच्चे को लेकर काजी जी के पास गया और बोला- ‘‘काजी जी! मैं एक गधे का बच्चा आपके हवाले करता हूँ। मेहरबानी करके इसका आदमी बना दीजिए।’’
काजी जी ने कुम्हार को लाख समझाया कि भाई गधे का आदमी नही बनाया जा सकता। परन्तु कुम्हार कहाँ मानने वाला था।
उसने काजी जी से कहा कि काजी जी बहाना नही चलेगा। मैं कल मकतब के पास से गुजर रहा था तो आप एक बालक को डाँट-डाँट कर कह रहे थे कि अबे! मैंने तुझे गधे से आदमी बनाया है।
जब काजी जी ने देखा कि यह कुम्हार तो अहमक है इसलिए उन्होंने उसे टालने के ख्याल से कह दिया कि भाई इस गधे मेरे पास को छोड़ जाओ और इसके आदमी बनाने का खर्चा 100 अशर्फी मुझे दे जाओ।
कुम्हार ने खुशी-खुशी काजी जी को 100 अशर्फी दे दीं और पूछा कि काजी जी कितने दिन बाद में आप इसे आदमी बना देंगे।
काजी जी ने एक वर्ष का समय माँग लिया। कुम्हार ने गिन-गिन कर यह एक वर्ष का समय काट लिया और वह काजी जी के पास गया।
उसने कहा- ‘‘काजी जी! जल्दी से मेरे लाल को मेरे हवाले करो।’’
परन्तु काजी जी तो कब के उस गधे के बच्चे को बेच चुके थे और 100 अशर्फिया भी डकार चुके थे।
जब काजी जी को कोई बनाना नही सूझा तो उन्होंने कुम्हार से कहा- ‘‘भैया! वह गधे का बच्चा तो बड़ा चालाक निकला। पड़-लिख कर वह तो ताऊ के जिले का डी0एम0 बन गया है। जाकर उसे पहचान लो।’’
इस तरह से काजी ने कुम्हार से अपनी जान छुड़ा ली।
अब आगे कुम्हार का हाल सुनो-
जैसे ही कुम्हार ने यह खबर सुनी वह खुशी से पागल जैसा हो गया। उसने पूरे मुहल्ले में मिठाई बाँटी और अगले दिन ताऊ के जिले के लिए जाने को तैयार हो गया।
जाते वक्त उसकी पत्नी ने कहा कि वह गधे का बच्चा बड़ा शैतान था। अगर उसने तुम्हें नही पहचाना तो उसे कैसे याद दिलाओगे कि उसे हमने बचपन में बड़े लाड़-प्यार से पाला था। इसलिए उसे ओढ़ाने का यह टाट साथ लेकर जाओ। अगर पहचानने से इन्कार कर दे तो उसे यह टाट का टुकड़ा दिखा देना।
कुम्हार ने पत्नी की बात मान कर टाट का टुकड़ा भी साथ ले लिया।
तीन दिनों के बाद वह ताऊ के जिले में पहुँचा तो पता पूछते-पूछते सीधे ही डी0एम0 की अदालत में पहुँच गया।
डी0एम0 साहब कोर्ट में बैठे थे। उसने वहाँ खड़े सन्तरी से पूछा तो उसने इशारे से बताया कि वो डी0एम0 साहब बैठे हैं।
कुम्हार आगे बढ़कर डी0एम0 साहब को झाँकने लगा।
डी0एम0 साहब ने मन मे सोचा कि यह कोई मूर्ख आदमी होगा और उन्होंने इसकी हरकतों को नजर अन्दाज कर दिया।
अब तो कुम्हार से न रहा गया। उसने अपनी पोटली खोली और टाट निकाल कर जोर जोर से हिलाने लगा।
डी0एम0 साहब से यह बर्दाश्त न हुआ। वे अपनी कुर्सी उठे और कुम्हार के पास आकर उसे दो लात रसीद कर दी।
इस पर कुम्हार को बड़ा गुस्सा आया और वह बोला। अरे गधे के बच्चे- तुझे इतने लाड़-प्यार से मैंने पाला। काजी जी को 100 अशर्फिया देकर तुझे आदमी बनवाया। लेकिन तेरी लात मारने की आदत अब तक नही गयी।
तू पहले भी बहुत लात चलाता था। आज तूने अपनी जात दिखा ही दी।
कहने का तात्पर्य यह है कि "बचपन की आदते जाती नही हैं।"

Saturday 27 June 2009

‘‘इण्टर-नेट तुरन्त जोड़ दिया गया’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

ब्लागर मित्रों!
आज मैं टेलीफोन विभाग की की घाँधली का नमूना आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैंने 16-06-2009 को रुटीन में सारे टेलीफोन बिल जमा कर दिये थे। इसके बावजूद भी मेरा बॉड-बैण्ड का कन्क्शन काट दिश गया।
दो दिन तक टेलीफोन कार्यालय के चक्कर लगाते-लगाते जब दुखी हो गये तो एक नोटिस टाइप किया गया। आज सुबह जब नोटिस लेकर मैं टेलीफोन के अभियन्ता के पास गया तो आनन-फानन में बॉड-बैण्ड जोड़ दिया गया और मैं आपके बीच में फिर से आ गया ।

Wednesday 24 June 2009

‘‘एक साहित्यकार बना उत्तराखण्ड का मुख्यमन्त्री’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



‘‘एक साहित्यकार बना उत्तराखण्ड का मुख्यमन्त्री’’

मित्रों!

