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Sunday 21 June 2009

‘‘शाबाश पिल्लू" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)




आज से करीब 12 वर्ष पूर्व हमने एक छोटी नस्ल की कुतिया पाल रखी थी। उसका नाम जूली था।

वो बड़ी समझदार थी। इशारों-इशारों में ही वो काफी कुछ सीख जाती थी। स्कूटर की बास्केट में बैठना तो उसे बहुत अच्छा लगता था।

एक बार की बात है। मुझे अपने किसी मित्र के यहाँ 15 किमी दूर पड़ोसी देश नेपाल के गाँव में चाँदनी न0 6 में जाना था। वहाँ कार के जाने लायक रास्ता नही था। इसलिए स्कूटर से ही जाना बेहतर समझा।

खटीमा से कुछ दूर जाने के बाद रास्ते में बियाबान जंगल पड़ा। वहाँ अचानक एक मरखनी गाय स्कूटर के पीछे पड़ गयी। मैंने स्कूटर रोक लिया तो तो वो मुझे मारने के लिए आगे बढ़ने लगी।

जैसे ही स्कूटर रुका तो जूली एक दम उतरी और गाय को भौंकने लगी। गाय को कुतिया से अब अपनी जान छुड़ानी मुश्किल हो रही थी। जूली कभी उसके आगे आ जाती और कभी उसकी पूँछ पकड़ कर लटक जाती थी। आखिर गाय को हार मान कर भागना ही पड़ा।

मुझे तो अनुमान भी नही था कि जूली मेरे स्कूटर की बास्केट में छिपी बैठी होगी। इतनी स्वामी-भक्त थी यह जूली। एक साल के बाद जूली ने 4 बच्चों को जन्म दिया। उनमें दो पिल्ले व दो पिलिया थीं।
दो महीने होते-होते उसके सारे बच्चे मैंने अपने मित्रों में बाँट दिये। केवल एक पिल्ला अपने यहाँ रख लिया। उसका नाम पिल्लू रखा गया। शुरू-शरू में पिल्लू से सब लोग नफरत करते थे। क्योंकि यह अक्सर सड़क पर चला जाता था और कूड़ा खँगालने लगता था।

जूली को उन दिनों जलोदर रोग हो गया था। उसका बहुत इलाज कराया परन्तु वह बच नही पाई। शायद उसका इतना ही साथ था।

अब पिल्लू को सब लोग बहुत प्यार करने लगे थे। उन दिनों मेरे यहाँ भवन निर्माण का कार्य चल रहा था। पिल्लू और पिता जी वहाँ पर रहते थे।

एक दिन पिता जी किसी काम से बाजार गये थे। पिल्लू वहाँ पर अकेला था। सुबह 8 बजे राज और मजदूर काम पर आ गये थे। लेकिन वो घर के सामने पुलिया पर बैठे थे ।

सवा आठ के करीब जब मैं राज मजदूरों को देखने आया तो देख कर आश्चर्य हुआ कि काम अभी तक नही लग पाया था। मैंने मजदूरों से पूछा कि काम क्यों नही शुरू किया तो उन्होंने मुझे बताया कि साहब आपका कुत्ता अन्दर जाने ही नही दे रहा है।

मैंने भी उसका नजारा देखना चाहा और एक मजदूर से बल्ली उठाने को कहा तो पिल्लू भाग कर आया और बल्ली मे दाँत गड़ा कर बैठ गया।

पिल्लू आज भी जीवित है। अब तो वह बूढ़ा हो गया है लेकिन क्या मजाल है कि पिता जी को कोई कुछ कह दे। पिता जी के साथ कोई जोर से बोलता भी है तो पिल्लू भौकने लगता है।

एक बार पिता जी के कोई मित्र उनके पास बैठे थे। उन्होंने प्यार में पिता जी का हाथ पकड़ लिया तो पिल्लू उनको काटने के लिए तैयार हो गया था। इसीलिए कहा जाता है कि कुत्ते से वफादार कोई दूसरा जानवर नही होता है।

शाबाश पिल्लू।

12 comments:

  1. aapne sahi farmaya......tabhi to vafadari ki misal hai.

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  2. Bahut sahi kaha apne...
    कभी मेरे ब्लॉग पर भी पधारें !!

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  3. बात तो आपकी अपनी है जो बिल्कुल सही है

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  4. sunder sachhi baat keh di,pilu ko khub sara sneh.

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  5. बहुत ही शानदार ढंग से लिख गया लेख. सर्वत (एम्) का एक शेर है:
    वफादारी, नमक क्या चीज़ है, इंसान क्या जाने
    ये कुत्ते जानते हैं, आदमी का क्या भरोसा है.
    आपको मंजर लखनवी साहब की गजल पसंद आयी, धन्यवाद. हमारा प्रयास है कि भविष्य में भी अच्छी रचनाएँ आप तक पहुंचें.

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  6. aap ke kisi bhi lekh men koi kami nahi hoti sadar namskar

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  7. juli aurpillu ki swami bhakti padhakar man khush ho gaya .
    pillu ko pyar.

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  8. कुत्तों से वफादार तो कोई नहीं होता.
    हमारे यहाँ भी दो कुत्ते हैं. वे हमारे घर के पास ही पैदा हुए थे पिछली बरसात में. हम भी उन्हें रोटी वोटी देने लगे. धीरे धीरे वे हमसे इतने घुल-मिल गए कि किसी की क्या मजाल कि घर में पैर भी रख सकें. मैं महीने भर में घर जाता हूँ वो भी रात को, तो दूर से ही पहचान जाते हैं मुझे. मेरे जाते ही मुझसे लिपट जाते हैं और डंडा दिखने पर भी नहीं भागते.

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  9. bachpan me mere ghar pe ek doggy tha,uskee yaad aa gayee...vaise koi kuch kahe,kuch insaan kutto ko gazab ka pyaar dete hai...meri ek dost hai jo humme se kisi ko kabhi "kutta" bolne hee nahee detee,isliye ab doggy bolne ki aadat pad chukee hai :)

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  10. आपने सच फ़रमाया.

    मुझे भी इसका बहुत गहन अनुभव पिछले डेढ़ साल से हो रहा है., बिन पाले कुत्ते से, जो खुद को

    "मान न मान मैं तेरा अपना" की तर्ज़ पर स्वामिभक्त दिखने से नहीं चूकता.

    इसकी हरकतों को देख और आज के पड़े-लिखे लोगों की दोगली हरकतों को देख सोचने पर मजबूर होना पड़ता है

    कौन अपना............कौन पराया,
    किसने साथ निभाया किसने लूट खाया.........

    बधाई बिचारों के समन्वय की.

    चन्द्र मोहन गुप्त

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