हर्ष का विषय है कि उत्तराखण्ड का मुख्यमन्त्री

डॉ. रमेश पोखरियाल "निशंक "को बनाया गया है।

ब्लॉग-जगत और समस्त साहित्यकारों की ओर से डॉ. रमेश पोखरियाल "निशंक " को उत्तराखण्ड का मुख्यमन्त्री नियुक्त होने पर हार्दिक बधाई।


Tuesday 23 June 2009

‘‘मेहमान’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

आज ताऊ के देश की एक कथा सुनाने का मन है।
इनके गाँव में एक किसान दम्पत्ति रहता था। परिवार में पति पत्नी और एक बिटिया थी। इनके घर में एक व्यक्ति मेहमान बन कर आया।
एक दो दिन तो इन्होंने उसकी खूब खातिरदारी की परन्तु मेहमान था कि जाने का नाम ही नही ले रहा था।
इन्होंने मेहमान को भगाने की एक युक्ति निकाली। जैसे ही अतिथि जंगल दिशा के लिए गया। ये तीनों लोग खेत की ओर निकल गये।
इधर जब मेहमान जंगल दिशासे वापिस आया तो उसे घर में कोई दिखाई नही दिया। इसने थोड़ी देर तो इसने इन्तजार किया कि कोई वापिस आ जायेगा, परन्तु जब दोपहर तक भी कोई घर नही आया तो इसने कण्डों के हारे में कढ़ रहे दूध से खीर बनाई और उसे खा कर पेड़ के नीचे खाट बिछा कर उस पर सो गया।
शाम को जब सब लोग घर वापिस आये तो मेहमान दिखाई नही दिया। ये लोग मन में प्रसन्न होकर गाने लगे-
सबसे पहले किसान ने गाना गाया-
‘‘मैं बड़ा अजब हुशियार, तजुर्बेकार, बड़ा कड़के का।
मैं खुर्पा-रस्सी ठाय गया तड़के का।।’’
फिर किसान की पत्नी झूम-झूम कर गाने लगी-
‘‘मैं बड़ी अजब हुशियार, तजुर्बेकार, बड़ा कड़के की।
मैं लड़की लेकर साथ गयी तड़के की।।’’
तभी पेड़ के नीचे पड़ी खाट से आवाज आयी-
मैं बड़ा अजब हुशियार, तजुर्बेकार, बड़ा कड़के का।
थारी गुड़ से रगड़ी खीर पड़ा तड़के का।।’’
अब मैं ताऊ से पूछता हूँ कि ताऊ कोई ऐसी तरकीब तो बता दे कि ये मेहमान हमारा पीछा छोड़ कर चला जाये।

Sunday 21 June 2009

‘‘शाबाश पिल्लू" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)




आज से करीब 12 वर्ष पूर्व हमने एक छोटी नस्ल की कुतिया पाल रखी थी। उसका नाम जूली था।

वो बड़ी समझदार थी। इशारों-इशारों में ही वो काफी कुछ सीख जाती थी। स्कूटर की बास्केट में बैठना तो उसे बहुत अच्छा लगता था।

एक बार की बात है। मुझे अपने किसी मित्र के यहाँ 15 किमी दूर पड़ोसी देश नेपाल के गाँव में चाँदनी न0 6 में जाना था। वहाँ कार के जाने लायक रास्ता नही था। इसलिए स्कूटर से ही जाना बेहतर समझा।

खटीमा से कुछ दूर जाने के बाद रास्ते में बियाबान जंगल पड़ा। वहाँ अचानक एक मरखनी गाय स्कूटर के पीछे पड़ गयी। मैंने स्कूटर रोक लिया तो तो वो मुझे मारने के लिए आगे बढ़ने लगी।

जैसे ही स्कूटर रुका तो जूली एक दम उतरी और गाय को भौंकने लगी। गाय को कुतिया से अब अपनी जान छुड़ानी मुश्किल हो रही थी। जूली कभी उसके आगे आ जाती और कभी उसकी पूँछ पकड़ कर लटक जाती थी। आखिर गाय को हार मान कर भागना ही पड़ा।

मुझे तो अनुमान भी नही था कि जूली मेरे स्कूटर की बास्केट में छिपी बैठी होगी। इतनी स्वामी-भक्त थी यह जूली। एक साल के बाद जूली ने 4 बच्चों को जन्म दिया। उनमें दो पिल्ले व दो पिलिया थीं।
दो महीने होते-होते उसके सारे बच्चे मैंने अपने मित्रों में बाँट दिये। केवल एक पिल्ला अपने यहाँ रख लिया। उसका नाम पिल्लू रखा गया। शुरू-शरू में पिल्लू से सब लोग नफरत करते थे। क्योंकि यह अक्सर सड़क पर चला जाता था और कूड़ा खँगालने लगता था।

जूली को उन दिनों जलोदर रोग हो गया था। उसका बहुत इलाज कराया परन्तु वह बच नही पाई। शायद उसका इतना ही साथ था।

अब पिल्लू को सब लोग बहुत प्यार करने लगे थे। उन दिनों मेरे यहाँ भवन निर्माण का कार्य चल रहा था। पिल्लू और पिता जी वहाँ पर रहते थे।

एक दिन पिता जी किसी काम से बाजार गये थे। पिल्लू वहाँ पर अकेला था। सुबह 8 बजे राज और मजदूर काम पर आ गये थे। लेकिन वो घर के सामने पुलिया पर बैठे थे ।

सवा आठ के करीब जब मैं राज मजदूरों को देखने आया तो देख कर आश्चर्य हुआ कि काम अभी तक नही लग पाया था। मैंने मजदूरों से पूछा कि काम क्यों नही शुरू किया तो उन्होंने मुझे बताया कि साहब आपका कुत्ता अन्दर जाने ही नही दे रहा है।

मैंने भी उसका नजारा देखना चाहा और एक मजदूर से बल्ली उठाने को कहा तो पिल्लू भाग कर आया और बल्ली मे दाँत गड़ा कर बैठ गया।

पिल्लू आज भी जीवित है। अब तो वह बूढ़ा हो गया है लेकिन क्या मजाल है कि पिता जी को कोई कुछ कह दे। पिता जी के साथ कोई जोर से बोलता भी है तो पिल्लू भौकने लगता है।

एक बार पिता जी के कोई मित्र उनके पास बैठे थे। उन्होंने प्यार में पिता जी का हाथ पकड़ लिया तो पिल्लू उनको काटने के लिए तैयार हो गया था। इसीलिए कहा जाता है कि कुत्ते से वफादार कोई दूसरा जानवर नही होता है।

शाबाश पिल्लू।

Friday 19 June 2009

‘‘विज्ञान का चमत्कार, घर बैठे ही 10 मिनट में कम्प्यूटर ठीक हो गया।’’


एक सप्ताह से मेरा लैपटॉप खराब चल रहा था।
उसमें आडियो-ड्राईवर लोड नही हो पा रहा था। किन्तु लैपटॉप अभी वारण्टी पीरियड में था।
इसकी शिकायत मैंने कल नोएडा स्थित H.C.L. में ई-मेल द्वारा की थी। मुझे आशा थी कि कम्पनी का इंजीनियर आयेगा और वो इसे ठीक करेगा।
आज प्रातः 10-३० पर H.C.L. के देहरादून कार्यालय से फोन आया कि आपने लैपटॉप की शिकायत हैड-आफिस में की थी। प्राब्लम बतायें।
उन्हें प्राब्लम बताई गयी । उन्होंने मुझे कुछ युक्तियाँ बताई, लेकिन उनसे समस्या का हल नही निकल सका। अतः उन्होंने फोन काट दिया।
दोपहर बाद मेरे पास पाण्डिचेरी से फोन आया कि मैं H.C.L.का इंजीनियर पाण्डिचेरी से बोल रहा हूँ। उन्होंने भी फोन पर कुछ तरकीबें बताईं। लेकिन कोई काम नही बना।
तब उन्होंने मुझ से कहा कि आपके पास नेट हैं।
मैने कहा- ‘‘जी हाँ।’’
उन्होंने कहा - ‘‘आप नेट चालू रक्खें और पास-वर्ड बता दें। लेकिन की बोर्ड की कोई की नही दबाना तथा न ही माउस हिलाना।’’
मैंने कहा- ‘‘जी अच्छा।’’
थोड़ी देर में लैपटॉप पर स्वयं ही हरकतें होने लगीं और उन्होंने लैपटॉप में आडियो-ड्राईवर लोड कर दिया।
है ना, विज्ञान का चमत्कार।
घर बैठे ही 10 मिनट में कम्प्यूटर ठीक हो गया।

Thursday 18 June 2009

‘‘बड़ा पुत्र ही बेईमानी अधिक करता है।’’ अन्तिम कड़ी- (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मित्रों!
कल मैंने एक पोस्ट लगाई थी ‘‘बड़ा पुत्र ही बेईमानी अधिक करता है।’’
मैं जानता हूँ कि इससे बहुत से लोगों को बहुत कष्ट हुआ होगा। मैं भी अपने माता-पिता की ज्येष्ठ सन्तान हूँ, परन्तु मेरा कोई सगा भाई नही है।
कल मैंने केवल तीन उदाहरण दिये थे, किन्तु अपनी धारणा नही बनाई थी कि परिवार का बड़ा भाई बेईमान होता है।
दुनिया में आज भी बहुत से ऐसे भाई हैं, जिन्होने अपने छोटे भाइयों के लिए बहुत कुछ त्याग किया है।
एक मेरा मौसेरा भाई है जो पशु चिकित्साधिकारी के पद पर कार्यरत है। ये दो भाई हैं। गाँव में उनकी पैतृक कृषि भूमि थी। जिसे बेच दिया गया । लाखों रुपये की इस रकम को बड़े भाई ने अपने छोटे भाई को दे दिया और कहा कि तेरा कारोबार कमजोर है। इसे तू ही रख ले।
दूसरी घटना शेरकोट कस्बे की है। यहाँ 6 भाई थे। जिनमें से पाँच अच्छे-अच्छे सरकारी पदों पर नियुक्त थे। सबसे छोटा भाई कम पढ़-लिखा था। वह एक ब्रुश बनाने की फैक्ट्री में काम करता था।
समय निकाल कर किसी आयोजन में सब भाई इकट्ठे हुए और सबने सलाह करके अपने-अपने हिस्सों की जायदाद उसके नाम कर दी।
कहने का तात्पर्य यह है कि सभी बड़े भाई लोभी-लालची और बे-ईमान नही होते तथा न ही सभी छोटे भाई ईमानदार होते हैं। दुनिया में सभी तरह के लोग हैं।
लेकिन इतनी बात तो तय है कि ईमानदार कम हैं और बे-ईमान अधिक हैं।

Wednesday 17 June 2009

"बड़ा पुत्र ही बेईमानी अधिक करता है।" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरी रिश्ते की मौसी जी हैं। उनके चार पुत्र तथा चार पुत्रियाँ हैं।

मौसा जी के पास 40 बीघा खेती की जमीन थी और आठ बीघा का आम का बगीचा था। अपनी मृत्यु से पूर्व ही मौसा जी ने चारों पुत्रों को तथा मौसी जी अपने पास बैठाकर हिस्सा बाँट दिया था कि 8-8 बीघा जमीन सबकी है इसके अलावा 8 बीघे का बाग बोनस के रूप में मौसी जी को अलग से दिया था और बाकायदा अपनी वसीयत कर दी थी।

जब मौसा जी जीवित थे तो चारों पुत्रियों और दो पुत्रों की शादी कर चुके थे। इसके बाद वो गोलोकवासी हो गये। अपने बड़े पुत्र को सारी जिम्मेदारी सौंप गये थे।

छोटे दो पुत्र उस समय नाबालिग थे। अतः बड़े पुत्र के पास उनकी भी जमीन थी। मौसी जी भी उसके ही साथ साझे में रहतीं थीं। अतः उसके पास 32 बीघा जमीन थी और 8 बीघा का बाग भी था। जबकि बड़े मले पुत्र के पास मात्र 6 बीघा जमीन थी।

जैसे-तैसे मौसी जी तथा रिश्तेदारों ने क्वारे बचे उनके दोनों पुत्रों का भी विवाह करा दिया।

चारों भाइयों की शादी हो जाने के उपरान्त भी इसने जमीन उनको वापिस नही की अन्ततः मजबूर होकर आज वो फैक्टरियों में नौकरी कर रहे हैं। लोगो के समझाने-बुझाने पर उसने छोटे भाइयों को दस-दस हजार प्रतिवर्ष मुआवजा देना स्वीकार कर लिया है।

लेकिन आज भी वो 32 बीघा जमीन और 8 बीघा बाग पर काबिज है।

दूसरी घटना मेरे ही शहर की है। दो भाई थे। 22 बीघा जमीन दोनों के पास थी। कुछ समय बाद दोनों अलग-अलग हो गये। लेकिन छल-बल से बड़े भाई ने छोटे भाई की जमीन कम रेट पर खरीद ली।

आज छोटा भाई दर-दर का भिखारी है जबकि बड़ा भाई उस जमीन की प्लाटिंग करके बेच रहा है और वो इस समय करोड़पति बना बैठा है।

तीसरी घटना मेरे पास के गाँव की है। जहाँ बड़े भाई ने अपने छोटे भाइयों को सिंगिल कमरे का मकान बना कर दे दिया है और अपने आप एक बड़े भवन व भूमि का स्वामी बना हुआ है।

उपरोक्त घटनाओं को देख कर मैं यह कह रहा हूँ कि अक्सर बड़ा पुत्र ही बेईमान होता है।

Tuesday 16 June 2009

‘‘गुरू-शिष्य का प्रगाढ़ रिश्ता’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

एक समय वो था, जब गुरू-शिष्य के मध्य एक रिश्ता हुआ करता था। जिसमें बँधकर जहाँ शिष्य गुरू के लिए अपार श्रद्धा रखता था, वहीं गुरू भी शिष्य को ज्ञान बाँटने के लिए उद्यत रहता था। उस समय ट्यूशन प्रथा नही थी।

मुझे 1960-70 के दशक की भली-भाँति याद है।

उन दिनों जिला-बिजनौर के नजीबाबाद शहर में पानी की बहुत किल्लत हुआ करती थी। सुबह 4 बजे से ही पनघट पर कुओं से पानी भरने की होड़ सी लगी रहती थी। कई बार तो कुएँ का पानी कम हो जाने पर गँदला पानी ही भरना पड़ता था और उसे निथार-निथार कर प्रयोग में लाया जाता था।

हिन्दी, संस्कृत व संगीत के प्रकाण्ड पण्डित यमुना प्रसाद कात्यायन जी का 2-4 मेधावी विद्यार्थियों पर बड़ा स्नेह था। जब तक हम उस विद्यालय मे पढ़े हमने सदैव 4 बजे कुओं से गुरू जी के लिए नियम से पानी भरा है। यद्यपि गुरू जी हमें पानी लाने के लिए नही कहते थे, परन्तु यह मारी गुरू के प्रति श्रद्धा ही थी।

गुरू जी ने भी हमें अष्टाध्यायी व लघु सिद्धान्त कौमुदी पढ़ाने में कोई कमी नही की थी। उस समय के याद करे हुए महेश्वर के सूत्र आज भी हमें कण्टस्थ याद है।

रिश्ता तो आज भी गुरू-शिष्य में प्रगाढ़ ही लगता है। मेरे शहर खटीमा में राजकीय इण्टर कालेज में कुछ गुरूजन ऐसे सौभाग्यशाली हैं जिनके घर पर 60-70 विद्याथियों की ट्यूशन की 2-3 शिफ्ट प्रातः तथा 2-3 शिफ्ट शाम को चलती हैं।

इसके अलावा कुछ छात्र उनके दोस्त भी बने हुए हैं, जो उनके लिए बोतल लेकर आते हैं और शाम ढलते ही गुरू और चेले साथ में बैठ कर जाम छलकाते हैं।

हुआ न प्रगाढ़ रिश्ता।

Sunday 14 June 2009

‘‘तानाशाही अनुशासन और सुझाव देना अनुशासन हीनता’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


पहले कल्याण सिंह, फिर जसबन्त सिंह और अब यशवन्त सिन्हा। भाई राजनाथ सिंह क्या हो रहा है ये?
आपकी तानाशाही अनुशासन और अपनी बात कहना अनुशासन हीनता।
बहुत अच्छी परिभाषा है।
राजनाथ सिंह जी आपको तो याद ही होगा कि फील-गुड के नारे की जनता ने किस तरह हवा निकाल दी थी। इसके बाद भी आपको और आपकी पार्टी के चाटुकारों को सद्-बुद्धि नही आयी। सीधे चुनाव के मैदान में आडवानी जी को उतार दिया प्रधानमन्त्री का कैण्डीडेट बना कर। काश चुनाव से पहले सर्वेक्षण कर लिया होता कि श्री आडवानी जी को भारत की जनता प्रधानमन्त्री के रूप में चाहती भी है या नही।
आख़िर चुनाव सम्पन्न हुए और असलियत सामने आ गयी। परन्तु राजनाथसिंह अब भी अपनी गल्ती सुधारने के मूड में नही लगते हैं। एक से बढ़कर एक दिग्गज इस्तीफे देते जा रहे हैं और आप बड़े मजे से इनको स्वीकार करते जा रहे हो।
मान्यवर, आप तो इतने बड़े पदों पर मुश्किल से ही पदासीन रहे होंगे। जितने कि ये पार्टी छोड़कर जाने वाले लोग रहे हैं । इनमें से किसी ने तो कई बार उत्तर प्रदेश की कमान सम्भाली है। कोई वित्तमन्त्री रहा है और कोई विदेश मन्त्री के पद को सुशोभित कर चुका है।
कहने का तात्पर्य यह है कि ये कोई बात या सुझाव दें तो अनुशासन हीनता और आपके कारण पार्टी की जो शर्मनाक पराजय हुई है, उसके खिलाफ पश्चाताप तो दूर आप अपनी तानाशाही को अनुशासन का नाम दे रहे हैं।
लोग तो अब यह भी कह रहे हैं कि राजनाथ सिंह बनाम भारतीय जनता पार्टी के ताबूत की आखिरी कील।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)

Thursday 11 June 2009

‘‘ईमानदारी आज भी जिन्दा है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

दो दिन पूर्व की बात है। मन हुआ कि आज सब्जी मण्डी से अपने मन की सब्जियाँ लाई जायें।

शाम को सात बजे के लगभग मैं सब्जी मण्डी गया। साथ में मेरा 10 वर्षीय पौत्र प्रांजल भी था। मैंने एक ही दूकान से 100रु0 की कुछ सब्जियाँ ले लीं और दुकानदार को पैसे देकर चलता बना।

मैं अपने स्कूटर के पास तक पहुँचा ही था कि सब्जीवाले का लड़का दौड़ता हुआ आया और कहने लगा- ‘‘बाबू जी! आपको मेरे पापा बुला रहे हैं।’’

मैं जब दुकानदार के पास गया तो उसने कहा- ‘‘बाबू जी! आप पाँच सौ का नोट दे गये थे। ये चार सौ रुपये आपके रह गये है।’’

हुआ यों था कि मैंने भूल से उसे 500 रु0 का नीले रंग का नोट, सौ रुपये का नोट समझ कर दे दिया था।

मैंने उसे धन्यवाद दिया।

जहाँ आज दुनिया दो-दो रुपये के लिए मारने मरने पर उतारू है, वहीं एक गरीब सब्जीवाला भी है। जो ईमानदारी की मिसाल बन गया है।

मेरे मुँह से बरबस निकल पड़ा कि ईमानदारी आज भी जिन्दा है।

Tuesday 9 June 2009

श्रद्धा-सुमन

भाव-भीनी श्रद्धांजलि

श्री हबीब तनवीर जी

श्री ओमप्रकाश आदित्य जी

श्री नीरज पुरी जी

श्री लाड सिंह गुज्जर जी

आप सब का असमय

इस नश्वर संसार से चले जाना,

साहित्य-जगत की अपूरणीय क्षति है।

परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि

वो दिवंगत आत्माओं को

सद्-गति प्रदान करें और

परिवारीजनों को

इस दारुण-दुख को

सहन करने की शक्ति दें।

दुख की इस घड़ी में

सभी ब्लॉगर्स आपके साथ हैं।

Sunday 7 June 2009

‘‘दादी जी! प्रसाद दे दो ना’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


जून माह छुट्टियों का होता है। इन दिनों मेरे घर छोटी बहिन विजयलक्ष्मी आयी हुई है। वो प्रत्येक माह की पूर्णमासी के दिन सत्यनारायण स्वामी का व्रत रखती है। प्रसाद बनाती है और कथा भी पढ़ती है।
आज पूर्णमासी है। मेरी बहिन ने जबसे प्रसाद बनाना शुरू किया है । मेरी पाँच वर्षीया पौत्री प्राची उसके पास से हिली तक नही है।
बार-बार कहती है- ‘‘दादी जी! प्रसाद दे दो ना।’’
बहिन ने उससे कहा- ‘‘पहले कथा पढ़ लेने दो। फिर प्रसाद मिलेगा।’’
अब कथा पढ़ी जा रही है। जैसे ही कथा का एक अध्याय समाप्त होता है।
प्राची कहती है- ‘‘दादी जी! प्रसाद दे दो ना।’’
हर अध्याय पूरा होने पर प्राची की एक ही रट है- ‘‘दादी जी! प्रसाद दे दो ना।’’
अंततः पाँचों अध्याय पूरे हो जाते हैं, अब पौत्री प्राची और पौत्र प्रांजल को प्रसाद मिलता है। दोनों बड़े खुश हैं और प्रसाद खा रहे हैं।
घर के सब लोग कह रहे हैं कि इतने मनोयोग से किसी ने भी कथा नही सुनी है ,जितने ध्यान से प्राची ने पूरी कथा सुनी है।
पता नही, यह ललक प्रसाद के लिए थी या सत्यनारायण स्चामी की जय बोलने के लिए।
लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि घर में धार्मिक अनुष्ठान होने से बच्चों पर तो संस्कार पड़ते ही हैं।

Saturday 6 June 2009

‘‘काश् गुस्से पर काबू रखते’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)

‘‘क्रोधी व्यक्ति अकेला ही रह जाता है’’
अगली कड़ी-
इसके बाद शुरू होता है अहम और बदले की भावना का खेल।
इन शायर महोदय की पत्नी बड़ी कर्मठ थी। घर-गृहस्थी का एक-एक सामान उन्होंने बड़े मन से जुटाया था। फ्रिज, कूलर, वाशिंग मशीन आदि सभी सामान तो था घर में। लेकिन इन्हें वो रास नही आया।
धीरे-धीरे करके फ्रिज, कूलर, वाशिंग मशीन और सिलाई मशीन तक औने-पौने दाम में बेच डाली। ये अपने को साहित्यकार तो कहलाते ही थे। अतः इक्का-दुक्का लोग इनसे मिलने भी चले जाते थे। जिनमें अधिकांश तो केवल भेद लेने के लिए ही जाते थे।
गर्मी के मौसम में ठण्डे पानी की जगह टंकी का गरम पानी पीकर ही इनको अपनी प्यास बुझानी पड़ती थी। यार-दोस्तों को भी मजबूरी में वही पानी पीना पड़ता था। अकेला दम और दिनचर्या वही।
खाये बिना तो रहा नही जाता था। कुछ दिन तो होटल में, खाया पर रोज-रोज होटल के खाने से जब इनका मन ऊब गया तो घर पर ही खाना बनाने लगे।
इनकी श्रीमती जी ने जब इनका यह हाल सुना तो वह इन्हें मनाने के लिए आयीं लेकिन बात और बिगड़ गयी।
इन्होंने अपने क्रोधी स्वभाव के कारण मध्यस्थ लोगों को गवाह बना कर तीन बार तलाक-तलाक कह दिया।
अच्छा भरा-पूरा घर महज गुस्से के कारण तबाह हो गया।
अब लोग जब इनकी शायरी सुनते हैं तो उपहास करने से नही चूकते हैं।
जो उम्र नाती पोतों के बीच गुजरनी चाहिए थी, वो अब तन्हा रहकर अकेले गुजार रहे हैं।
तलाक के बाद पत्नी ने मेहर और गुजारे के लिए न्यायालय में केस दर्ज करा दिया है। प्रति माह लगभग आधी पेंशन तो बकीलों के पेट में ही चली जाती है।
काश् गुस्से पर काबू रखते तो यह दुर्दशा तो नही होती।

Wednesday 3 June 2009

‘‘क्रोधी व्यक्ति अकेला ही रह जाता है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)


कई वर्ष पुरानी बात है। मेरे एक मित्र थे। केन्द्र सरकार के महत्वपूर्ण विभाग में महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत थे। कभी-कभी उनके कार्यालय में जाना होता था, तो वो ढंग से बात नही करते थे। उनकी इस आदत से सभी परेशान थे।
एक दिन नगर में एक कवि गोष्ठी थी। संयोगवश् ये सज्जन भी उसमें बतौर शायर पधारे थे। मैंने जब इन्हें इस रूप में देखा तो विश्वास ही नही हो रहा था कि ये वही होंगे, जो कि अपने दफ्तर में इतने बद-तमीज हैं।
खैर, जब इन्होंने मेरी कविताएँ सुनी तो ये खासे प्रभावित हुए और इनसे दोस्ती हो गयी। इनके घर आना जाना भी हो गया। परन्तु अपने स्वभाव के अनुसार इन्होंने अपनी व अपने परिवार की श्लाघा करनी नही छोड़ी। मैं भी हाँ-हूँ करके इनकी बाते सुन लिया करता था।
एक दिन शाम को 6 बजे के लगभग मैं इनके घर अनायास ही पहुँच गया। वहाँ मैंने जो दृश्य देखा उसे शब्दों में वर्णन करना एक कठिन कार्य है। संक्षेप में इतना ही लिखना पर्याप्त है कि इनके बच्चे व पत्नी इन्हे जूते चप्पल मार रहे थे और ये भी पलट वार कर रहे थे।
आज स्थिति यह है कि इन्होंने अपनी सेवा से स्वेच्छा से अवकाश ले लिया है। 3 कमरों का एक घर भी बनाया हुआ है। परन्तु इनकी पत्नी व पुत्र दूसरे शहर में किराये के मकान में रहते हैं और ये उस घर में अकेले रहने को मजबूर है।
कहने का तात्पर्य यह है कि क्रोधी व्यक्ति अकेला ही रह जाता है। घर परिवार वाले भी उसका साथ छोड़ देते हैं।
क्रमशः..................

Tuesday 2 June 2009

"भा0ज0पा0 की हार के कारण" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

भारतीय जनता पार्टी उत्तराखण्ड में सत्ता में रहते हुए भी लोकसभा की पाँचों सीटें क्यों हार गयी?

इसी गुणा-भाग में पार्टी के वरिष्ठ नेता लगे हुए हैं, परन्तु इसके असली कारण पार्टी दफ्तर में बैठ कर नही अपितु जनता के बीच जाकर तलाश करने होंगे।

मेरा भा0ज0पा0 से कुछ लेना देना नही है तथा नही मैं इस पार्टी का सदस्य हूँ। लेकिन एक नागरिक होने के नाते हार के कारणों की समीक्षा तो कर ही सकता हूँ।

मेरी पहचान के एक व्यक्ति हैं, जो भा0ज0पा0 कोटे से आयोग के नये-नये मेम्बर बने हैं। उन्होंने चुनाव से 5-6 दिन पहले एक बोलेरो जीप हायर की और 8-9 निठल्लों को बैठा कर प्रचार के चुनाव यात्रा पर लिए निकल पड़े। उनके पास एक बहुत बढ़िया कैमरा भी था, जिसमें वो अपनी चुनाव प्रचार यात्रा की फोटो खिंचवाते रहे।

ये सज्जन केवल वहाँ-वहाँ ही गये जहाँ कि प्रत्याशी जा रहा था। अर्थात् ये प्रत्याशी के साथ रहे और उसके साथ ही फोटों का कलेक्शन करते रहे। जब इनका मकसद पूरा हो गया तो संयोग से ये मेरे शहर में भी आये।

आयोग का पूर्व सदस्य होने के नाते ये सज्जन अपनी निठल्ली फौज को लेकर दिन में 11 बजे मेरे पास पहुँचे। सबने भोजन किया, दोपहर मे आराम किया और शाम को 5 बजे वापिस लौट गये।

जब मैंने इन सज्जन से चुनाव के बारे में चर्चा की तो वो बोले कि हमें यहाँ जानता ही कौन है? हम तो यहाँ से साढ़े तीन सौ कि.मी. दूर के रहने वाले हैं।

इन्होंने आगे कहा कि वैसे भी हमारा प्रत्याशी तो जीत ही रहा है। बस हमें तो कैण्डीडेट को अपनी शक्ल दिखानी थी। इसलिए दो-चार सभाओं में उनके साथ रहे। उनकी लोकप्रियता की सूची में अपना नाम आ गया और हो गया चुनाव प्रचार।

अब इनसे कोई पूछे कि आपने अपने क्षेत्र में जहाँ आपका प्रभाव था चुनाव प्रचार क्यों नही किया? तो इसका कोई उत्तर इनके पास नही था।

सच पूछा जाये तो बड़बोलापन भा0ज0पा0 को ले डूबा। इसके साथ ही सरकार में बैठे नेताओं ने भी पार्टी के साथ गद्दारी करने में कोई कसर नही छोड़ी और भा0ज0पा0 के ताबूत में कील ठोकते चले गये।

यही थे भा0ज0पा0 की हार के कारण।

Monday 1 June 2009

‘‘संस्कार’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

ब्लॉग जगत में श्रीमती वन्दना गुप्ता मेरी एक अच्छी मित्र हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग पर ‘‘कुछ अनुत्तरित प्रश्न’’ पोस्ट प्रकाशित की। जिसे पढ़कर मेरे मन में उनके प्रति सम्वेदना का भाव जाग्रत हुआ और मैंने अपनी टिप्पणी में लिखा-
‘‘वन्दना जी!आपने तो जीवन का वो पृष्ठ खोल कर सामने रख दिया। जिसे हर व्यक्ति छिपाता रहता है। आपका साहस काबिले-तारीफ है। समय की प्रतीक्षा करो, सब ठीक हो जायेगा।’’
वन्दना जी के ब्लाग पर माडरेशन सक्षम है, लेकिन उनकी महानता देखिए कि उन्होंने मेरी टिप्पणी को प्रकाशित कर दिया।
थोड़ी देर बाद उनका मेल मुझे प्राप्त हुआ जिसमें लिखा था-
‘‘शास्त्री जी! ये सब मेरे साथ नही हुआ है। सिर्फ लिखा है- आज के हालात पर, जो अधिकांश के साथ घट चुका है।’’
उनकी इस पोस्ट ने कुछ ऐसे प्रश्न उछाल दिये हैं। जिन पर हमें गम्भीरता से सोचने की आवश्यकता है। वो प्रश्न निम्न हैं-
‘‘क्या आज मैं घर के कोने में पड़ी एक अवांछित वस्तु से ज्यादा नही ?
क्या अब मुझे इस सत्य को स्वीकारना होगा?
क्या मुझे अब जिन्दगी को गुजारने के लिए एक नए सिरे से सोचना होगा?
क्या कभी मेरा भी कोई अस्तित्व होगा ?
न जाने कितने अनुत्तरित प्रश्न मुखर हो उठे हैं ।
शायद अब उम्र के इस पड़ाव पर इन प्रश्नों का उत्तर खोजना होगा।’’
ऐसी घटनाएँ रोजमर्रा की जिन्दगी में अक्सर घटती ही रहती है, परन्तु हमारी मानवीय सम्वेदनाएँ इतनी शून्य हो गयी है कि हमारा ध्यान उन पर जाता ही नही है।
प्रसंगवश् मुझे एक कथानक याद आ रहा है।
‘‘एक कलयुगी पुत्र अपने बूढ़े पिता से मुक्ति पाना चाहता था। इसके लिए उसने एक युक्ति निकाली कि क्यों न पिता को जंगल में छोड़ दिया जाये। अतः वह अपने पिता को जंगल में ले जाने लगा। साथ में उसका 12 वर्ष का पुत्र भी था। जो इस बात को लेकर बड़ा दुखी था। इसलिए उस बालक ने अपने हाथ में एक पेन्ट का डिब्बा ले लिया और ब्रुश से पेड़ो पर निशान लगाता हुआ साथ-साथ चलने लगा।
अचानक बालक के पिता ने जब उससे पूछा कि बेटा यह कया कर रहे हो।
पुत्र ने उत्तर दिया-‘‘पापा जी! कुद दिनों के बाद आप जब बूढ़े हो जायेंगे तो आपको भी तो जंगल में छोड़ने के लिए इसी रास्ते से आना होगा। मैं कहीं रास्ता न भूल जाँऊ। इसीलिए पेड़ों पर निशान लगाता जा रहा हूँ।"
इतना सुनते ही कलयुगी पुत्र की अक्ल ठिकाने पर आ गयी और वह अपने बूढ़े पिता को वापिस घर ले आया।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो व्यवहार हम अपने घर के बड़े-बूढ़ों के प्रति कर रहे हैं उसको हमारी आने वाली पीढ़ी भी संस्कार के रूप में हमसे सीख रही है। इसलिए हम कोई भी ऐसा काम न करें जो कि आने वाले कल में हम पर ही भारी न पड़ जाये।